Thursday, December 30, 2010

न्याय का पक्ष

अदालत के प्रति निष्ठा इसीलिए है कि वह किसी की पक्षधर नहीं है.
सर्वोच्च न्यायालय ने 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के संबंध में दायर की गई जनहित याचिका पर यह निर्णय किया है कि मामले की जांच सीबीआई करेगी, लेकिन न्यायालय इसकी निगरानी करेगा। इसके दायरे में वर्ष 2001 से 2008 तक की अवधि के सभी निर्णय और कार्यविधियां होंगी। सरकारी खजाने को कितना नुकसान हुआ है, यह भी जांच का विषय होगा। इस पर भाजपा ने संतुष्टि व्यक्त की है। कांग्रेस सरकार भी इसलिए संतुष्ट है कि समस्त प्रकरणों की जांच इसमें समाहित हो गई है। इससे विपक्ष का जेपीसी (संयुक्त संसदीय समिति) द्वारा जांच का आग्रह कमजोर हो जाएगा। हालांकि इस मामले में फिलहाल भाजपा के बीच ही घमासान मचा हुआ है और जेपीसी के पक्ष में सुषमा स्वराज, तो पीएसी के पक्ष में मुरली मनोहर जोशी मजबूती से खड़े हैं।
दूरसंचार घोटाला भारतीय राजनीति का एक ऐसा निर्णायक तत्व बन गया है, जिसे लेकर सत्ता और विपक्ष की पैंतरेबाजी का अर्थ यही लगाया जा रहा है कि इस मुद्दे पर सरकार को कितना घेरा या बचाया जा सकता है। सरकार चाहती है कि इस जांच को असीमित अधिकार और विशेषाधिकार वाली जेपीसी के लपेटे में आने से कैसे बचाया जाए, क्योंकि तब जांच से राजनीति को अलग नहीं किया जा सकेगा। इस संबंध में संचार मंत्रालय ने सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश को जांच का काम सौंप रखा है, और नियंत्रक और महालेखा परीक्षक पहले ही अपनी रिपोर्ट दे चुके हैं। सीबीआई की प्रारंभिक रिपोर्ट भी 10 फरवरी तक आनी है। इससे यह सवाल पैदा हो सकता है कि यदि इनमें विसंगतियां हों, तो प्रामाणिक किसे माना जाएगा। अंतत: यदि दंड के लिए किसी कार्रवाई की आवश्यकता हो, तो वह पुलिस या सीबीआई जांच से ही पूरी हो सकती है, क्योंकि कार्यपालिका द्वारा पुलिस को ही अपराधों की जांच एजेंसी बनाया गया है और केंद्रीय जांच ब्यूरो भी इस अधिकार से आच्छादित है।
परिपाटी यह है कि पुलिस हस्तक्षेप वाले तमाम मामलों में राज्य ही प्रथम पक्ष होता है। इसके पीछे आशय यह है कि उसके द्वारा बनाए गए नियम-कानूनों का जिन लोगों ने उल्लंघन किया है, उन्हें न्यायालय द्वारा दंडित करवाया जाए। इस प्रकार अभियोक्ता, अभियुक्त और न्यायालय इसके तीन अंग हैं, लेकिन न्यायालय को पक्ष स्वीकार नहीं किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय यदि केंद्रीय जांच ब्यूरो की जांच की निगरानी करेगा, तो क्या वह न्यायिक कार्य होगा, क्योंकि न्यायपालिका का काम किसी को दंडित या मुक्त करना नहीं, बल्कि न्याय करना है। न्यायपालिका के प्रति अपरिमित विश्वास का मुख्य कारण यह है कि वह मुकदमे में किसी की पक्षधर नहीं है, न्याय का पक्ष ही उसका अपना पक्ष है। यह बात संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में भी आती है कि कहीं न्यायिक और प्रशासनिक अधिकार एक ही व्यक्ति या संस्थान में समाहित न हों। इसीलिए संविधान के अनुच्छेद 50 के अंतर्गत न्यायपालिका और कार्यपालिका का विभाजन किया गया है।
