Wednesday, March 30, 2011

दहेज कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए मांगे सुझाव


 केंद्र सरकार दहेज के नाम पर महिला उत्पीड़न से संबंधी कानून (धारा 498-ए) के बढ़ते दुरुपयोग को रोकने के लिए इसमें संशोधन करने की सोच रही है। विधि आयोग ने कानून में परिवर्तन के बारे में जनता की राय जानने के लिए एक परामर्श प्रपत्र जारी किया है। सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालयों द्वारा दहेज उत्पीड़न के संबंध में दिए गए फैसलों और विभिन्न मंचों पर इस संबंध में आवाज उठाए जाने के बाद हाल ही में गृह मंत्रालय ने विधि आयोग से आग्रह किया था कि वह बताए कि दहेज से संबंधित कानून (धारा 498-ए) में क्या संशोधन किए जाएं जिससे इस कानून का दुरुपयोग रोका जा सके। सरकार को कानूनी मसलों पर सलाह देना वाला विधि आयोग इस मामले में सरकार को अपने रिपोर्ट देने से पहले जनता, गैर सरकारी संगठनों और बार काउंसिलों की राय जानना चाहती है। भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत दहेज के नाम पर महिला को प्रताडि़त करना संज्ञेय और गैर जमानती अपराध है। इस संबंध में शिकायत मिलने पर पुलिस प्रताडि़त महिला के पति और उसके ससुराल पक्ष (सास, ससुर, नंद, देवर आदि) के लोगों को गिरफ्तार कर सकती है। इस कानून के बढ़ते दुरुपयोग को लेकर शीर्ष न्यायालय ने कई बार टिप्पणी की है। साथ ही कानून में संशोधन की जरूरत बताई थी। विधि आयोग ने अपने परामर्श प्रपत्र में शीर्ष अदालत की उस टिप्पणी को शामिल किया है जिसमें कहा गया है कि दहेज उत्पीड़न की शिकायतों में से ज्यादातर अतिरंजित दिखाई पड़ते हैं। यह प्रवृत्ति बहुत से मामलों में दिखाई पड़ती है। प्रपत्र के मुताबिक, शीर्ष अदालत ने पति और उसके निकट सहयोगियों को ऐसे मामलों में फंसाने की सामान्य प्रवृत्ति को कानून का दुरुपयोग करार दिया है। प्रपत्र में कहा गया है कि महिला और बाल विकास मंत्रालय समेत विभिन्न स्तरों पर इस कानून के पैरोकार भी बहुत हैं। उनका मानना है कि धारा 498ए को बरकरार रखा जाना चाहिए, क्योंकि यह महिलाओं खासकर समाज के उत्पीडि़त वर्ग को सुरक्षा प्रदान करती है। यदि संशोधन के साथ कानून को हल्का किया गया तो इसमें समाहित सामाजिक उद्देश्य खत्म हो जाएगा|

Monday, March 28, 2011

एससी-एसटी के लिए बनाएं विशेष कोर्ट


 अनुसूचित जाति और जनजाति पर बढ़ते अत्याचार और अदालत में मामलों की धीमी सुनवाई पर गंभीर रुख अपनाते हुए केंद्र सरकार ने सभी राज्यों से कहा है कि वे विशेष अदालतें गठित करें। केंद्र ने यह फैसला सामाजिक संगठनों के बार-बार सरकार को इन समुदायों पर हो रहे अत्याचारों और उनकी धीमी सुनवाई के बारे में बताने के बाद लिया है। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री मुकुल वासनिक ने रविवार को यहां मीडिया को बताया, केंद्र ने सभी राज्यों को विशेष अदालत गठित करने के निर्देश दे दिए हैं। कई राज्यों ने तो ऐसी अदालत गठित करने की घोषणा भी कर दी है। वासनिक ने माना कि इन समुदायों के मामलों की सुनवाई की दर काफी धीमी है और 81 प्रतिशत से ज्यादा मामले अदालतों में लंबित हैं। नेशनल क्राइम ब्यूरो (एनसीबी) के ताजा आंकड़ों के अनुसार 1995 से 2009 के बीच अनुसूचित जनजाति पर अत्याचारों के 80,489 मामले पाए गए। इनमें 1,911 हत्या और 7,537 बलात्कार के मामले थे। हालांकि एनसीबी ने अनुसूचित जाति के मामले में कोई जानकारी नहीं दी है। बजट सत्र के दौरान संसद में पेश एक रिपोर्ट के अनुसार केवल 2008 में 30,913 मामले दर्ज किए गए हैं। अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून के प्रतिपादक और पूर्व आइएएस अधिकारी पीएस कृष्णा का कहना है, समस्या केवल अदालत में बड़ी संख्या में मामलों का लंबित होना ही नहीं है, बल्कि इन पर सुनवाई करने वाले जजों और वकीलों की संख्या की कमी भी है। उन्होंने कहा, अनुसूचित जनजाति के लोगों को सार्वजनिक अदालतों में काफी समस्या होती है क्योंकि ज्यादातर लोग उनकी भाषा नहीं समझ पाते। कृष्णा के अनुसार, इस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि ऐसे समुदाय के लोग ही वकालत करके आएं, जिन्हें उनकी भाषा की समझ के साथ उनके अधिकार से संबंधी पूरी जानकारी हो। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2009 के अंत तक 15,909 आपराधिक मामले कोर्ट में लंबित थे। जिन राज्यों में इन समुदायों पर सबसे ज्यादा अत्याचार के मामले सामने आए, उनमें उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड और उड़ीसा शामिल हैं|

