Monday, February 28, 2011

प्रोन्नति में आरक्षण पर यथास्थिति बनाए रखें


 सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में प्रोन्नति में आरक्षण के मामले में यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया है। कोर्ट ने ये निर्देश उत्तर प्रदेश सरकार, उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन व कुछ निजी याचिकाकर्ताओं की याचिकाओं पर सुनवाई के बाद जारी किए। मालूम हो कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने 4 जनवरी को उत्तर प्रदेश में एससी-एसटी कर्मचारियों को प्रोन्नति में आरक्षण का लाभ देने के नियम को गैर कानूनी ठहराते हुए निरस्त कर दिया था। हाईकोर्ट के इस फैसले को राज्य सरकार, यूपी पॉवर कारपोरेशन व कुछ निजी व्यक्तियों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। सोमवार को न्यायमूर्ति वीएस सिरपुरकर व न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर की पीठ ने याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए प्रतिपक्षियों को जवाब दाखिल करने के लिए नोटिस जारी किए। इससे पहले राज्य सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता केके वेणुगोपाल, सतीश चंद्र मिश्रा, अधिअर्जुना व निजी याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता पीपी राव व राजकुमार गुप्ता ने हाईकोर्ट के फैसले का विरोध करते हुए कहा कि हाईकोर्ट ने एम.नागराजा मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को समझने में भूल की है। यह बहुत गंभीर मामला है। फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे। यह संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ है। मालूम हो कि हाईकोर्ट ने प्रोन्नति में आरक्षण का लाभ देने के नियम को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि राज्य सरकार ने एम नागराजा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन नहीं किया है। आरक्षण का लाभ देने से पहले कर्मचारियों के पिछड़ेपन और नौकरियों में उनके प्रतिनिधित्व के आंकड़े एकत्र नहीं किए गए हैं। हाईकोर्ट ने न सिर्फ प्रोन्नति में आरक्षण देने के 17 अक्टूबर 2007 के सरकारी आदेश को निरस्त किया था, बल्कि आरक्षण देने वाले कानून यूपी पब्लिक सर्विसेस (एससी, एसटी, ओबीसी आरक्षण) कानून 1994 की धारा 3(7) तथा यूपी गवर्नमेंट सर्वेन्ट सीनियरिटी (तीसरा संशोधन) नियम 2007 के नियम 8ए को भी निरस्त कर या था। हाईकोर्ट ने सरकार को नए सिरे से प्रोन्नति सूची तैयार करने का निर्देश दिया था|

Thursday, February 24, 2011

त्वरित न्याय के ठंडे छींटे


गोधरा नरसंहार मामले में पूरे देश की निगाहें इस बात पर टिकी थीं कि कोर्ट इस जघन्य कांड को साजिश मानता है या दुर्घटना। उनसठ निदरेषों की मौत पर चली राजनीति और जांच के लिए बनाए गए दो आयोगों की विरोधाभासी रिपोटरे के बीच ऐसा अस्वाभाविक भी नहीं था। पर, इस फैसले में छुपे चंद सकारात्मक संदेश और भी हैं जिन पर भी देश को गौर करना चाहिए। सबसे पहले तो अदालत को इस बात के लिए बधाई मिलनी चाहिए कि उसने कम से कम समय में ऐसे संवेदनशील मामले को फैसले की मंजिल तक पहुंचा दिया। हालांकि, यह फैसला नरसंहार के नौ सालों के बाद आया लेकिन असलियत यह है कि अदालत ने तीन साल से कम अवधि में ही मामले की सुनवाई कर फैसला सुना दिया। बीच का लम्बा अंतराल सिर्फ इसलिए पैदा हुआ क्योंकि सुप्रीमकोर्ट ने वर्ष 2003 के नवम्बर से 2009 के मई माह तक ट्रायल पर रोक लगा रखी थी। रोक के पीछे ऐसे आरोप थे कि जांच को प्रभावित किया जा रहा है। सुप्रीमकोर्ट ने अपनी निगरानी में सीबीआई से जांच करवाई और आश्वस्त होने के बाद ही सुनवाई शुरू होने के आदेश दिए। मामला भी खासा पेचीदा था जिसमें अदालत को ढाई सौ से अधिक लोगों की गवाही लेनी पड़ी और डेढ़ हजार के आसपास सम्बंधित दस्तावेजों का अध्ययन करना पड़ा। बावजूद इसके, इतने कम समय में फैसला सुना कर अदालत ने साबित कर दिया कि भारतीय न्यायपालिका आदत से लेटलतीफ नहीं है। अगर देश की अदालतों में तीन करोड़ मामले लम्बित पड़े हैं तो इसकी जिम्मेदार न्यायपालिका नहीं बल्कि वह व्यवस्था है जो उसे मजबूरी की बेड़ियों में जकड़े रखती है। वैसे गोधरा से भी पहले उड़ीसा के कंधमाल दंगों में भी अदालत ने ऐसा ही रिकॉर्ड बनाया था जब महज दो सालों में फैसला सुना दिया गया था और दोषी दंड पा गए थे। बेशक गोधरा के त्वरित न्याय के पीछे सुप्रीमकोर्ट की भूमिका भी कम नहीं है जिसने विशेष जांच टीम से अपनी निगरानी में जांच करवाई। सवाल है कि अन्य मजहबी दंगों या बड़े मामलों में यह प्रक्रिया क्यों नहीं अपनाई जा सकती? साम्प्रदायिक दंगे न केवल निदरेष परिवारों को तबाह करते हैं बल्कि लोकतंत्र पर बदनुमा धब्बा भी लगाते हैं। दंगों के पहले और बाद में भी राजनीति का वीभत्स खेल चलता है और आम आदमी का विश्वास टूटता है। सिख विरोधी दंगों को बीते चौथाई सदी से अधिक का समय हो चुका है लेकिन अदालत और कानून का खेल आज भी जारी है। करीब इतना ही समय मेरठ दंगों को बीते हो चुका है लेकिन न्याय इसमें भी घोंघे की रफ्तार से चल रहा है। भागलपुर के बदनाम दंगों का फैसला अट्ठारह साल बाद आया तो मुम्बई दंगों पर श्रीकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट पर दो दशकों बाद भी कार्रवाई नहीं हो पाई है। गोधरा दंगे पर चली न्याय की ऐसी प्रक्रिया से सबक लेने और भविष्य के ऐसे मामलों में इसे दोहराने की जरूरत साफ दिखती है। अफसोस यह है कि लोकतंत्र का सशक्त स्तम्भ माने जाने के बावजूद न्यायपालिका को वह तवज्जो और संसाधनों का वह लाभ नहीं दिया जाता जिसकी वह स्वाभाविक हकदार है। न्याय में विलम्ब का मतलब न्याय नहीं मिलना, इस जुमले को दोहराते तो सब हैं लेकिन इसे सुधारने में रुचि कम ही दिखाते हैं। न्यायपालिका में व्यापक सुधारों के लिए प्रस्तावित कानून को कब संसद का मुंह देखना नसीब होगा,पता नहीं! साम्प्रदायिक दंगों और पीड़ितों के पुनर्वास के लिए प्रस्तावित विधेयक जल्द ही संसद में आने वाला है। उम्मीद है कि इसमें पिछले दिनों मिले सबकों का पूरा इस्तेमाल होगा और त्वरित न्याय का उपहार देश को मिलेगा।