अब प्रश्न है कि किसी मामले में होने वाली जांच की निगरानी न्यायिक कार्य है या प्रशासनिक। यदि यह निगरानी न्यायपालिका करने लगेगी, तो फिर पीड़ित पक्ष न्याय के लिए कहां जाएगा, क्योंकि वह तो न्यायपालिका को प्रभुमानता है, पुलिस का दरोगा और कप्तान नहीं। अपराध प्रक्रिया संहिता में भी किसी मामले की जांच की निगरानी संबद्ध पुलिस अधिकारी ही करता है। वही आरोप पत्र या अंतिम रिपोर्ट लगाने के कागज पर दस्तखत कर अदालतों को भेजता है। इसके साथ अभियुक्त को पक्ष के रूप में यह अधिकार है कि वह न्यायपालिका को जांच की विसंगतियों से अवगत कराए और उससे मांग करे कि दोषपूर्ण जांच पर नए सिरे से जांच का आदेश दिया जाए या किसी प्रश्न पर अभियोजन की ओर से स्पष्टीकरण प्राप्त कर लिया जाए।
ऐसे में यदि अभियोजक पर न्यायपालिका का नियंत्रण हो जाएगा और वह इसकी निगरानी भी करेगा, तो क्या इससे उसकी निष्पक्षता के संबंध में सवाल नहीं उठेगा? क्योंकि वही पुन: निर्णय करने के लिए बैठ जाए, तो सवाल उठेगा कि मी लॉर्ड, आप कैसे। इसी तरह जहां तक सरकार के निर्णयों का संबंध है, विचारणीय विषय केवल इतना ही हो सकता है कि यह नियम और विधि सम्मत है या नहीं, कहीं संविधान की मान्यताओं का निरादर तो नहीं हुआ है। इसके अतिरिक्त सरकार को यह अधिकार है कि वह अपनी नीति बनाए, चलाए और प्रकाशित-प्रसारित करके उसे जनता को बताए, लोकतंत्र में जिसके प्रति उसकी जवाबदेही है। इस प्रकार न्यायपालिका को सरकार की नीति बनाने का अधिकार नहीं है, यह काम तो जनप्रतिनिधियों का है। इसीलिए जब सरकारी गोदामों में खाद्यान्न सड़ने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उसे गरीबों में बांट देने के लिए कहा, तो प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कह दिया कि यह आपका विषय नहीं है, इस पर तो निर्णय सरकार ही करेगी। इस प्रकार नीति संबंधी प्रश्न सरकार के विचार और निर्णय परिधि से बाहर नहीं किए जा सकते। वह संविधान की मर्यादाओं, भावनाओं और प्रावधानों के अनुकूल हो, केवल इतना ही प्रश्न है, जो न्यायालय के समक्ष विचार के लिए जनहित वाद द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। लेकिन लगता है कि न्यायपालिका इस मामले में मीडिया के प्रभाव में आ गई है, इसीलिए अति उत्साह में उसने इस मामले की निगरानी का दायित्व भी संभालने की घोषणा कर दी है। न्यायपालिका को तो यह अधिकार था कि सीबीआई ने कहां-कहां, किस प्रकार चूक और गलतियां कीं, उसे दुरुस्त करने को कहे।