Thursday, March 24, 2011

इमरजेंसी में अस्पताल न करने पाएं इलाज से मना


उच्च न्यायालय ने केंद्र व दिल्ली सरकार को निर्देश दिया है कि वे सभी अस्पतालों को आदेश दें कि सरकार के सुझाव को वह दिशा-निर्देश की तौर पर लागू करें। कोई अस्पताल इमरजेंसी में मरीज का इलाज करने से मना नहीं कर सकता। सरकार की सिफारिशों को स्वीकारते हुए मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा व न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की कहा कि दिल्ली व केंद्र सरकार द्वारा दिए गए सुझावों को दिशा-निर्देश की तरह माना जाए। इनको सभी अस्पतालों को भेज दिया जाए। जो अस्पताल इनका पालन न करें उसके खिलाफ संबंधित अधिकारी कार्रवाई करे। सुझाव दिया गया है कि प्रत्येक राज्य एक सेंट्रल कंट्रोल रूम बनाए जिसके अंतर्गत अस्पताल आते हों। वे अपने यहां खाली बेड की सूचना कंट्रोल रूम में भेजते रहे। इसमें फोन नंबर, फैक्स नंबर व मोबाइल नंबर अलॉट किया जाएं। इन पर कोई भी अस्पताल या एंबुलेंस संपर्क साध सके ताकि खाली बेड की स्थिति के बारे में पता लग सके। अगर इमरेजेंसी में कोई मरीज अस्पताल आता है और अस्पताल उसे बेड उपलब्ध नहीं करवा पा रहा है तो उस मरीज को पास के उस अस्पताल में भेज दिया जाए जहां पर बेड खाली है। यह भी सुझाव दिया गया है कि अस्पताल इस बात का पूरा ध्यान रखे कि उनके सारे उपकरण चालू स्थिति में हों और किसी मरीज का इस आधार पर इलाज करने से मना न किया जाए कि उनका कोई डायग्नोस्टिक उपकरण काम नहीं कर रहा है। अगर घायल को किसी प्राइवेट अस्पताल में भी लाया जाता है तो यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वह इलाज करें। कोई भी प्राइवेट अस्पताल किसी मरीज को इस आधार पर इलाज करने से मना नहीं कर सकता है कि उसके पास मेडिको-लीगल डाक्यूमेंट सुविधा नहीं है। इस संबंध में अस्पतालों को पुलिस को सूचित कर देना चाहिए। न ही किसी मरीज का इलाज में इस आधार पर देरी की जाए कि मेडिको-लीगल औपचारिकताएं लंबित है। अदालत ने इस मामले में मीडिया में छपी गई खबर पर स्वत संज्ञान लिया था। सब्जी विक्रेता रामभोर को 29 नवंबर, 2010 को आजादपुर मंडी के पास किसी वाहन ने टक्कर मार दी थी। उसे जहांगीरपुरी स्थित बाबू जगजीवन राम अस्पताल ले जाया गया परंतु अस्पताल ने बेड न होने की बात कहते हुए उसे भर्ती नहीं किया। इसके बाद कश्मीरी गेट सुश्रत ट्रामा सेंटर ले जाया गया। वहां पर भी उसे यह कहते हुए भर्ती नहीं किया गया कि उनके पास अल्ट्रासाउंड मशीन नहीं है। फिर उसे लोकनायक अस्पताल लाया गया। उसे वहां भी यह कहते हुए भर्ती नहीं किया गया कि कानूनी कागजात पूरे नहीं है। जिसके बाद उसने लोक नायक अस्पताल के परिसर में स्थित एंबुलेंस में ही बिना मेडिकल सुविधा के दम तोड़ दिया|

Wednesday, March 23, 2011

हाई कोर्ट की खंडपीठ के मुद्दे पर खेमेबंदी


गोरखपुर में इलाहाबाद हाई कोर्ट की खंडपीठ स्थापित किए जाने संबंधी भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ की मांग का विरोध शुरू हो गया है। सपा सांसद रेवती रमण सिंह इस मुद्दे पर पहले ही संसद में आपत्ति दर्ज करा चुके हैं। अब हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने भी इसे लेकर खेमेबंदी शुरू कर दी है। एसोसिएशन ने समर्थन जुटाने के लिए बसपा सांसद कपिलमुनि करवरिया को पत्र लिखा है। योगी का तर्क है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के 16 जिलों के वादकारियों को लंबा सफर तय करके इलाहाबाद आना पड़ता है। यहां आने में उन्हें तमाम दुश्वारियों का समाना करना पड़ता है। इसके मद्देनजर गोरखपुर में हाई कोर्ट की एक खंडपीठ स्थापित की जानी चाहिए। हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व वरिष्ठ उपाध्यक्ष अखिलेश शर्मा कहते हैं कि संविधान की धारा 214 के अंतर्गत एक राज्य में एक ही हाई कोर्ट हो सकता है। संविधान की दूसरी धारा 231 के अनुसार, कई राज्यों के लिए भी एक ही हाई कोर्ट हो सकता है। इस धारा के अनुपालन में गुवाहाटी हाई कोर्ट, असम एक मार्च,1948 को बनाया गया। 1972, 1974, 1990 तथा 2000 में गुवाहाटी हाई कोर्ट की छह खंडपीठ कोहिमा, इंफाल, अगरतला, शिलांग, ऐजोल, ईटानगर में स्थापित की गई, जो अलग-अलग छह राज्यों मणिपुर, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश में स्थित है और काम कर रही हैं। उनके मुताबिक संविधान के आधार पर अलग खंडपीठ की मांग गलत है। हाई कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष उमेश नारायण शर्मा ने कहा कि उनका संगठन इस मांग का पुरजोर विरोध करेगा। वहीं बार एसोसिएशन के महासचिव अनिल तिवारी ने बसपा सांसद कपिलमुनि करवरिया को पत्र लिखकर योगी आदित्यनाथ की मांग का विरोध करने का आग्रह किया है। सपा संासद रेवतीरमण सिंह ने भी मांग का विरोध करते हुए कहा कि लोकसभा में वह बिल का पुरजोर विरोध करते रहेंगे। इस मुद्दे पर वह संसद में अपनी बात रख भी चुके हैं। उनके मुताबिक हाई कोर्ट का बंटवारा किसी हाल में उचित नहीं है|