Wednesday, February 23, 2011

संपत्ति जब्ती कानून को पटना हाईकोर्ट की हरी झंडी


 पटना यह भ्रष्टाचारियों के लिए बहुत बुरी खबर है। पटना हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार के जरिए अर्जित संपत्ति को जब्त करने के लिए राज्य सरकार द्वारा बनाए गए कानून को हरी झंडी दे दी है। कोर्ट ने इस बारे में बुधवार को अपना फैसला सुनाया। उसने इकट्ठे आठ अधिकारियों द्वारा दायर वह याचिका खारिज कर दी, जिसमें इस कानून को अवैध ठहराने का आग्रह किया गया था। सरकार ने आय से अधिक संपत्ति रखने वाले अधिकारियों को सम्पत्ति से बेदखल करने के लिए बिहार स्पेशल कोर्ट्स एक्ट 2009 बनाया है। इसके सहारे अवैध रूप से सम्पत्ति रखने वाले अधिकारियों की जायदाद जब्त कर उसका सार्वजनिक कार्यो में इस्तेमाल करने की बात है। इसको ले भ्रष्टाचारियों में बैचेनी थी। वे इस कानून को खारिज कराने कोर्ट की शरण में गए थे। मगर उन्हें राहत नहीं मिली। कोर्ट ने इस एक्ट में आंशिक संशोधन कर इसे सख्ती से लागू करने की अनुमति दे दी है। कोर्ट ने एक्ट की धारा 17 एवं 19 को संशोधित करते हुए कहा है कि पीसी एक्ट एवं स्पेशल कोटर््स एक्ट पर ट्रायल चलाने वाले एक ही न्यायिक अधिकारी नहीं होने चाहिए। इससे न्यायिक अधिकारी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकते हैं। न्यायालय ने साफ कर दिया है कि अवैध रूप से संपत्ति अर्जित करने वालों के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून एवं बिहार स्पेशल कोटर््स एक्ट के तहत एकसाथ मुकदमा चल सकता है, लेकिन संपत्ति अर्जित करने का आरोप गलत पाये जाने पर ऐसे अधिकारी की संपत्ति को लौटाते समय 5 प्रतिशत के सूद की दर पर रुपया नहीं लौटा कर बैंककी दर पर राशि वापस करनी होगी। एक्ट में 5 प्रतिशत ब्याज दर से पैसा लौटने की व्यवस्था है। न्यायाधीश शिवकीर्ति सिंह एवं न्यायाधीश डा.रविरंजन की खंडपीठ ने कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर लंबी सुनवाई करने के बाद 3 जनवरी को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था

तो क्या गुटखा की बिक्री पर भी लगेगी रोक!


