Sunday, January 30, 2011

हज सब्सिडी संविधान का उल्लंघन नहीं


सार्वजनिक धन का कुछ हिस्सा तीर्थयात्रा में छूट के लिए दिया जाता है तो यह असंवैधानिक नहीं : सुप्रीम कोर्ट
इलाहाबाद के कुंभ मेला, चीन की मानसरोवर यात्रा पाक गुरुद्वारों में जाने के लिए भी दी जाती है विशेष छूट
नई दिल्ली (एजेंसियां) उच्चतम न्यायालय ने अपनी व्यवस्था में शुक्रवार को कहा कि हज यात्रा के लिए मुस्लिमों या अन्य धमोंर्ं को इसी प्रकार के लाभ देना संविधान का उल्लंघन नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि हज करने के लिए मुस्लिमों को सब्सिडी देना अनुच्छेद 14 (समानता), 15 बी (गैर भेदभाव) और 27 (किसी भी धर्म को प्रोत्साहित करने के लिए कोई सार्वजनिक कर नहीं देना) का उल्लंघन है। न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा ने कहा कि यदि सार्वजनिक धन का कुछ हिस्सा तीर्थयात्रा में छूट के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो इसमें कोई असंवैधानिक बात नहीं है। पीठ ने कहा, ‘हमारा मानना है कि अनुच्छेद 27 का उल्लंघन उस स्थिति में होगा यदि भारत में एकत्र की जानेवाली समस्त आय कर का पर्याप्त हिस्सा या संपूर्ण केंद्रीय आबकारी या सीमा शुल्क या विक्र कर का पर्याप्त हिस्सा या किसी भी अन्य प्रकार के कर के पर्याप्त हिस्से का किसी धर्म विशेष या धार्मिक संप्रदाय के प्रोत्साहन के लिए इस्तेमाल किया जाता है।पीठ ने कहा, ‘दूसरे शब्दों में मान लीजिए कि भारत में एकत्र किए गए 25 फीसद आय कर का इस्तेमाल किसी धर्म विशेष या धार्मिक संप्रदाय को प्रोत्साहित करने में किया जाता है तो हमारे विचार में यह संविधान के अनुच्छेद 27 का उल्लंघन होगा।उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी भाजपा के पूर्व सांसद प्रफुल्ल गोरदिया की याचिका को खारिज करते हुए की जिन्होंने हज कमेटी अधिनियम 1959 की संवैधानिक वैधता को इस आधार पर चुनौती दी थी कि यह संविधान विशेष तौर पर अनुच्छेद 27 का उल्लंघन है। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि वह हिंदू हैं, लेकिन उसके द्वारा दिए जानेवाले प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कर का कुछ हिस्सा हज यात्रा में चला जाता है जो सिर्फ मुस्लिमों द्वारा की जाती है। उन्होंने अनुच्छेद 27 का हवाला दिया जिसमें किसी धर्म विशेष के प्रोत्साहन के लिए कर के भुगतान का निषेध है। न्यायालय ने इस संबंध में केंद्र सरकार और उप्र सरकार के हलफनामों पर भी गौर किया जिसमें कहा गया था कि इलाहाबाद के कुंभ मेला, चीन की मानसरोवर यात्रा और पाकिस्तान के गुरुद्वारों में जाने के लिए तीर्थयात्रियों को विशेष छूट दी जाती है।