Monday, March 21, 2011

तुरंत रेल ट्रैक खाली कराएं यूपी और केंद्र सरकार : हाईकोर्ट


जाटों के रेल रोको आंदोलन के कारण 14 दिनों से ट्रेन यातायात बाधित होने और आमजन को हो रही दुश्वारी पर इलाहाबाद हाईकोर्ट और उसकी लखनऊ पीठ ने शुक्रवार को सख्त रुख अपनाया। लखनऊ पीठ ने इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया, जबकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद केंद्र व राज्य सरकार को आदेश दिया है कि वह पर्याप्त फोर्स लगाकर ट्रैक तुरंत खाली कराए,ताकि ट्रेनों का आवागमन शुरू हो सके। सड़क जाम कर रहे आंदोलनकारियों को भी हटाया जाए। साथ ही अधिकारियों को आगाह किया कि वे ऐसा करने में नाकाम रहे तो सारी जिम्मेदारी उन्हीं की होगी। अदालत के निर्देश के बाद केंद्र और राज्य सरकार हरकत में आ गईं हैं। राज्य के कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह ने बताया कि सरकार आदेश अनुपालन सुनिश्चित कराएगी। मुख्यमंत्री मायावती ने प्रमुख सचिव गृह व डीजीपी के साथ बैठक की। साथ ही केंद्रीय गृह मंत्री को पत्र लिखकर मामले के शीघ्र समाधान का अनुरोध किया है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जाट आंदोलन से निपटने की रणनीति बनाने के लिए शनिवार को दिल्ली में रेलवे व अ‌र्द्धसैनिक बल के आला अफसरों की बैठक आहूत की है। लखनऊ पीठ के मुख्य न्यायाधीश एफआई रिबेलो और देवीप्रसाद सिंह की खंडपीठ ने शुक्रवार को समाचार पत्रों में जाट आंदोलनकारियों द्वारा रेलमार्ग जाम रखने की छपी खबरों का स्वत: संज्ञान लेते हुए मामले को न्यायमूर्ति उमानाथ सिंह की अध्यक्षता वाली पीठ के पास भेज दिया। पीठ के तलब करने पर सायं साढ़े चार बजे प्रदेश के प्रमुख सचिव गृह और डीजीपी अदालत में उपस्थित हुए। राज्य सरकार के महाधिवक्ता ज्योतिन्द्र मिश्रा ने पीठ को बताया कि केंद्र सरकार को इस मामले में पहल करनी होगी। केंद्र की ओर से एडीशनल सालीसीटर जनरल डा.अशोक निगम ने पक्ष प्रस्तुत किया। पीठ ने दोनों को सुनने के बाद कहा, नागरिकों को आंदोलन का हक है, किंतु उन्हें जनता को कठिनाइयों में डालने का हक नहीं है। जाट आंदोलन के कारण आवागमन बाधित न हो। इसके लिए केंद्र व राज्य सरकार आवश्यक सुरक्षा बल मुहैया कराकर ट्रेनों का सुचारू संचालन सुनिश्चत करें। पीठ इस मामले पर 23 मार्च को फिर सुनवाई करेगी और यह जानेगी कि उसके आदेश पर कितना अमल हुआ? वहीं, इलाहाबाद हाईकोर्ट की न्यायमूर्ति इम्तियाज मुर्तजा व एसएस तिवारी की खंडपीठ ने कु.भारती कश्यप की जनहित याचिका पर केंद्रीय गृह सचिव, उप्र के गृह सचिव, राज्य के पुलिस प्रमुख और रेलवे बोर्ड के चेयरमैन, लखनऊ और दिल्ली के महाप्रबंधकों को निर्देश दिया कि वे ट्रैक खाली कराने व ट्रेनों के सुचारु संचालन के लिए त्वरित कार्रवाई करें। साथ ही कार्यवाही की रिपोर्ट 29 मार्च को अगली सुनवाई की तिथि पर पेश करने का निर्देश दिया है।