गुटखा खाने और बेचने वाले दोनों ही सावधान हो जाएं। इसकी प्लास्टिक पैकिंग पर तो एक मार्च से प्रतिबंध लग ही रहा है, इसकी बिक्री पर रोक लग सकती है। या फिर इसे इतना महंगा किया जा सकता है कि लोग खुद ही इससे तौबा करने लगें। गुटखे के पर्यावरण पहलू पर फैसला कर लेने के बाद अब सुप्रीम कोर्ट इसके सेहत पर पड़ने वाले असर पर भी सुनवाई करने जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट में 13 अप्रैल को इस मामले में सुनवाई होनी है। स्वास्थ्य मंत्रालय और मामले से जुड़े अन्य लोगों का भी मानना है कि जस्टिस जीएस सिंघवी और एके गांगुली की पीठ अगली सुनवाई के दौरान ऐतिहासिक रवैया अख्तियार कर सकती है। इस दौरान यह पीठ गुटखा, पान मसाला और तंबाकू के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर पर विचार करेगी। जबकि मूल रूप से यह मामला इनकी प्लास्टिक पैकिंग के पर्यावरण पर होने वाले असर को लेकर था। सुप्रीम कोर्ट ने पैकिंग में प्लास्टिक के उपयोग पर एक मार्च से पूरी तरह प्रतिबंध लगाने का फैसला पहले ही सुना दिया है। स्वास्थ्य मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट में पिछले हफ्ते राष्ट्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण संस्थान (एनआईएचएफडब्लू)की ओर से रिपोर्ट दी जा चुकी है। इसमें गुटखा, पान मसाला और तंबाकू के सेहत पर खतरनाक असर को विस्तार से बताया गया है। अब अगली सुनवाई इसी पर होगी। इसका साफ सा मतलब है कि कोर्ट इसकी बिक्री को रोकने या हतोत्साहित करने की दिशा में सोच रहा है। एक बड़ी पान मसाला कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर कहा कि ऐसी किसी आशंका को लेकर ही वे पैकिंग में प्लास्टिक के विकल्प को ले कर ज्यादा निवेश करने से बचना चाहते हैं। इनके मुताबिक अगली सुनवाई पान मसाला उद्योग के भविष्य के लिहाज से बेहद अहम होगी। इनकी ओर से कोशिश हो रही है कि एक मार्च से पहले सुप्रीम कोर्ट पैकिंग के मामले पर फिर सुनवाई करे। इन कंपनियों का पक्ष रख रहे वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी का कहना है कि यह गुटखा कंपनियों के साथ भेदभाव करने वाला फैसला है और कारोबार करने के उनके अधिकार को छीना जा रहा है।


Monday, February 21, 2011

जनहित में भू-उपयोग बदलना गलत नहीं: सुप्रीम कोर्ट


उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि किसी अच्छे कार्य के लिए भूमि को दूसरे काम में इस्तेमाल में लाना अवैध नहीं माना जा सकता जब तक कि इसका मकसद जनहित में हो। न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी और न्यायमूर्ति दीपक वर्मा की पीठ ने बंबई उच्च न्यायालय के एक फैसले को दरकिनार करते हुए यह व्यवस्था दी। उच्च न्यायालय ने इस आधार पर एक चैरिटेबल ट्रस्ट को किए गए भूमि आवंटन को रद कर दिया था कि उसने आवंटन के मूल उद्देश्य के विपरीत जमीन का इस्तेमाल बदल दिया। यह मामला चैरिटेबल ट्रस्ट प्रगति महिला मंडल के एक निर्माण कार्य से जुड़ा है जिसमें संस्था वित्तीय समस्या के कारण वादे के अनुसार कन्या विद्यालय का निर्माण नहीं कर सकी और उसने लड़कियों और कामकाजी महिलाओं के लिए कम दरों पर रहने के लिए छात्रावास बनवाया था। उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर कार्रवाई करते हुए आवंटन को रद कर दिया था। उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ संस्था ने शीर्ष न्यायालय में अपील दाखिल की थी। जिसे स्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा, यह सभी को पता है कि लड़कियों और महिलाओं को अपने शहर से बाहर जाने के बाद सुरक्षित और सही आवास को खोजने में काफी समस्याएं और कठिनाई होती है।