Wednesday, December 29, 2010

मृत्युदंड का विरोध क्यों

बीते दिनों 192 सदस्य देशों वाली संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मृत्युदंड पर रोक लगाने संबंधी प्रस्ताव को 41 के मुकाबले 109 मतों से पारित कर दिया। गौरतलब है कि 35 देश मतदान के दौरान गैर हाजिर रहे। भले ही इस बार मृत्युदंड पर रोक लगाने संबंधी प्रस्ताव के समर्थन में कुछ और देशों के जुड़ने से प्रस्तावक देश अपनी जीत मान लें, लेकिन महासभा की सभी देशों से इसे खत्म करने की अपील के बावजूद यह किसी देश के लिए बाध्यकारी नहीं है।
प्रस्ताव के पक्षधर देशों द्वारा तर्क दिया जाता है कि मौत की सजा मानवीय गरिमा को घटाने वाली है और चूंकि इसके कोई साक्ष्य नहीं मिलते कि यह अपराध रोकने में कारगर है, इसलिए इसे समाप्त किया जाना चाहिए।
हमारे देश में भी पिछले पांच वर्षों से मृत्युदंड के औचित्य को लेकर बहस जारी है। अफजल को मृत्युदंड सुनाए जाने के बाद से यह मुद्दा गरम है कि मानवाधिकार का हनन करने वाले इस अमानवीय कानून को खत्म किया जाना चाहिए। तीन वर्ष पूर्व देश में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कुछेक मानवाधिकारवादी संगठनों व स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ जन-जागृति व हस्ताक्षर अभियान भी चलाया था, ताकि सरकार पर दबाव बनाया जा सके। उनका तर्क था कि जब अमेरिका के कुछ राज्य समेत दुनिया के 129 देश इसे खत्म कर चुके हैं, तो हमारे देश में भी इसे खत्म कर देना चाहिए। एक कड़वी सचाई यह भी है कि अकेले 2006 में ही 91 फीसदी मौत की सजाएं ईरान, इराक, पाकिस्तान, सूडान, चीन और अमेरिका में ही दी गई।
विचारणीय मुद्दा यह है कि क्या यह मांग न्यायसंगत है और यदि मृत्युदंड को खत्म कर दिया जाता है, तो उस दशा में अपराधी को क्या सजा दें और क्यों? जहां तक सरकार के दृष्टिकोण का सवाल है, वह पांच वर्ष पूर्व लिए निर्णय पर अडिग है और इसे खत्म करने के पक्ष में नहीं है। इस बारे में सरकार का नजरिया महत्वपूर्ण है कि जिस देश में प्रधानमंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री तक की हत्या कर दी जाए, आतंकवादी संसद पर हमला कर दें, वहां ऐसी सजा का होना बहुत जरूरी है।
मानवाधिकारवादी और फांसी की सजा के विरोधी सभ्य समाज के लिए इसे कलंक करार देते हैं, पर यह भी विचारणीय है कि जिसकी दृष्टि में मासूम अबोध बच्ची, अवयस्क बालिका, युवती, प्रौढ़ा और वृद्धा मात्र वासनापूर्ति का साधन हो और उसके बाद सुबूत मिटाने के लिए उसकी हत्या कर देता हो, जो पत्नी की दहेज खातिर या शंका के कारण या उससे पीछा छुड़ाने के लिए हत्या कर देता हो, जो अपने निकृष्ट उद्देश्य के लिए क्षण-भर में बम-विस्फोट कर सैकड़ों को मौत की नींद सुला देता हो और जिसके लिए आदमी की जिंदगी की कोई कीमत न हो, क्या ऐसा व्यक्ति सभ्य समाज का नागरिक कहलाने का अधिकारी है। सच तो यह है कि ऐसे व्यक्ति के लिए मौत की सजा से कम कुछ भी नहीं है। उस स्थिति में, जब देश बीते दो-ढाई दशकों से भी अधिक समय से आतंकवाद, जातिगत, नस्लीय, सांप्रदायिक, वर्गीय, नक्सली, पारिवारिक और यौन हिंसा के साथ-साथ भू सामंतों व राजनीतिक प्रभुत्व के स्थायित्व की खातिर की जाने वाली हिंसा से ग्रस्त हो, मौतों का ग्राफ साल-दर-साल बढ़ता जा रहा हो और यह आंकड़ा जब सालाना लगभग चालीस हजार पार कर गया हो, तो इसे मानवाधिकार हनन करने वाला कानून बताकर खत्म किए जाने की मांग क्या हत्यारों को बचाने का प्रयास नहीं है? फिर भी हमारे यहां बीते 25 वर्षों में मात्र 55 लोगों को ही मौत की सजा दी गई है, जो इसका प्रमाण है कि यह सजा हमारे देश में विशेष स्थितियों में अपवादस्वरूप ही दी जाती है।
फिर जिन देशों में मौत की सजा का प्रावधान नहीं है या वे इसे अमल में नहीं ला रहे, वहां इसके कोई प्रमाण नहीं मिलते कि इसके बाद वहां वीभत्स हत्याओं के ग्राफ में कोई कमी आई है। अमेरिका, जो समूची दुनिया में सबसे ज्यादा सभ्य व लोकतांत्रिक देश माना जाता है, वहां भी मृत्युदंड का प्रावधान है। सचाई यह है कि समाज की भलाई के लिए मौत का भय होना बेहद जरूरी है। संयुक्त राष्ट्र में इसके खिलाफ 41 देशों ने मतदान किया और 35 देश गैर हाजिर रहे, जो इस बात का प्रमाण है कि वे इसे खत्म करने के पक्ष में नहीं हैं। भविष्य में भले ही कुछ सार्थक परिणाम आने की उम्मीद है, लेकिन फिलहाल यह मामला अनसुलझा ही रहेगा। 