Tuesday, March 15, 2011

अरुणा, इच्छा मृत्यु और आशंकाएं


अरुणा शानबाग के बहाने देश को ऐसा कानून मिलने जा रहा है, जिस पर पिछले तीन दशक से देश ही नहीं, पूरी दुनिया में बहस चल रही है। अरुणा शानबाग की इच्छा मृत्यु यानी यूथेनेशिया की याचिका सुप्रीमकोर्ट ने इसलिए ठुकरा दी, क्योंकि उसकी जिंदगी के बारे में फैसला करने का हक याचिका दायर करने वाली पिंकी वीरानी नहीं, बल्कि किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल को है, जिसकी नर्से समर्पित होकर पिछले 37 वर्षो से वार्ड में अचेत पड़ी अरुणा की सेवा कर रही हैं। सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि अरुणा के सबसे करीबी लोग उसकी इच्छामृत्यु नहीं चाहते। लिहाजा अनुरोध नहीं माना जा सकता। यही नहीं, अरुणा अचेत होने के बावजूद सामान्य जीवन जी रही है। उसे किसी बाहरी उपकरण के जरिए सांस नहीं लेनी पड़ रही है और उसका दिल सामान्य रूप से धड़क रहा है। वह न कॉमा में है और न ही ब्रेन डेड। पर इसी के साथ सुप्रीमकोर्ट ने मरीज की जरूरत के मद्देनजर इच्छा मृत्यु संबंधी कानून बनाने का रास्ता भी साफ कर दिया है। अदालत ने कहा कि अब पैसिव इच्छा मृत्यु संबंधी कानून बनाने का वक्त आ गया है। परमानेंट वेजिटेटिव स्टेट यानी नीम बेहोशी में पडे़ मरीज को जीने में मददगार यंत्र लाइफ सपोर्ट सिस्टम संबंधित हाईकोर्ट की पूर्व अनुमति लेकर निकाले जा सकेंगे। कोर्ट ने यह साफ किया कि वह एक्टिव यूथेनेशिया को उचित नहीं मानता। लिहाजा, इसकी इजाजत नहीं दे रहा है। इसका मतलब यह कि वह किसी व्यक्ति का जीवन जहरीले इंजेक्शन जैसी कोई चीज देकर हरने के पक्ष में नहीं है। इस बारे में जब तक कानून नहीं बन जाता, तब तक के लिए जस्टिस मारकंडेय काटजू और सुप्रीमकोर्ट की इकलौती महिला जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्र ने दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इस फैसले से उन चंद मरीजों, उनके परिवारों और डॉक्टरों को जरूर राहत मिलेगी, जो लंबे समय से बेसुध पडे़ अपने प्रियजन का कष्ट नहीं देख पा रहे हैं, जिनके लिए उन्हें मशीनों के बल पर जीवित रखने का खर्च उठा पाना संभव नहीं है और डॉक्टर जिनकी हालत में सुधार की उम्मीद खो चुके हैं। सरकारी सरगर्मी इस बीच यूथेनेशिया पर केंद्र सरकार भी अपने पुराने रुख से पलटती लग रही है। फैसले से पहले तक सरकार लगातार यूथेनेशिया का विरोध करती रही थी, पर अब अचानक विधि मंत्रालय में कानून बनाने की सरगर्मियां शुरू हो गई हैं। विधि मंत्री वीरप्पा मोइली के निर्देश पर मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी सुप्रीमकोर्ट के फैसले के अध्ययन में लग गए हैं। वह इस संभावना का पता लगाएंगे कि ऐसा कानून कितना कारगर होगा? इस विषय पर पहले एक खाका तैयार कर मोइली को दिया जाएगा और फिर उस पर समाज के विभिन्न वर्गो से रायशुमारी की जाएगी। यह अति भावुक और संवेदनशील मसला है। लिहाजा, सरकार इस पर राष्ट्रव्यापी चर्चा कराएगी। सरकार की तरफ से इस मामले के दौरान एटॉर्नी जनरल ई गुलाम वाहनवती ने हर किस्म के यूथेनेशिया का विरोध किया था। उन्होंने तब भी यही दलील दी थी कि भारत इसके लिए भावनात्मक तौर पर तैयार नहीं है। हाईकोर्ट देगा इजाजत अदालत ने इच्छा मृत्यु के लिए जो तरीका तय किया, उसके तहत इस बारे में अंतिम फैसला मरीज जिस राज्य में है, वहां के हाईकोर्ट की दो सदस्यीय पीठ करेगी। इसके लिए मरीज के परिवार के लोग या परिवार न होने के मामले में निकटतम लोगों और डॉक्टरों के पैनल की मंजूरी जरूरी है। पैनल में न्यूरोलॉजिस्ट, मनोचिकित्सक और फिजीशियन होंगे। हाईकोर्ट पक्षकारों को नोटिस जारी कर इस मामले को यथासंभव जल्द निपटाएगा। वाहनवती की इस आशंका पर कि इससे तो उन रिश्तेदारों की बन आएगी जो मरीज की संपत्ति हथियाना चाहते हैं, न्यायालय ने कहा कि इसीलिए सारा मामला रिश्तेदारों पर नहीं छोड़ा गया है। अभिभावकों, पत्नी और करीबी रिश्तेदारों, मित्रों के अलावा इलाज कर रहे डॉक्टरों की राय को भी बराबर तवज्जो देने की बात है। फैसले में आत्महत्या के मानवीय पहलू पर भी ध्यान दिया गया है। जजों का कहना था कि खुदकुशी के प्रयास के लिए सजा का प्रावधान करने वाली धारा 309 को इंडियन पेनल कोड से हटा देना चाहिए। कोई भी शख्स हताशा में खुदकुशी की कोशिश करता है। ऐसे शख्स को सजा नहीं, मदद की जरूरत है। लिहाजा, संसद को इस बारे में विचार करना चाहिए। फैसले में लॉ कमीशन की 210वीं रिपोर्ट का भी हवाला है। अक्टूबर 2008 को जारी इस रिपोर्ट में कमीशन ने आत्महत्या संबंधी इस कानून पर नए सिरे से विचार की सिफारिश की थी, जिसे सरकार ने नहीं माना था। गौरतलब है कि बांग्लादेश, पाकिस्तान, सिंगापुर, मलेशिया और भारत को छोड़कर दुनिया के ज्यादातर देशों में आत्महत्या का प्रयास अपराध की श्रेणी में नहीं आता। कौन हैं अरुणा शानबाग बहरहाल, यह बनाना जरूरी है कि किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में पिछले 37 वर्षो से पड़ी अरुणा शानबाग उसी अस्पताल में नर्स थीं। कभी अपने काम के प्रति वह समर्पित और खुशमिजाज युवती हुआ करती थीं। 27 नवंबर 1973 को उन पर वार्ड बॉय सोहन लाल वाल्मीकि की बुरी नजर पड़ी। उसने अरुणा को चेन से बांधकर दुष्कृत्य करने की कोशिश की। वह अपने इरादे में कामयाब तो नहीं हो पाया, पर चेन से बंधे रहने के कारण अरुणा के दिमाग को ऑक्सीजन और खून नहीं मिल पाया। इससे उसके गले और दिमाग की कई नसें निष्कि्रय हो गई और लंबे इलाज के बावजूद अरुणा की हालत में सुधार नहीं हुआ। अरुणा की आंखों की रोशनी चली गई थी। वह कुछ सुन नहीं पाती थीं और उन्हें लकवा मार गया था। इस कांड के अगले दिन वाल्मीकि गिरफ्तार कर लिया गया। अगले वर्ष उसके खिलाफ हत्या की कोशिश और अरुणा के कानों की बालियां चोरी करने और अप्राकृतिक यौनाचार के लिए चार्जशीट दाखिल हुई। डॉक्टरी जांच में बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई थी। लिहाजा, उसे सात साल की सजा हुई। अब वह सजा पूरी कर चुका है। कहते हैं कि वह दिल्ली के किसी अस्पताल में नौकरी कर रहा है। अरुणा की उम्र 63 वर्ष है। जब उसके साथ यह हादसा हुआ, तब वह 26 वर्ष की थी। पिछले 37 वर्षो में अरुणा को कई बार अस्पताल के वार्ड से हटाने की कोशिश हुई, पर हर बार उसकी साथी नर्से उसके समर्थन में आ गई। नई और पुरानी सभी नर्से उसकी सेवा करती हैं। अरुणा हिल-डुल नहीं सकती, लेकिन वह अपना पसंदीदा भोजन मछली और चिकन सूप मिलने पर खुश हो जाती है। वह होंठ पर जीभ फिरा लेती है और उसकी बेरौनक आंखों में चमक आ जाती है। उसके दिमाग की नसें सिंकुड़ गई हैं, पर दिमाग जीवंत है। इसी बिनाह पर सुप्रीमकोर्ट ने उसे इच्छा मृत्यु देने की याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने पिंकी वीरानी की तारीफ तो की, पर अस्पताल की नर्सो को अरुणा का करीबी रिश्तेदार माना, जो उसकी मृत्यु के पक्ष में नहीं थीं। अरुणा की हालत में न कोई सुधार है और न गिरावट। वह ब्रेन डेड नहीं है। उसे कृत्रिम सांस देने की जरूरत नहीं है। उसकी जांच करने वाली डॉक्टरों की टीम उसकी हालत में सुधार की संभावना से भी इनकार नहीं करती, पर सच्चाई यह है कि अरुणा उसी बिस्तर पर 37 वर्षो से पड़ी है और युवती से बूढ़ी हो गई। (लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)

