Thursday, July 28, 2011

संवैधानिक मूल्यों की स्थापना


सलवा जुडूम मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को विचारधारा और कानूनी तत्वों की कसौटी पर परख रहे हैं लेखक 
सलवा जुडूम मामले में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने विवादों का पिटारा खोल दिया है। इस फैसले का सामाजिक-आर्थिक नीतियों और संविधान द्वारा सत्ता की शक्ति संरचना के तीन महत्वपूर्ण अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की भूमिका पर महत्वपूर्ण असर पड़ेगा। इन मुद्दों पर गहन और निष्पक्ष दृष्टिकोण की जरूरत है, जो स्पष्ट और रचनात्मक रुख से ही संभव है। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि नक्सल-माओवादी विद्रोह का संबंध विद्यमान नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों से है। हमारे संवैधानिक मूल्य और दृष्टि इस बात की अनुमति नहीं देते कि विद्रोह को दबाने के लिए सलवा जुडूम और स्पेशल पुलिस ऑफिसर, जिन्हें कोया कमांडो के नाम से जाना जाता है, जैसे सशस्त्र नागरिक निगरानी समूहों का गठन किया जाए। इन संगठनों के सदस्य आदिवासी युवक हैं, जो निरक्षर हैं और उचित प्रशिक्षण व उपकरणों से वंचित हैं। इस फैसले से तीखे विवाद खड़े हो गए हैं। कुछ संगठनों ने इसे ऐतिहासिक और उचित फैसला बताया है तो इसके आलोचकों ने इसे गैरजरूरी न्यायिक दखलंदाजी करार देते हुए कहा है कि इससे जमीनी धरातल पर प्रमुख प्रशासकीय व्यवस्थाओं को ठेस पहुंची है। इस फैसले ने छत्तीसगढ़ सरकार को सकते में डाल दिया है। राज्य सरकार साढ़े छह हजार सदस्यों वाले सलवा जुडूम और कोया कमांडो संगठनों को नष्ट करके इनके सदस्यों से हथियार वापस लेने के काम में जुट गई है। यह खासा मुश्किल काम इसलिए है क्योंकि हताशा में सलवा जुडूम और कोया कमांडो नक्सलवादियों के हाथों मारे जा सकते हैं या फिर उनके साथ मिल सकते हैं, जिससे राज्य में विद्रोही गतिविधियों की आंधी शुरू हो जाएगी। सबसे तीखी आलोचना उन लोगों की तरफ से आई है जो इसे विचारधारा से प्रेरित फैसला बता रहे हैं। जोसेफ कोनार्ड नोवेला की रचना हर्ट ऑफ डार्कनेस का संदर्भ देकर सुप्रीम कोर्ट ने तमाम संदेहों को दूर कर दिया है कि उसकी सहानुभूति किनसे है और विचारधारा का झुकाव किसकी ओर है। इस उपन्यास में कोनार्ड ने वैश्विकरण के स्याह पक्ष को उजागर किया है। इसमें नव-उदारवाद के असीम स्वार्थ और लालच पर उंगली उठाई गई है। किंतु यह कहना गलत होगा कि इस सहानुभूति और विचारधारा के कारण सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम को असंवैधानिक करार दिया है। सलवा जुडूम और स्पेशल पुलिस ऑफिसरों पर आघात इसलिए किया गया है क्योंकि ये संविधान की धारा 14 और धारा 21 के प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं। ये संविधान प्रदत्त कानून के समक्ष समता और सार्थक व मर्यादित जीवन के मूल अधिकार का हनन करते हैं। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के दुष्प्रभावों और संवैधानिक कसौटी पर इनकी परख करते हुए सुप्रीम कोर्ट वस्तुत: तलवार की धार पर चला है। अदालत ने स्थापना दी है कि नक्सलवाद की क्रूर हिंसा की चुनौतियां के बावजूद प्रशासकीय जरूरत के नाम पर मूलभूत अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा कि गरीबों के बीच विद्वेष पैदा करना और ऐसी सामाजिक-आर्थिक नीतियां लागू करना जिनसे हिंसक राजनीति की स्थितियां उत्पन्न हों, संविधान में निषिद्ध