Sunday, February 20, 2011

मार्च से प्लास्टिक पाउच में नहीं बिकेगा गुटखा


सुप्रीम कोर्ट ने गुटखा निर्माता कंपनियों को झटका देते हुए 1 मार्च से प्लास्टिक पाउच में गुटखा व पान मसाला सरीखे तंबाकू उत्पादों की बिक्री पर पाबंदी संबंधी अपने आदेश में ढील देने से इंकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने विशेषज्ञ समिति के उस निष्कर्ष को संज्ञान में लिया जिसमें गुटखा व पान मसाला के सेवन को देश में मुंह के कैंसर के 90 फीसदी मामलों की वजह बताया गया है। जस्टिस जी.एस. सिंघवी और ए.के. गांगुली की पीठ ने गुरुवार को अपने पिछले आदेश में ढील देने संबंधी गुटखा कंपनियों की मांग खारिज कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने 7 दिसंबर को आदेश दिया था कि गुटखा कंपनियां 1 मार्च से प्लास्टिक पाउच में अपने उत्पाद नहीं बेच सकेंगी। सुप्रीम कोर्ट ने 4 फरवरी की सरकार की अधिसूचना को चुनौती देने वाली विभिन्न याचिकाओं पर सरकार से जवाब भी मांगा है। अदालत के कड़े रुख के बाद सरकार ने प्लास्टिक पाउचों में गुटखा व अन्य तंबाकू उत्पादों की पैकेजिंग को नियंत्रित करने के लिए प्लास्टिक मैनेजमेंट एंड डिस्पोजल रूल्स-2009 लागू कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 2 फरवरी को सरकार पर टिप्पणी की थी, इस सब में आपको इतना समय क्यों लग रहा है? आप कर क्या रहे हैं? इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 7 दिसंबर को गुटखा कंपनियों की चुनौती याचिका पर सुनवाई करते हुए प्लास्टिक पाउचों पर पाबंदी लगाने वाले राजस्थान हाईकोर्ट के आदेश पर 1 मार्च तक रोक लगा दी थी। कोर्ट ने सरकार को एक स्वतंत्र एजेंसी से इस बात की जांच कराने को भी कहा था कि प्लास्टिक पाउचों के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले तत्वों से उपभोक्ताओं को क्या खतरा है? सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के मुताबिक विभिन्न तंबाकू उत्पाद मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं।


Thursday, February 17, 2011

"न्यायपालिका के विरुद्ध" मनमोहन का बयान


व्यवसाय के लिए पैसा मांगना भी दहेज : सुप्रीम कोर्ट


सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कोई नया व्यवसाय शुरू करने के लिए यदि वधु पक्ष से पति या ससुराल पक्ष के लोग धन या बेशकीमती सामान की मांग करते हैं और यह मांग शादी के रिश्ते से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हो तो इसे दहेज माना जाएगा। न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा की एक पीठ ने बचिनी देवी और उनके बेटे की एक अपील को खारिज करते हुए यह फैसला सुनाया। इन मां-बेटे ने दहेज हत्या के एक मामले में खुद को सुनाई गई सात साल की सश्रम कैद की सजा को चुनौती दी थी। पीठ ने इन लोगों की ओर से पेश की गई दलील खारिज कर दी, जिसके तहत उन्होंने 2007 के शीर्ष न्यायालय के एक फैसले का हवाला देते हुए दावा किया था कि यदि पति या ससुराल पक्ष के लोग कोई व्यवसाय शुरू करने के लिए धन की मांग करते हैं तो इसे दहेज नहीं माना जाएगा। पीठ ने कहा, अपीलकर्ताओं के वकील की इस दलील में कोई दम नहीं है कि मोटरसाइकिल की मांग करना दहेज नहीं हो सकता है। पीठ ने कहा कि अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए सबूत अपीलकर्ता के खिलाफ जाते हैं। न्यायमूर्ति लोढ़ा ने इस फैसले को लिखते हुए कहा कि अपीलकर्ता पक्ष साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 113 बी के तहत ठोस जवाब नहीं दे पाया, जबकि यह धारा इस मामले पर पूरी तरह से लागू होती है। इस मामले में कांता नाम की महिला ने कुरुक्षेत्र स्थित अपने ससुराल में 11 अगस्त 1990 को फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। उसे अपने मायके से एक मोटरसाइकिल लाने के लिए परेशान किया गया था ताकि उसका पति दूध पहुंचाने का व्यवसाय कर सके। मृतका के पिता पाले राम इस मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं था। वह एक रिक्शा चालक था। कुरुक्षेत्र के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने इस मामले में सात साल की सश्रम कैद की सजा सुनाई थी, जिसे हरियाणा हाईकोर्ट ने बरकरार रखा था।

Tuesday, February 15, 2011

धोखाधड़ी के आरोप में तीन वर्ष का कठोर कारावास


कूटरचित दस्तावेजों के जरिए पासपोर्ट बनवाने, अपराधिक षड्यंत्र कर पाकिस्तान की यात्रा करने व धोखाधड़ी करने के मामले में आरोपी एजाज अहमद उर्फ राजा, उसकी मां नरगिस बेगम व भाई इरफान अली को एटीएस के विशेष अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट आबिद शमीम ने दोषी ठहराते हुए कठोर कारावास सहित जुर्माना ठोका है। अदालत ने आरोपी एजाज को दो मामलों में दोषी ठहराते हुए धोखाधड़ी के आरोप में तीन वर्ष के कठोर कारावास, तथ्यों को छुपाने एवं उन्हें सच ठहराने के आरोप में दो वर्ष के कठोर कारावास, पासपोर्ट अधिनियम के तहत दो वर्ष केकठोर कारावास सहित 15 हजार रुपए जुर्माना की सजा सुनाई है।