दोस्ती को भारत के बंदी छोड़े पाक


एक असामान्य कदम के तहत उच्चतम न्यायालय ने पाकिस्तान से अपील की कि दोनों देशों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों को प्रोत्साहन देने के लिए वह वहां के विभिन्न जेलों में बंद भारतीय कैदियों को रिहा करे। न्यायाधीश ने उर्दू के प्रसिद्ध शायर फैज अहमद फैज की प्रसिद्ध ये पंक्तियां भी उद्धृत कीं-कफस उदास है यारों, सबा से कुछ तो कहो। कहीं तो बहर-ए-खुदा आज जिक्र-ए-यार चले। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काट्जू और ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने कहा कि वह सिर्फ उनकी रिहाई के लिए पाकिस्तान सरकार से अपील कर सकती है, क्योंकि भारतीय अदालतों के पास अन्य देशों को निर्देश देने की कोई शक्ति नहीं है। पीठ ने कहा, हम पाकिस्तानी अधिकारियों को कोई निर्देश नहीं दे सकते, क्योंकि हमारा उनके ऊपर अधिकार नहीं है। भारतीय अधिकारियों ने इस मामले में जो कुछ भी किया जा सकता है वह सब कुछ किया है। हालांकि, यह हमें याचिकाकर्ता की अपील पर विचार करने के लिए पाकिस्तानी अधिकारियों से अनुरोध करने से नहीं रोक सकता कि उसकी शेष सजा को माफ कर उसे मानवीय आधार पर रिहा कर दिया जाए। शीर्ष अदालत के अनुसार,हम पाकिस्तानी अधिकारियों से इस बात की अपील करने को उचित मानते हैं कि वह याचिकाकर्ता को मानवीय आधार पर रिहा कर दे, क्योंकि उसने जेल में करीब 27 साल बिता लिए हैं। अदालत ने यह आदेश गोपाल दास के परिवार की ओर से दायर याचिका का निस्तारण करते हुए पारित किया। गोपाल दास के परिवार के सदस्यों ने अपनी याचिका में शिकायत की थी कि अपनी सजा काटने के बावजूद दास 27 वर्षों से जेल में बंद हैं। केंद्र की ओर से दास और ऐसे ही अन्य कैदियों की रिहाई के लिए उठाए गए कदमों के संबंध में दायर जवाबी हलफनामे का परीक्षण करने के बाद पीठ ने कहा कि वह मानवीय आधार पर भारतीय मूल के सभी अन्य कैदियों को रिहा करने पर विचार करे|

Sunday, March 13, 2011

समाज को नसीहत न दें न्यायाधीश


अहमदाबाद, एजेंसी : भारत के मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाडि़या ने कहा है कि जज कार्य के दौरान समाज को नसीहत देने से बाज आएं। न्यायालय की अति सक्रियता को लेकर हालिया आलोचना को ध्यान में रखते हुए कपाडि़या ने न्यायाधीशों से विधायिका की बुद्धिमता के आकलन से भी बचने की सलाह दी। जस्टिस पीडी देसाई की स्मृति पर आयोजित कार्यक्रम में संवैधानिक नैतिकता विषय पर बोलते हुए चीफ जस्टिस ने कहा कि उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय सिद्धांतों की अदालतें हैं इसलिए न्यायाधीशों को किसी विषय से जुड़े सिद्धांतों के अलावा अन्य मामलों पर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। हमें समाज को उपदेश देने से बचना चाहिए। कपाडि़या बोले, समस्या यह है कि न्यायाधीश अपने मूल्यों, पसंद और नापसंद को समाज पर थोपने लगते हैं। न्यायाधीशों को यह ध्यान में रखना होगा कि वह विधायिका की बुद्धिमानी या विवेक का आकलन नहीं कर सकते। हमारे लिए संवैधानिक सिद्धांतों के दायरे में ही काम करना ही बेहतर है। चीफ जस्टिस ने जोर देकर कहा कि हमें यह बताने का कोई हक नहीं है कि लोगों को क्या करना चाहिए और क्या नहीं। उन्होंने सुझाव दिया कि अगर न्यायाधीश संवैधानिक सिद्धांतों के मुताबिक फैसले लेते हैं तो बहुत सारे विवादों से बचा जा सकता है। हालांकि कपाडि़या ने न्यायपालिका के संवैधानिक अधिकारों और समाज के हितों में संतुलन बनाने को चुनौती भरा करार दिया। मुख्य सतर्कता आयुक्त पद पर पीजे थॉमस की नियुक्ति का सीधे तौर पर जिक्र न करते हुए कपाडि़या ने उच्च संवैधानिक पदों पर नियुक्तियों का हवाला दिया। उन्होंने कि ऐसे मामलों में निरपराध होने की संभावनाओं पर विचार करना चाहिए या संवैधानिक पद की स्वच्छ छवि पर जोर दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में वस्तुनिष्ठता न्यायिक फैसलों की सबसे बड़ी कसौटी है। कपाडि़या ने सुझाव दिया कि संवैधानिक नैतिकता पर जोर दिया जाए तो फैसलों में पारदर्शिता आती है। उन्होंने अफसोस जताया कि आज के समय में वरिष्ठ अधिवक्ता कानूनों के विकास में अपना योगदान नहीं दे रहे हैं। उन्होंने छात्रों को सलाह देते हुए कहा कि आज के समय में हम इंटरनेट की ओर भागते हैं और जो कुछ भी जानकारी मिलती हैं उसी को आधार मान लेते हैं जो ठीक परंपरा नहीं है।

Thursday, March 10, 2011

सुप्रीम कोर्ट से ठुकराई याचिकाएं सुन सकता है हाईकोर्ट


सर्वोच्च न्यायालय ने एक अहम फैसले में व्यवस्था दी है कि उसकी टिप्पणियों को कानून या मिसाल नहीं माना जाना चाहिए। शीर्ष न्यायालय ने विशेष अनुमति याचिका खारिज किए जाने के बावजूद हाईकोर्ट में समीक्षा याचिका दायर की जा सकता है। न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा ने बुधवार को आंध्र प्रदेश के गंगाधर की याचिका पर दिए फैसले में कहा, सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशेष अनुमति याचिका खारिज करने के बावजूद अगर हाईकोर्ट किसी समीक्षा याचिका को स्वीकार कर लेता है, तो शीर्ष न्यायालय को इससे खुद को तिरस्कृत महसूस नहीं करना चाहिए। न्यायालय ने कहा, हमारा मानना है कि इन निष्कर्षो को मिसाल के तौर पर कतई नहीं देखा जाना चाहिए। हम तिरस्कार से नहीं डरते। इस बात को देखना जरूरी है कि विधिक सिद्धांत का निर्धारण किया गया है या नहीं। पीठ ने कहा, इस न्यायालय के छिटपुट निष्कर्षो को मिसाल नहीं माना जाना चाहिए। पीठ ने कहा, शीर्ष अदालत के किसी फैसले से संविधान समीक्षा का अधिकार लुप्त नहीं हो जाता। शीर्ष अदालत के आदेश संविधान में परिवर्तन करने की शक्ति नहीं रखते। न्यायाधीश ने कहा, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 136 विवेकाधीन प्रतिकार का हक देता है। इसे विभिन्न तर्को के आधार पर खारिज किया जा सकता है न की वरीयता के आधार पर|