हैं। नक्सली विद्रोह से निपटने के उपायों पर अदालत ने सही ही केंद्र सरकार की आलोचना की है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र ने स्पेशल पुलिस अधिकारियों/कोया कमांडो की नियुक्ति और उन्हें मिलने वाले मानदेय तक अपनी भूमिका सीमित रखी है। अदालत ने संविधान की धारा 355 के प्रावधानों की ओर ध्यान खींचा है। इसके अनुसार, प्रत्येक राज्य की बाहरी हमले और आंतरिक विद्रोह से सुरक्षा करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है। इससे स्पष्ट है कि विभिन्न राज्यों में विद्रोह और आतंकवाद से निपटने में केंद्र सरकार को ठोस व प्रभावी भूमिका निभानी होगी। हालांकि लगता है कि विद्रोह की जड़ों की तलाश में सुप्रीम कोर्ट एक मूल तथ्य की अनदेखी कर गया है। नक्सलवाद का संबंध नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण वंचित वर्ग के विस्तार से न होकर नकारवादी दर्शन से है। नक्सली विद्रोह तो नव-उदारवादी नीतियां लागू होने से काफी पहले पिछली सदी के छठे दशक में ही फूट पड़ा था। इसका लक्ष्य बंदूक की नोक पर सत्ता हथियाना था। अस्थायी कमजोरी के बाद 2004 में इसने जबरदस्त ताकत हासिल की, जब इसके बिखरे हुए गुटों ने सीपीआइ (माओवादी) के नाम से नया संगठन बनाया। माओवादियों ने घोषणा की-नई नीति दीर्घकालीन सशस्त्र विद्रोह की है, जिसका लक्ष्य भूमि, फसल या अन्य तात्कालिक लाभ की पूर्ति न होकर सत्ता हथियाना है। सालों से नक्सली-माओवादी भारतीय भूभाग को लहूलुहान कर रहे हैं। उन्होंने देश के 607 जिलों में से दो सौ में दखल बना लिया है। 2010 में उन्होंने 1003 लोगों की हत्या की। केवल छत्तीसगढ़ में ही 2004 से 2010 के बीच 2298 हमलों में 1064 ग्रामीण, 538 पुलिसकर्मी तथा अ‌र्द्धसैनिक बल, 169 स्पेशल पुलिस अधिकारी और 32 सरकारी कर्मचारी मारे गए। उन्होंने भारी मात्रा में अत्याधुनिक हथियार और संचार उपकरण जुटा लिए हैं। इससे भी त्रासद वे तौर-तरीके हैं, जिन्हें नक्सली अपना रहे हैं। अपने दर्शन के विपरीत वे वंचित तबके के लोगों को मौत के घाट उतार रहे हैं, जिनमें गरीब परिवारों के पुलिसकर्मी और ग्रामीण शामिल हैं। वे विकास न होने का रोना रोते हैं और विकास योजनाओं में बाधा खड़ी करते हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट ने नव-उदारवाद के दुष्प्रभावों के साथ-साथ माओवाद के इन भयावह पहलुओं पर भी टिप्पणी की होती, तो उसका फैसला न केवल सामाजिक-आर्थिक नीतियों से उपजे विकास आतंकवाद से लड़ने बल्कि विध्वंस और हिंसा की उन क्रूर शक्तियों से लड़ने में भी सहायक होता, जिन्होंने देश के बड़े भूभाग पर जीवन को भयावह, बर्बर और छोटा बना दिया है। फिलहाल तात्कालिक समस्या सलवा जुडूम और कोया कमांडो के सदस्यों के भविष्य को लेकर खड़ी हो गई है। अब इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि राज्य सरकार कुछ छूट देकर इन्हें नियमित पुलिस बल में समायोजित करे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खलबली मचा दी है। यह उन क्षेत्रों में भी दखल देता है जो कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्र में नजर आते हैं। किंतु टकराव और विवादों के ढेर में दबे संवैधानिक मूल्यों को उघाड़ने में इसके बहुमूल्य योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता। यह ऐसा फैसला है जो झटका देकर आपको सोचने को मजबूर करता है। (लेखक जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं).