इस वर्ष हायर जुडिशियरी में भ्रष्टाचार रहा बड़ा मुद्दा

एक ठहराव के बाद न्यायिक सक्रियता लगभग पूरे साल एक फिर अपने चरम पर रही। लेकिन इस बार निशाने पर खुद न्यायपालिका थी। हायर जुडिशियरी में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा। पहली बार खुद सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया कि हायर जुडिशियरी में भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार एक गंभीर बीमारी का रूप अख्तियार कर चुका है। वहीं जनहित याचिकाओं की सार्थकता पर न्यायपालिका अपने ही अंर्तद्वंद्व में फंसी रही। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है। लेकिन अवमानना की तलवार के भय से इस विषय पर सार्वजनिक टिप्पणी करना खतरे से खाली नहीं था। न्यायपालिका ने खुद आगे आकर स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार न्यायपालिका की दहलीज पार कर चुका है। सुप्रीम कोर्ट की स्वीकारोक्ति न्यायपालिका में स्वच्छता लाने की आस रखने वाले लोगों के लिए एक आशा की किरण है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के कुछ जजों पर उंगली उठाकर उच्चतर न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नए सिरे से बहस शुरू की। भ्रष्टाचार को लेकर न्यायपालिका में एक अरसे उंगली उठती रही है लेकिन निचले स्तर पर भ्रष्टाचार का हवाला देकर इसे खारिज कर दिया जाता था। जजों की नियुक्ति में पार्रदशिता भी एक मुद्दा बना रहा। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति पूरी तरह न्यायपालिका के हाथ में है। पिछले लगभग 17 साल से चली आ रही इस चयन प्रक्रिया पर अब गंभीर सवाल उठने लगे हैं। जजों के चयन में सरकार की भूमिका न होने के बावजूद कॉलेजियम न्यायाधीशों के खाली पद भरने में नाकाम रहा है। इस कारण अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हाईकोर्ट के कुछ जजों को सुप्रीम कोर्ट पदोन्नत न करने पर चयन मंडल की विश्वसनीयता पर संदेह व्यक्त किया गया। जस्टिस दिनाकरन को पदोन्नत करने और जस्टिस एपी शाह को सुप्रीम कोर्ट के जज के पद से वंचित करने पर न्यायविदों ने भी अपनी आपत्ति र्दज कराई। जाने-माने कानूनविद शांति भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के पिछले 16 चीफ जस्टिसों में से आठ को भ्रष्ट करार देकर करप्शन पर हमला तेज किया। उनकी बात को समाज के बहुत बड़े र्वग का र्समथन मिला। न्यायिक सक्रियता को लेकर अदालत में दो अलग-अलग विचारधाराएं उभर कर सामने आईं। एक र्वग न्यायिक सक्रियता को उचित ठहराता है। वह सरकार की जवाबदेही के लिए अदालत को एक उचित फोरम मानता है। सक्रियता की वकालत करने वाले जजों ने अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार को कटघरे में खड़ा किया। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो या अनाज की र्बबादी। अदालत के आदेशों से सरकार की नींद हराम हुई। लेकिन न्यायपालिका का एक र्वग जनहित याचिकाओं की सार्थकता पर सवाल उठाता रहा। कई जजों ने जनहित याचिकाओं को अदालती समय की र्बबादी तक कह डाला। जनहित याचिकाओं का विरोध करने वाले र्वग का मत है कि सरकार की नीतियों पर अदालतों को दखल देने का अधिकार नहीं है। संविधान में चेक एंड बैलेंसेज की अवधारणा को नए साल में और गति मिलने की संभावना है।
साल के र्चचित फैसले
अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद के साठ साल पुराने मामले पर फैसला र्सवाधिक र्चचित रहा। अदालत के फैसले से एक टकराव टल गया। जजमेंट पर बहस हुई और मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है।
संविधान पीठ के कई फैसले भी महत्वपूर्ण रहे। नारको टेस्ट को मानवाधिकार की कसौटी पर रखकर सुप्रीम कोर्ट ने वैज्ञानिक जांच को नए सिरे से परिभाषित किया।
जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने का मसला संविधान पीठ को सौंप दिया गया।
सेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन को हरी झंडी देकर सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की मूल भावना को बुलंद किया।
स्ट्रीट हॉगिंग को भी मौलिक अधिकार बताकर न्यायपालिका ने समाज के निचले तबके को भारी राहत दी।
गोदामों के अंदर और बाहर रखा अनाज सड़ने पर अदालत ने सरकार को कटघरे में खड़ा किया।
दिल्ली के दो र्चचित हत्याकांडों, जेसिका लाल और प्रिर्यदशनी मट्टू के हत्यारों को उम्रकैद की सजा सुनाकर अदालत ने यह संदेश दिया कि कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो, कानून सबसे ऊपर है।