Wednesday, March 9, 2011

दया-मृत्यु की इजाजत के खतरे


दया-मृत्यु के मामले में अदालत का फैसला बहस की शुरुआत भर है। आने वाले वर्षो में ही इसके दूरगामी परिणाम एवं प्रभाव देखने में आएंगे। अभी कुछ कहना मुश्किल है। फिर भी यहां के लोगों, विभागों की ईमानदारी का जो स्तर है और कुछ हद तक अदालतों में व्याप्त सुस्ती एवं भ्रष्टाचार देखते हुए कहा जा सकता है कि इस फैसले का दुरुपयोग भी होगा। लगातार इस पर काम करना होगा कि कहीं परिवार वाले या करीबी दोस्त एवं चिकित्सक मिलीभगत कर किसी के प्राण असमय लेने पर आमादा तो नहीं हो रहे
सवरेच्च न्यायालय ने सात मार्च के अपने फैसले में ‘यूथनेशिया’ (यानी ऐसे व्यक्ति को दया मृत्यु देना जो गम्भीर बीमारी से ग्रस्त हो, जिसके ठीक होने की आशा क्षीण हो और जिसे प्रतिक्षण अथाह दर्द से गुजरना पड़ता हो) की आज्ञा कुछ शतरे के साथ दे दी है। यह आज्ञा सिर्फ ‘पैसिव’ यानी परोक्ष होगी, एक्टिव (प्रत्यक्ष) नहीं। पैसिव का अर्थ होगा मरीज के शरीर से चिकित्सा सम्बंधी सपोर्ट सिस्टम जैसे दवा की नली, वेंटीलेटर आदि को हटा लेना तथा एक्टिव का अर्थ होगाचिकित् सक द्वारा खुद जहरीला इंजेक्शन देना जिससे मरीज बिना दर्द भोगे चुपचाप मृत्यु की गोद में सो जाए। पैसिव यूथनेशिया के लिए भी एक निश्चित प्रक्रिया से गुजरना होगा। मरीज के करीबी या रिश्तेदार इस अनुमति के लिए अपने राज्य के उच्च न्यायालय में याचिका दायर करेंगे और मुख्य न्यायाधीश उसके लिए खंडपीठ बनाएंगें। खंडपीठ तीन चिकित्सकों की टीम का गठन करेगी और उसकी अनुशंसा पर अपना निर्णय सुनाएगी। अरुणा शानबाग (62 वर्ष) के मुकदमे के दौरान यह फैसला देश की सर्वोच्च अदालत से आया है। घटना 27 नवम्बर 1973 की है। अरुणा एक ट्रेंड नर्स थी। वह मुम्बई के किंग एडर्वड अस्पताल (केईएम) में काम करती थी। उस दिन अरुणा औरों की अपेक्षा ज्यादा देर तक काम करती रही क्योंकि ‘फूड प्वायजनिंग’ के ग्रस्त कई बच्चे अस्पताल आये थे। नसरे का लॉकर ‘बेसमेंट’ में था। अरुणा वहां अपने कपड़े रखने गई। तभी वार्ड ब्वॉय सोहनलाल वाल्मीकि उसका पीछा करता हुआ वहां आ पहुंचा और उसने अरुणा के गले में कुत्ता बांधने की चेन डालकर उसके साथ अप्राकृतिक बलात्कार किया। इस क्रम में चेन ने कुछ पलों के लिए अरुणा के गले और मस्तिष्क की नसों का सम्बंध विच्छेद कर दिया और उसके कुछ सेल्स क्षतिग्रस्त हो गए। लोगों को जब पता चला और उन्होंने अरुणा को देखा तो उसके होंठ हिल रहे थे और आंखों से आंसू बह रहे थे- पर घटना के आघात और शारीरिक चोट ने उसकी आवाज छीन ली थी। कुछ देर बाद ही वह कोमा में चली गई। लेकिन यह सौ प्रतिशत कोमा की स्थिति नहीं थी। आज भी अरुणा मछली और आम शौक से खाती है। कोई उसे स्पर्श करता है तो वह प्रतिक्रिया दर्शाती है, मुंह भरा हो तो खाना नहीं लेती। चिल्लाती है, जब उसका बिस्तर गीला हो जाता है। कुछ साल पहले खाना नापसंद आने पर वह सिस्टर की अंगुली काट डालती थी। वह ऐसा जाहिर नहीं करती कि वह मरना चाहती है। जो नर्स एवं डॉक्टर उसकी देखभाल करते हैं, उन्हें उसकी सेवा से परहेज नहीं है। फिर भी अरुणा की मित्र पिंकी विरानी ने उसकी हालत पर तरस खाकर उक्त याचिका दायर की थी। पिंकी का इरादा नेक था, ऐसा सर्वोच्च न्यायालय ने माना है पर ऐसे मामलों में न्यायालय ने पीड़ित रोगी की इच्छा को सवरेपरि माना है। यह अच्छी बात है। इसीलिए पूरा केईएम अस्पताल खुश है, जश्न मना रहा है। पर नाराज है पिंकी से। कारण वह अरुणा की सेवा करने या कष्ट देखने तक नहीं आती। पर इस मुकदमे ने एक बहस छेड़ दी है और दूसरों के लिए सर्वोच्च न्यायालय के ये दिशा निर्देश, एक कानून बनने तक काम करते रहेंगे। जैसा कि विशाखा (कार्यस्थल पर यौन अत्याचार प्रतिरोधक दिशा निर्देश) के मामले में हो रहा है। अदालत ने पैसिव यूथनेशिया के खतरे को भांपते हुए कहा कि ‘भारत में हर चीज के व्यापारीकरण को देखते हुए परिवार वालों एवं चिकित्सकों की मर्जी पर मरीज का इलाज बंद करना घातक होगा। कारण कितने ही मामलों में वे राय-मशविरा कर इलाज बंद कर देते हैं और रोगी की मृत्यु हो जाती है। ऐसा मरीज की सम्पत्ति हथियाने या इलाज के पैसे बचाने, दोनों ही कारणों से हो सकता है। सवाल यह नहीं है कि ‘इलाज कर मरीज की जिंदगी को लम्बा किया जाए या नहीं, बल्कि यह है कि यह मरीज के हित में है या नहीं।’