वहीं अदालत ने दूसरे मुकदमे में आरोपी एजाज को धोखाधड़ी की साजिश रचने के आरोप में दो वर्ष के कठोर कारावास सहित 5000 रुपए जुर्माना की सजा सुनाई है। अदालत ने आरोपी एजाज की मां नरगिस बेगम एवं भाई इरफान अली को पासपोर्ट अधिनियम के तहत दो वर्ष के कठोर कारावास एवं तथ्यों को छुपाने व उन्हें सत्य के रूप में इस्तेमाल करने के आरोप में दो वर्ष के कठोर कारावास सहित 15 हजार रुपए जुर्माना की सजा सुनाई है।

इस मामले में अदालत ने विवेचक के लचर विवेचना पर गहरी नाराजगी जताते हुए कहा कि अभियुक्त एजाज अहमद की गिरफ्तारी के बाद उसकी सूचना मिलने पर अभियुक्त इरफान एवं नरगिस बेगम द्वारा मूल पासपोर्ट नष्ट कर दिए गए। अदालत ने कहा कि पहले मुकदमे में विवेचक द्वारा कोई मूल पासपोर्ट बरामद नहीं किया गया। ऐसी स्थिति में अभियुक्त इरफान अली एवं नरगिस बेगम द्वारा पासपोर्ट को नष्ट किया जाना समझ से परे है। अदालत ने कहा कि विवेचक द्वारा अभियुक्तों का पुलिस अभिरक्षा प्राप्त कर मूल पासपोर्टो की बरामदगी का कोई प्रयास नहीं किया गया बल्कि अभियुक्तों के बयान को विश्वसनीय मानकर इतिश्री कर दी गयी जो आपत्ति जनक है। वहीं विवेचक ने साक्ष्य के दौरान नष्ट हुए पासपोर्टों के संबन्ध में कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया। जबकि इस मामले में न ही कोई स्वतंत्र गवाह ही प्रस्तुत किया गया। अदालत ने कहा कि इस स्तर पर इस तथ्य का उल्लेख कर देना आवश्यक एवं विधिक इमानदारी प्रतीत होती है कि यदि अभियोजन अधिकारी नागेन्द्र दीक्षित द्वारा अर्जी प्रस्तुत कर गवाह सुशील भल्ला पासपोर्ट अधिकारी को तलब न कराया होता तो अभियुक्तों को काफी लाभ मिल सकता था।

अभियोजन की ओर से सरकारी वकील नागेश दीक्षित का तर्क था कि पहले मामले की रिपोर्ट एटीएस के उपनिरीक्षक शैलेन्द्र कुमार सिंह ने 24 जून 2008 को अभियुक्त एजाज अहमद के विरुद्ध थाना हजरतगंज में दर्ज कराई थी। जांच के दौरान पाया गया कि अभियुक्त ने फर्जी तथ्यों के आधार पर पासपोर्ट कार्यालय लखनऊ से नाजायज तरीके से 3 पासपोर्ट बनवाए। कहा गया कि अभियुक्त ने गुपचुप तरीके से इन पासपोर्टों पर कई बार पाकिस्तान की यात्राएं की, वहीं कई पाकिस्तानियों का अभियुक्त एजाज अहमद के घर आना जाना था। वहीं दूसरे मामले की रिपोर्ट उपनिरीक्षक ओपी त्रिपाठी ने थाना हजरतगंज में दर्ज कराई कि अभियुक्त एजाज ने स्वयं के नाम से फर्जी तथ्यों एवं अभिलेखों के आधार पर नाजायज तरीके से सात पासपोर्ट बनवा चुका है। कहा गया कि अभियुक्त ने आपराधिक षड्यंत्र करके अपने भाई इरफान अली व मां नरगिस बेगम के नाम तीन पासपोर्ट बनवाए। कहा गया कि अभियुक्तों ने आपराधिक षड्यंत्र करके कई नामों से विभिन्न समय पर नाजायज उद्देश्य की पूर्ति हेतु बीजा प्राप्त कर पाकिस्तान की यात्रा की है। 25 जून 2008 को एटीएस टीम ने अभियुक्त एजाज अहमद को साहू सिनेमा हाल के पास गिरफ्तार किया था। सरकारी वकील ने आरोपियों को ज्यादा से ज्यादा सजा दिए जाने की मांग करते हुए कहा कि अभियुक्तों का कृत्य राष्ट्र विरोधी अपराध है एवं यदि उन्हे छोड़ दिया जाता है तो वे समाज के लिए खतरा हैं।
शादीशुदा पुत्रियां होंगी माता पिता के भरण पोषण के लिए उत्तरदायी
लखनऊ। उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 407 (7) एवं धारा 408 (3) दं.प्र.सं. में संशोधन के बाबत आठवीं रिपोर्ट प्रदेश सरकार को भेजी है।

इन संशोधनों के बाद आधारहीन तथ्यों पर आपराधिक मुकदमो में स्थानांतरण अर्जी के निरस्त होने पर याचिकाकर्ता को 25000 रुपए हर्जाना देना होगा। आयोग का मानना है कि इससे आधारहीन तथ्यों पर उच्च न्यायालय में आपराधिक मुकदमो में स्थानांतरण अर्जी देने पर रोक लगेगी एवं आपराधिक मुकदमो के त्वरित निस्तारण की संभावना प्रबल होगी।