Tuesday, December 28, 2010

गंगा सफाई पर मुकदमों के शीघ्र निपटारे की मांग

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया है कि देश की विभिन्न अदालतों में गंगा सफाई परियोजनाओं से जुड़े मुकदमों के शीघ्र निपटारे के आदेश दिए जाएं। लंबित मुकदमों के कारण न सिर्फ गंगा सफाई परियोजनाएं पूरी करने में देरी हो रही है, बल्कि उनकी लागत भी बढ़ रही है। केंद्र सरकार ने यह अनुरोध सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में किया है। सरकार ने गंगा नदी की सफाई की स्थिति और परियोजनाओं से जुड़े अन्य अदालतों के लंबित मुकदमों के बाबत पूछे गए सवाल के जवाब में कहा है कि गंगा क्षेत्र वाले राज्यों में भूमि अधिग्रहण में हो रही देरी, जमीन पर अवैध कब्जे, करार विवाद और मुकदमेबाजी के कारण परियोजनाएं लटकी हैं। इससे देरी के अलावा लागत भी बढ़ती जा रही है। इसके अलावा विभिन्न उच्च न्यायालयों में भी जनहित याचिकाएं लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट संबंधित उच्च न्यायालयों को गंगा परियोजनाओं से जुड़े मुकदमों के शीघ्र निपटारे का आदेश दे, ताकि राज्य सरकारें परियोजनाओं को जल्दी लागू कर सकें। सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार की पैरवी कर रहे अतिरिक्त सॉलीसिटर जनरल मोहन जैन बताते हैं कि केंद्र सरकार ने 1400 करोड़ रुपये का कोष सिर्फ गंगा की सफाई के लिए रखा है लेकिन विभिन्न अदालतों में मामला लंबित होने के कारण परियोजनाओं के क्रियान्वयन में देरी हो रही है। गंगा एक्शन प्लान से संबंधित दो मुकदमे तो सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में निपटाए हैं, लेकिन अन्य अदालतों में लंबित मुकदमे भी निपटने चाहिए। अदालतों में लंबित मुकदमों के ब्योरे के मुताबिक गंगा नदी का प्रदूषण दूर करने और गंगा एक्शन प्लान के दूसरे चरण के मुद्दों को उठाने वाले चार मुकदमे इलाहबाद हाईकोर्ट में लंबित हैं। पटना हाईकोर्ट में भी एक जनहित याचिका लंबित है, जिसमें बिहार सरकार को गंगा नदी प्राधिकरण बनाने और नदी का प्रदूषण समाप्त कर न्यूनतम प्रवाह सुनिश्चित किए जाने का आदेश देने की मांग की गई है। इसके अलावा उत्तराखंड में भी गंगा से जुड़े चार मुकदमे लंबित हैं, जिनमें एक उत्तरकाशी की जिला अदालत में और तीन हरिद्वार की जिला अदालत में हंै। जबकि उत्तराखंड हाईकोर्ट में लंबित मुक़दमे का गत जून में निस्तारण हो चूका है