अदालत ने आगे कहा, ‘व्यक्ति को तभी मृत कहा जाएगा जब उसका मस्तिष्क सौ प्रतिशत मृत हो गया हो, उसके सारे कार्यकलाप बंद हो गए हों। ब्रेन स्टेम तक समाप्त हो गया हो वरना नहीं।’ विदेशों में ब्रेन डेड होने पर मृत घोषित किया जाता है पर भारत में दिल की धड़कन बंद होने पर। फैसला यहीं तक सीमित नहीं रहा बल्कि इसने भारतीय दंड संहिता की धारा 309 (आत्महत्या करने की कोशिश) को भी समाप्त करने की अनुशंसा कर दी। पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ज्ञान कौर के मुकदमे में ऐसा करने से मना कर दिया था। इस बार अदालत ने कहा ‘लोग आत्महत्या की कोशिश अत्यंत अवसाद में करते हैं, उन्हें सजा नहीं, मदद की जरूरत है।’
चिकित्सकों के ‘ऐथिकल स्टैंर्डड्स’ पर भी अदालत ने सवालिया निशान लगाए हैं। हालांकि यह भी कहा है कि ज्यादातर चिकित्सक अपने पेशे के प्रति जिम्मेदार एवं ईमानदार हैं पर कुछ हैं जिनकी वजह से यह सुविधा, गलत लोगों की इच्छाओं के आगे झुककर उन्हें मनमानी प्रदान कर सकती है। वैसे चिकित्सा जगत भी दया मृत्यु के पक्ष में नहीं है। बेंगलुरू के कार्डियालाजिस्ट डॉ. देवी प्रसाद शेट्टी के अनुसार ‘भारत में अभी इतनी परिपक्वता नहीं है कि दया मृत्यु को अंजाम दिया जाए।’ उनके अनुसार चिकित्सक पैसिव यूथनेशिया के पक्ष में भी नहीं है। वे कहते हैं ‘हम चिकित्सक बनने के पहले लोगों की जीवन रक्षा की शपथ खाते हैं। उन्हें मारने की नहीं।’ फिर कौन कह सकता है कि कोमा में व्यक्ति कब तक जिंदा रहेगा और कब तक नहीं? पता नहीं कब नया इलाज आ जाए और रोगी वापस लौट आए? कई-कई वर्षो बाद रोगी को कोमा से पूर्णतया वापस आते सुना गया है। कुल मिलाकर यह फैसला एक बहस की शुरुआत भर है। आने वाले वर्षो में ही इसके दूरगामी परिणाम एवं प्रभाव देखने में आएंगे। अभी कुछ कहना मुश्किल है। फिर भी यहां के लोगों, विभागों की ईमानदारी का जो स्तर है और कुछ हद तक अदालतों में व्याप्त सुस्ती एवं भ्रष्टाचार देखते हुए कहा जा सकता है कि इस फैसले का दुरुपयोग भी होगा। इसी मुकदमे में अरुणा की और वहशी सोहन वाल्मीकि की जिंदगी देखिए। सोहन इतने वर्षो से इस सारी र्चचा को टीवी पर देखता होगा-अखबारों में पढ़ता होगा। बलात्कार की ऐसी सजा जो अरुणा ने भोगी है, उसका दशांश भी सोहन ने नहीं भोगा। अरुणा की आत्मा और हृदय के साथ-साथ उसका शरीर भी असह्य कष्ट भोग रहा है। बलात्कार पीड़िता के प्रति पुलिस, समाज, अदालतों की सहानुभूति ज्यादा होनी चाहिए न कि अपराधी के प्रति जिसकी सजा लगातार कम होती जाती है और कुछ जुर्माना लगाकर समझा जाता है कि उसने सजा काट ली। इस फैसले के बाद लगातार इस बात पर काम करना होगा कि कहीं परिवार वाले या करीबी दोस्त एवं चिकित्सक मिलीभगत कर किसी के प्राण असमय लेने पर तो आमादा नहीं हो रहे, अपनी चाल में सफल तो नहीं हो रहे। वैसे ही हमारे यहां स्वार्थ का बोलबाला है। भ्रूण एवं दहेज हत्याओं के उदाहरण पहले से हैं तथा यौन अत्याचारों में भी हमारा देश विश्व के देशों में अग्रणी है। एक सव्रे के अनुसार भारत में पांच में से एक पुरुष जीवन में कभी न कभी यौन अत्याचार करता है। लड़कियों के मामले में यह कानून बहुत चैलेंजिंग साबित होने वाला है। विदेशों में जहां यह कानून है वहां परिस्थितियां इतनी विषम एवं जटिल नहीं हैं, गरीबी नहीं है। चिकित्सा सुविधाएं कम नहीं है। मथुरा, वृंदावन, हरिद्वार, ऋषिकेश में हजारों विधवाओं, बूढ़े माता-पिता के बारे में सोचना होगा जो अपने घरों से कूड़ा-करकट की तरह बुहार दिये गये हैं। ऐसे सामाजिक परिवेश में बीमार की मृत्यु का सर्टिफिकेट या आज्ञा प्राप्त कर लेना क्या ठीक होगा? कहा जा सकता है कि फैसला समय से पहले और परिस्थितियों में बदलाव के पहले आ गया है। ऐसे में सतर्कता या सजगता ही बचाव है।