ज्ञात हो कि प्रदेश केजनपद न्यायाधीशों के सेमिनार में धारा 407 (7) दं.प्र.सं. में हर्जाने की राशि बढ़ाने की मांग की गयी, वहीं आयोग ने रिपोर्ट में संस्तुति की गयी कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में अगर शादी शुदा पुत्रियों के पास समुचित संसाधन उपलब्ध हैं तो वे भी अपने माता-पिता के भरण पोषण करने के लिए उत्तरदायी होगी। आयोग ने धारा 125 दण्ड प्रक्रिया संहिता में बाबा-दादी को भी भरण पोषण पाने के अधिकार की संस्तुति की गयी।

Monday, February 14, 2011

जजों की कलम बोले या जुबान


क्या जजों को सार्वजनिक तौर पर ऐसी टिप्पणियां करनी चाहिए, जो लोकतंत्र के अन्य अवयवों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाएं? क्या उनका यह आचरण स्वयं अपनाई आचार संहिता के अनुरूप है? क्या ऐसे बयानों से संविधान और न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचती है? ये ऐसे सवाल हैं, जो इन दिनों देश में चर्चित हो रहे हैं। इन सवालों के नायक हैं सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस अशोक कुमार गांगुली। पिछले दिनों मुंबई में वकीलों के एक समारोह में उन्होंने एक ऐसी टिप्पणी कर दी, जिससे न्यायिक और राजनीतिक हलकों में बवंडर मच गया। उसके तुरंत बाद कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने बड़े संयमित स्वर में कहा कि संविधान में शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा है और लोकतंत्र के हर एक स्तंभ को इसका पालन करना चाहिए। जाहिर है, उनका इशारा जस्टिस गांगुली के भाषण की ओर था। इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी यह कहकर सनसनी फैला दी कि न्यायपालिका को संयम बरतना चाहिए और न्यायिक समीक्षा का मतलब किसी संस्था को नीचा दिखाना नहीं है। जहां तक न्यायपालिका का ताल्लुक है, जजों के लिए हमारे देश में ही नहीं, अनेक लोकतांत्रिक देशों में अलिखित आचार संहिता है। जज कभी राजनीतिक कार्यक्रमों में नहीं जाते। सार्वजनिक टिप्पणी नहीं करते। प्रतिष्ठित जज तो सार्वजनिक कार्यक्रमों में ही नहीं, पारिवारिक कार्यक्रमों में बहुत सोच समझकर शिरकत करते हैं। वह ऐसे, किसी व्यक्ति के साथ फोटो नहीं खिंचवाते, जिससे वह बखूबी परिचित न हों या परिचय के बावजूद उन्हें यह लगे कि वह उनकी तस्वीर का अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करेगा। पार्टियों में नहीं जाते। क्लब नहीं जाते। लोगों से मेलजोल नहीं बढ़ाते। अब तो सुप्रीम कोर्ट जजों की संपत्ति के ब्यौरे में कंपनियों के शेयरों इत्यादि का जिक्र है, पर कायदे से जजों को इससे भी परहेज रखना चाहिए। पहले जज शेयर खरीदी की बात तक नहीं करते थे, बल्कि ऐसी बातों को बड़ी हेय दृष्टि से देखते थे। ऐसी स्थिति में राजनीतिक किस्म की सार्वजनिक टिप्पणी तो बहुत दूर की बात थी। दिल्ली हाईकोर्ट के प्रभावशाली जज रहे जस्टिस आरएस सोढी को जस्टिस गांगुली की यह बयानबाजी सख्त नागवार गुजरी है। वह कहते हैं कि अदालत के बाहर इस तरह की टिप्पणियां नहीं की जानी चाहिए। अदालत में जज के अधिकार बड़े व्यापक हैं। मामलों की सुनवाई के दौरान आप जो चाहें टिप्पणी करें, पर सरकार के कामकाज पर सार्वजनिक टिप्पणी आपके दायरे में नहीं है। बेहतर है आप अपने दायरे में रहें। प्रधानमंत्री को तो हर पांच साल में चुनाव लड़ना है। जनता का सामना करना है, पर आप तो स्थायी हैं। ऐसी टिप्पणियां करके न्यायपालिका की इज्जत से न खेलिए। कल किसी ने जज पर सार्वजनिक टिप्पणी कर दी तो क्या इज्जत रह जाएगी। जस्टिस सोढी की सलाह है कि आपके दायरे में सिर्फ अदालत के अंदर टिप्पणी करने का हक है, बाहर टिप्पणी का नहीं। इससे बचना चाहिए। भारत जैसा इतना बड़ा मुल्क चलाना 18 आदमियों के बस की बात नहीं है। यह काम सरकार पर छोडि़ए। फीता काटने की चाहत छोडि़ए। अब जरा जस्टिस गांगुली की टिप्पणी देखें। उन्होंने कहा था कि सरकार ने दो महीने पहले सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में की गई