Sunday, January 23, 2011

यूपी की अदालतों को मुकदमों के बोझ से मिलेगी निजात


लंबित मुकदमों के बोझ से कराह रहीं प्रदेश की अदालतों को जल्दी ही इस दर्द से निजात मिल सकेगी। मंत्रिपरिषद ने शुक्रवार को राज्य मुकदमा नीति के प्रारूप को मंजूरी दे दी। राज्य मुकदमा नीति का उद्देश्य मुकदमों का निपटारा जल्दी सुनिश्चित कराना है ताकि अदालतों में वाद लंबे समय तक लंबित न रहें। उप्र में लंबित वादों की संख्या सर्वाधिक है। मुकदमों की सुनवाई और उनके निस्तारण में होने वाले विलंब को समाप्त कर न्यायपालिका के सशक्तीकरण और सुधार के लिए भारत सरकार ने राष्ट्रीय परामर्श सम्मेलन आयोजित किया था। इस सम्मेलन में विधि मंत्रालय की ओर संकल्प प्रस्तुत किया गया था। इसके तहत मुकदमों का शीघ्र निस्तारण कर अदालतों को उनके बोझ से मुक्ति दिलाने के लिए केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय मुकदमा नीति तैयार की। केंद्र ने सभी राज्यों से राष्ट्रीय मुकदमा नीति के अनुरूप राज्य मुकदमा नीति तैयार करने की अपेक्षा भी की। केंद्र के दिशानिर्देश के मद्देनजर राज्य सरकार ने राज्य मुकदमा नीति का प्रारूप तैयार किया है। न्यायिक सुधार के लिए 13वें वित्त आयोग की संस्तुतियों को लागू करने के लिए केंद्र सरकार ने 2010-15 तक के लिए 645.78 करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की है। मंत्रिपरिषद ने स्पेशल कंपोनेंट प्लान के तहत संचालित किए जा रहे जालौन, कन्नौज, सहारनपुर व अंबेडकरनगर के मेडिकल कालेजों और झांसी के पैरामेडिकल कालेज को राज्य सरकार के अधीन संचालित करने के प्रस्ताव पर भी मुहर लगा दी है। इसी तरह मंत्रिपरिषद ने वित्तीय वर्ष 2006-07 में स्पेशल कंपोनेंट प्लान के तहत खोले गए 50 राजकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों (आइटीआइ) में ट्रेनिंग के लिए स्वीकृत सीटों में से 70 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जाति/जनजाति और 15 फीसदी पिछड़ी जातियों के प्रशिक्षणार्थियों के लिए आरक्षित करने के प्रस्ताव को हरी झंडी दे दी है। मंत्रिपरिषद ने सचिवालय में सहायक समीक्षा अधिकारी और समीक्षा अधिकारी की भर्ती के लिए कंप्यूटर का ज्ञान अनिवार्य कर दिया गया है। अब संघ लोक सेवा आयोग ही सहायक समीक्षा अधिकारी और समीक्षा अधिकारी की भर्ती करेगा, अभी तक सचिवालय प्रशासन विभाग इनकी भर्ती करता था। सहायक समीक्षा अधिकारियों के पद का ठहराव रोकने के लिए उप्र सचिवालय अधीनस्थ सेवा नियमावली-1999 में संशोधन के प्रस्ताव को राज्य मंत्रिपरिषद ने मंजूरी दे दी है। सरकारी प्रवक्ता के अनुसार सचिवालय में सहायक समीक्षा अधिकारी और समीक्षा अधिकारी की भर्ती के लिए अभी तक टाइपराइटर पर कार्य करने की गति का टेस्ट लिया जाता था पर अब कंप्यूटर के माध्यम से काम होने के कारण इसके ज्ञान को अनिवार्य किया गया है। सहायक समीक्षा अधिकारी के पद पर व्याप्त ठहराव को दूर करने तथा समीक्षा अधिकारी के पदोन्नति कोटे में सृजित किए गए 376 अधिसंख्य पदों पर किए जाने वाली पदोन्नति की कार्रवाई को लोकसेवा आयोग की परिधि से बाहर करते हुए इसे विभागीय चयन समिति के माध्यम से किए जाने का निर्णय किया गया है। सहायक समीक्षा अधिकारी के पद पर पदोन्नति के लिए विहित प्राविधानों और सहायक समीक्षा अधिकारी एवं समीक्षा अधिकारी के चयन के लिए निर्धारित योग्यता में परिवर्तन किए जाने के लिए नियमावली में संशोधन के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई है।

Friday, January 21, 2011

अदालती कार्यशैली


हम कोटा के वकील पिछले दिनों हड़ताल पर थे। लगभग डेढ़ माह के बाद कचहरी में काम आरंभ हुआ। एक बार जब कोई नियमित गतिविधि को लंबा विराम लगता है तो उसे फिर से नियमितता प्राप्त करने में समय लगता है। काम फिर से गति पकड़ने लगा था कि एक वरिष्ठ वकील के देहांत के कारण फिर से काम की गति अवरुद्ध हुई। दोपहर बाद अदालत के कामों से फुरसत पा कर निकला ही था कि एक वकील मुझे मिल गए। दो मिनट के लिए बात हुई। कहने लगे मुश्किल से अदालती काम गति पकड़ने लगा था कि आज फिर से बाधा आ गई। मैंने भी उनसे सहमति जताई और कहा कि यदि कोई बाधा न हुई तो इस सप्ताह के अंत तक अदालतों का काम अपनी सामान्य गति पा लेगा। उन्होंने कहा कि वह जिला जज के सामने एक मुकदमे में बहस के लिए उपस्थित हुए थे, लेकिन खुद जज साहब ने बहस सुनने से मना कर दिया और कहा कि आज तो शोकसभा हो गई है बहस तो नहीं सुनेंगे। दूसरे काम निपटाएंगे। बात निकली थी तो मैंने उन्हें पूछा कि एक अदालत के पास मुकदमे कितने होने चाहिए? उन्होंने कहा कि एक दिन की कार्य सूची में एक अदालत के पास दस दीवानी और दस फौजदारी मुकदमे ही होने चाहिए, तभी साफ सुथरा काम संभव है। मुझे अपने सवाल का पूरा उत्तर नहीं मिला था। मैंने तुरंत सवाल दागा एक मुकदमे में दो सुनवाइयों के बीच कितना अंतर होना चाहिए? उनका उत्तर था कि हर मुकदमे में हर माह कम से कम एक सुनवाई तो अवश्य ही होनी चाहिए। मैंने तुरंत ही हिसाब लगाकर बताया कि माह में बीस दिन अदालतों में काम होता है। इस तरह तो एक अदालत के पास कम से कम चार सौ और अधिक से अधिक पांच सौ मुकदमे होने चाहिए तभी ऐसा संभव है। आज हालत यह है कि एक-एक अदालत के पास चार-चार, पांच-पांच हजार मुकदमे लंबित हैं। वकील का कहना था कि इसी कारण से तो न्यायालय इतनी जल्दबाजी में होते हैं कि पूरी बात को सुनते तक नहीं। इससे न्याय पर प्रभाव पड़ रहा है। अदालतें सिर्फ आंकड़े बनाने में लगी हैं, न्याय ठीक से नहीं हो पा रहा है। होता भी है तो कोई उससे संतुष्ट नहीं है। लोगों को लगता है कि उनके साथ न्याय नहीं हो रहा है, जबकि एक सिद्धांत यह भी है कि न्याय होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। अब आप ही सोचिए कि जब अदालतों के पास उनकी सामान्य क्षमता से पांच से दस गुना अधिक काम होगा तो वह किस तरह कर सकती हैं? इस लाचारी की उत्पत्ति सरकारों के कारण है जो पर्याप्त अदालतें स्थापित नहीं कर सकी हैं। (अनवरत ब्लॉग में जमील अहमद)