Monday, March 7, 2011

जीने के हक में


इच्छा मृत्यु पर प्रस्तावित कानून बन सकता है मील का पत्थर
सर्वोच्च न्यायालय ने 37 वर्षों से अस्पताल के बिस्तर पर कोमा में पड़ी अरुणा रामचंद्रन शानबाग को दया मृत्यु दिए जाने संबंधी याचिका खारिज जरूर कर दी है, मगर इससे एक व्यापक बहस को आधार मिला है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूरगामी है और इस पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती। जो लोग अरुणा के लिए दया मृत्यु की मांग कर रहे थे, उनका तर्क था कि अरुणा को सम्मानपूर्वक मरने का हक देना चाहिए, क्योंकि वह कोई सम्मानपूर्वक जिंदगी नहीं जी रही हैं, बल्कि उन्हें क्लिनिकली जीवित रखा गया है। ऐसे लोगों को, जिनमें मैं भी शामिल हूं, उम्मीद थी कि न्यायाधीश अरुणा की दया मृत्यु संबंधी याचिका पर इसी आधार पर गौर करेंगे। हमारी भारतीय परंपरा में इच्छा मृत्यु का एक स्वरूप पहले से ही विद्यमान है। हिंदू धर्म में समाधि लेने या कल्पवास की परंपरा और जैन धर्म में संथारा की परंपरा इच्छा मृत्यु का ही एक रूप है। विदेशों में भी चिकित्सीय कारणों से इच्छा मृत्यु देने संबंधि कानून मौजूद है।
अरुणा शानबाग मुंबई के किंग्स एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में काम करती थीं। 27 नवंबर 1973 को उनके साथ उसी अस्पताल में काम करने वाले सफाई कर्मचारी सोहनलाल ने यौन दुराचार किया था। उसने बड़ी नृशंसता से कुत्ते की जंजीर से बांधकर अरुणा के साथ दुष्कर्म किया, जिसके कारण वह कोमा में चली गईं। अपने बचाव के क्रम में अरुणा की आंखों की रोशनी भी चली गई और उन्हें लकवा मार गया, जिससे उनके बोलने की शक्ति भी खत्म हो गई। सोहनलाल उसे मरा समझकर मौके से फरार हो गया, जिसे बाद में हत्या की कोशिश के जुर्म में सात साल की सजा हुई और वह फिर रिहा भी हो गया। लेकिन अरुणा आज बिना किसी गुनाह के सम्मानपूर्वक जीने का संविधान प्रदत्त अधिकार भी खो चुकी हैं। चूंकि डॉक्टरों ने भी उनकी हालत में सुधार की गुंजाइश से इनकार कर दिया है, ऐसे में थोड़ी-सी संवेदनशीलता दिखाते हुए उन्हें सम्मानपूर्वक मरने का अधिकार देना उचित ही होता।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने एक्टिव यूथनेसिया (प्रत्यक्ष इच्छा मृत्यु) को गैर कानूनी बताया है और कुछ खास परिस्थितियों में पैसिव यूथनेसिया (अप्रत्यक्ष इच्छा मृत्यु) को मंजूरी दी है। यह ऐतिहासिक कदम है। दरअसल एक्टिव यूथनेसिया में मरणासन्न मरीज को मृत्यु के लिए प्रत्यक्ष सहयोग दिया जाता है, यानी उसे मारने के लिए अलग से ड्रग या इंजेक्शन वगैरह दिया जाता है। जबकि पैसिव यूथनेसिया में जीवन रक्षक प्रणाली पर जीवित मरणासन्न मरीज के शरीर से यह प्रणाली हटा ली जाती है, ताकि उसकी मृत्यु हो जाए। कोर्ट ने यह भी कहा कि जब तक इस संबंध में देश की संसद कोई कानून नहीं पारित करती, तब तक उसका फैसला मान्य रहेगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक भविष्य में हाई कोर्ट तीन डॉक्टरों की राय लेने और सरकार तथा मरणासन्न मरीज के निकट संबंधियों की राय लेने के बाद पैसिव यूथनेसिया की मंजूरी दे। अरुणा शानबाग के संघर्ष पर किताब लिख चुकीं पिंकी विरानी ने अरुणा के लिए पैसिव यूथनेसिया की इजाजत अदालत से मांगी थी। इसका मतलब है कि अस्पताल प्रशासन उसे दिए जा रहे भोजन को बंद कर दे, ताकि उसे इस नारकीय जीवन से छुटकारा मिल सके।
जहां तक अस्पताल प्रशासन की देखरेख का सवाल है, सुप्रीम कोर्ट ने भले ही उसकी प्रशंसा की है, लेकिन 37 वर्षों से अरुणा को इस तरह जीवित रखने के पीछे कौन-सा तर्क है? क्या वह चिकित्सकीय प्रयोग की वस्तु बनकर नहीं रह गई हैं? आखिर यह किसने तय किया कि अरुणा मरना नहीं चाहतीं? पिंकी विरानी अरुणा शानबाग की न तो कोई रिश्तेदार हैं और न ही उन्हें इसका कोई मुआवजा चाहिए। केवल मानवता के नाते वह उन्हें सम्मानपूर्वक मरने का हक दिलाना चाहती हैं। उन्होंने शरीर की यातना से अरुणा को मुक्ति दिलाने के लिए इसकी अपील की और इस बड़े मुद्दे को बहस के केंद्र में लाया। ऐसे और भी मामले सामने आए हैं।
किंग्स एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल अरुणा के जरिये दरअसल चिकित्सा विज्ञान को साबित करना चाहता है कि आप इन-इन तरीकों से शरीर को जिंदा रख सकते हैं। लेकिन ऐसी जिंदगी का क्या मतलब है? चूंकि जो डॉक्टर या नर्स अरुणा के साथ उस अस्पताल में काम करते थे, वे सब तो कब के रिटायर्ड हो गए। वहां अब तकरीबन सारे डॉक्टर, नर्स और अन्य कर्मचारी नए हैं, उनकी संवेदना अरुणा के साथ कितनी हो सकती है, यह सोचने वाली बात है।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को इस बारे में कानून बनाने का सुझाव दिया है। मेरा मानना है कि इस संबंध में जो भी कानून बने उसे काफी सोच-समझकर तैयार किया जाए और उसमें कानूनी, नैतिक एवं सामाजिक पक्ष को भी ध्यान में रखा जाए। इसकी अनदेखी नहीं होनी चाहिए। मेरी राय है कि ऐसे किसी भी संभावित कानून में एक बोर्ड के गठन का प्रावधान होना चाहिए जिसमें चिकित्सक, कानूनविद् और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हों। किसी मरणासन्न मरीज की हालत में यदि सुधार की गुंजाइश न हो, तब उसके निकट संबंधियों के साथ ही इस बोर्ड की सलाह भी ली जाए।
असल में इच्छा या दया मृत्यु एक अत्यंत नाजुक और संवेदनशील मसला है, लिहाजा इसके दुरुपयोग के खतरे भी ज्यादा हैं। आज जिस तरह से समाज में बुजुर्गों की उपेक्षा बढ़ती जा रही है और उनकी संपत्ति हड़पने के मामले दिनों-दिन प्रकाश में आ रहे हैं, वैसे में ऐसा कोई कानून बनाते वक्त उसके दुरुपयोग को रोकने के उपाय करना भी बेहद जरूरी है।