टिप्पणी के बावजूद विलासराव देशमुख को न केवल पूरे ठाठबाट से पद पर बनाए रखा, बल्कि बतौर केंद्रीय कैबिनेट मंत्री उन्हें भारी उद्योग मंत्रालय की जगह ग्रामीण विकास मंत्रालय दे दिया। गौरतलब है कि विलासराव देशमुख जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे, तब उन पर गोकुलदास सानंद नाम के एक साहूकार के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज न होने देने के आरोप लगे थे। सानंद कांग्रेस विधायक दिलीप कुमार सानंद के पिता हैं। उन्होंने कलेक्टर से कहा था कि वह इस मामले में दखल न दे। यह बात उस दौर की है, जब कर्ज से परेशान किसान आत्महत्या कर रहे थे। लिहाजा, पुलिस ने अपनी डायरी में यह बात दर्ज कर ली थी और बाद में इसे अदालत में सबूत के तौर पर पेश किया गया था। बुलढाना के दो किसानों सरनध सिंह चव्हाण और विजय कुमार सिंह चव्हाण ने इस बारे में याचिका दायर की थी और बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने महाराष्ट्र सरकार पर 25 हजार रुपये का जुर्माना किया था। महाराष्ट्र सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई तो जस्टिस सिंघवी और गांगुली की पीठ ने आपराधिक मामले में दखलंदाजी के लिए देशमुख की निंदा की और जुर्माना बढ़ाकर दो लाख कर दिया। अदालत में टिप्पणियां अपनी जगह थीं, पर इस मामले पर जस्टिस गांगुली की सार्वजनिक टिप्पणी बहस का विषय बन गई। दिल्ली हाईकोर्ट के एक रिटायर चीफ जस्टिस ने कहा कि मैं हैरान हूं। सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च न्यायिक संस्था का कोई सिटिंग जज ऐसी टिप्पणी कैसे कर सकता है। उन्होंने कहा कि जजों से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने फैसलों के बारे में न बोलें, उनका तो फैसला ही बोलता है। न्यायिक बिरादरी में आज भी ऐसे जजों की कमी नहीं जो फीता काटने में विश्वास नहीं रखते, रिटायर होने पर आयोगों के अध्यक्ष बनकर जीवनभर सत्ता और बंगले का सुख लूटना जिन्हें पसंद नहीं है। वह उस दौर के जज हैं, जब सुप्रीम कोर्ट का जज होने के नाते उन्हें गाड़ी तक नहीं मिलती थी। अब जजों को वैसी ही सुविधाएं हैं, जैसी विधायिका और कार्यपालिका के सदस्यों को। समय बदल गया है। न्यायपालिका ने दिन-प्रतिदिन के कामों में अपनी पैठ बढ़ा ली है। पहले सिर्फ संवैधानिक मामले ही सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर पहुंचते थे, पर अब तो सफाई से लेकर परिवहन तक रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ा हर मसला सुप्रीम कोर्ट पहुंच रहा है। कुछ लोग इसे जस्टिस जेएस वर्मा द्वारा आरंभ की गई न्यायिक आंदोलनकारिता की देन मानते हैं तो कुछ लोग इसे लोकतंत्र के ढांचे में सकारात्मक परिवर्तन के तौर पर देखते हैं। एक बडे़ राजनीतिज्ञ कहते हैं कि न्यायपालिका जब कार्यपालिका के कामों को सुनिश्चित कराने की बेगार कर सकती है तो टिप्पणी करने में क्या हर्ज है। यह तो लोकतंत्र में आ रहे सहज बदलाव का सूचक है। विधायिका और कार्यपालिका पंगु होने लगे तो न्यायपालिका ही उम्मीद की किरण है। बहरहाल, जजों के सार्वजनिक व्यवहार का कोई निश्चित फार्मूला नहीं है। हां 1999 में देश के हाईकोर्टो के चीफ जस्टिसों का सम्मेलन हुआ था, जिसमें जजों के लिए 15 सूत्रीय आचार संहिता का अनुमोदन किया गया था। इसके पीछे धारणा यह थी कि ऊंची अदालतों के जज इन्हें अपने निजी और कामकाजी जिंदगी में आत्मसात कर लें ताकि न्यायपालिका की विश्वसनीयता कायम रह सके। इसमें आठवें क्रम में कहा गया था कि जज को किसी सार्वजनिक बहस में नहीं उलझना चाहिए, ही किसी ऐसे सार्वजनिक या राजनीतिक मसले पर अपने विचार रखने चाहिए, जो उनके समक्ष लंबित रहे हैं या आ सकते हैं। नौवें क्रम पर कहा गया है कि जजों से यह उम्मीद की जा सकती है कि उनका फैसला अपने-आप बोले। उन्हें मीडिया को इंटरव्यू नहीं देना चाहिए। जस्टिस गांगुली का मामला इन्हीं के बीच कहीं है। वह जजों के लिए तय की गई इस अनौपचारिक आचार संहिता का उल्लंघन करते नजर आ रहे हैं। आचार संहिता में इसके अलावा भी 13 बिंदु हैं, उनमें से कई ऐसे मसले हैं, जिन्हें तोड़ने के लिए गाहे-बगाहे जजों पर उंगली उठती रही है, जैसे जजों को चाहिए कि वह अपने परिवार के किसी सदस्य, अपने जीवनसाथी, बेटा-बेटी, दामाद या अन्य संबंधियों को अपने या अपने सहयोगियों की अदालत में पेश होने से रोके। यह भी कहा गया है कि यदि उस परिवार का कोई सदस्य वकील है तो वह जज के साथ उसके सरकारी निवास में न रहे। पर न्यायपालिका में कितने ही जजों की संतानें और रिश्तेदार न केवल उन अदालतों में वकालत कर रहे हैं, बल्कि उनके साथ ही रह रहे हैं। किसी जज ने राजनीतिज्ञ की तरह भले ही पहली बार किसी सार्वजनिक मंच पर ऐसी बात कही हो, पर न्यायपालिका पर सार्वजनिक टिप्पणी प्रधानमंत्री ने पहली बार नहीं की है। इससे पहले कई बार नेताओं ने जजों की विधायिका और कार्यपालिका संबंधी टिप्पणियों पर सदन में एतराज जताया है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर ने भी लोकसभा में दो बार इस बारे में चिंता जताई थी। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्रियों पीवी नरसिंह राव और अटल विहारी वाजपेयी की सरकारों से भरी लोकसभा में यह मांग की थी कि वह न्यायपालिका को अपनी सीमा में रहने को कहें। उनके सहित अनेक सदस्यों ने सदन के विशेषाधिकार का हवाला देते हुए इस बात पर चिंता जताई थी कि न्यायपालिका लगातार विधायिका के चाल-चरित्र और चेहरे पर जिस प्रकार प्रतिकूल टिप्पणियां कर रही है, उससे देश का लोकतांत्रिक संतुलन डगमगा जाएगा। इसलिए न्यायपालिका के लिए श्रेयस्कर यही रहेगा कि वह अपनी गरिमा बनाए रखते हुए लोकतंत्र के बाकी अवयवों की प्रतिष्ठा की भी रक्षा करे। न्यायपालिका के वरिष्ठ सदस्य सार्वजनिक रूप में ही नहीं, बल्कि अपने न्यायिक निर्णयों में भी संयमपूर्ण भाषा का प्रयोग करें। स्वर्गीय चंद्रशेखर ने यह टिप्पणी तब की थी, जब न्यायपालिका ने आंदोलनकारी रुख अख्तियार कर लिया था। अचानक कार्यपालिका के कामकाज पर टिप्पणियां बढ़ गई थीं। सोमनाथ चटर्जी ने भी जजों को विधायिका के मामले मे दखल न देने की ताकीद की थी। अब भी वैसा ही दौर है। 2जी स्पेक्ट्रम मामले पर सरकार के कामकाज के तरीके पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां जगजाहिर हैं। सीवीसी यानी मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति के मामले में अदालत की टिप्पणियों और फिर सरकार के बार-बार बयान पलटने से बड़ी किरकिरी हुई है। इससे बौखलाई सरकार के मुखिया का तो न्यायालय की आलोचना करना समझ में आता है। राजनेताओं के लिए वैसे भी न्यायपालिका जैसी कोई आचार संहिता न है, न होगी, पर न्यायपालिका की अपनी गरिमा है। भगवान की तरह धीर-गंभीर रहने वाले ये मी लॉर्ड यदि राग-द्वेष से परे नहीं रह पाए और आम आदमी की तरह निंदा आदि में उलझे रहे तो आम आदमी की उस पर कैसे आस्था बनी रहेगी। वह कैसे उनसे न्याय की उम्मीद रख्ेागा। हमारे संविधान में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के कामकाज और सीमारेखा का जिक्र है। ये तीनों ही अपने-आप में निरपेक्ष हैं। विधायिका का काम कानून बनाना है। कार्यपालिका इन्हें लागू कराती है और न्यायपालिका इनकी व्याख्या करती है। लोकतंत्र की खासियत यही है कि इसके तीनो स्तंभ अपने-अपने कामों में लगे रहें और एक-दूसरे पर टीका-टिप्पणी से बचें। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि जस्टिस गांगुली और प्रधानमंत्री जैसी संवैधानिक संस्थाओं के आचरण की समीक्षा तो समय करेगा। हालांकि संविधान, सरकार और जनता सभी जानते हैं कि जज आखिर जज हैं और नेता खालिस नेता। इसलिए यदि नेता भी अपने गिरेबान में झांककर सिर्फ वोटों ओर पैसे की राजनीति से बाज आकर अपने माई-बाप यानी जनता के भविष्य की चिंता करें और अपने आप को कानून के भी आगे रखने की आत्मघाती प्रवृत्ति से बचें तो शायद कोई जज तो क्या, आम आदमी भी शायद उन पर उंगली न उठाए। (लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)