खून भले खौले लेकिन आरक्षण कड़वा सच


सुप्रीम कोर्ट ने सामान्य श्रेणी के छात्रों को नसीहत देते हुए कहा कि शैक्षिक संस्थानों और नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण कड़वा सच है। आरक्षण को लेकर सामान्य श्रेणी के छात्रों का खून भले ही खौलता हो, लेकिन उन्हें इसे समझना चाहिए। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी छात्रों के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू करने में कट ऑफ मार्क का मतलब स्पष्ट करने की दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति आर वी रवींद्रन और न्यायमूर्ति ए के पटनायक की पीठ ने बुधवार को यह टिप्पणी की। इसके साथ ही पीठ ने मामले को प्रधान न्यायाधीश एसएच कपाडिया को कानून में कट-ऑफ शब्द के इस्तेमाल पर भ्रम को दूर करने के लिए उचित पीठ का गठन करने के लिए सौंप दिया। अदालत ने कहा,हम जानते हैं कि सामान्य श्रेणी के छात्र क्या महसूस करते हैं। हमें पता हैं कि जब कम अंक वाले (आरक्षित श्रेणी के) छात्रों को दाखिला लेते वे देखते होंगे तो उनका खून खौलता होगा, लेकिन उन्होंने जानना चाहिए कि आरक्षण कटु यथार्थ है। उन्हें इसे समझना चाहिए। हम गैर बराबर लोगों के साथ बराबर जैसा बर्ताव नहीं कर सकते। अदालत ने यह टिप्पणी उस वक्त की जब सुनवाई के दौरान आरक्षण विरोधी समूह के एक वकील ने दलील दी कि अगर आरक्षित श्रेणी में दाखिला लेने वाले छात्रों की गुणवत्ता पर अंकुश लगाए बिना आंख मूंदकर आरक्षण लागू होगा, तो शिक्षा का स्तर गिरेगा। इस टिप्पणी के अलावा पीठ में शामिल न्यायमूर्ति रवींद्रन ने अधिवक्ता पीपी राव की टिप्पणी से नाराज होकर खुद को सुनवाई से अलग कर लिया। राव ने कहा था कि पीठ में न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी को भी शामिल होना चाहिए, क्योंकि मुद्दा उनके दिए गए फैसले की व्याख्या का है। इससे नाराज रवींद्रन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का हर न्यायाधीश किसी भी फैसले की व्याख्या कर सकता है। यहां ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है कि जिसका फैसला हो वही न्यायाधीश उसकी व्याख्या करेगा। फैसला सुप्रीम कोर्ट का होता है किसी न्यायाधीश का नहीं। उन्होंने आगे सुनवाई से इंकार करते हुए कहा कि वह सेवानिवृत होने वाले हैं और वह किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते। हालांकि, केंद्र सरकार की ओर से पेश वकील ने राव की दलील का विरोध किया था और पीठ से सुनवाई जारी रखने का आग्रह किया था। मद्रास आइआइटी के सेवानिवृत निदेशक पीवी इंद्रेशन ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर रखी है। अर्जी में सुप्रीम कोर्ट से कट ऑफ मार्क का मतलब स्पष्ट करने का अनुरोध किया गया है। कहा गया है कि जेएनयू में ओबीसी छात्रों को प्रवेश देने में दस फीसदी की छूट का मानक क्या होगा। यह मानक सामान्य वर्ग के अंतिम छात्र के कट ऑफ मार्क से दस फीसदी कम होगा या फिर सामान्य वर्ग के लिए निर्धारित पात्रता अंकों से दस फीसदी कम। केंद्रीय शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी कोटे का आरक्षण सही ठहराने वाली पांच न्यायाधीशों की संविधानपीठ में शामिल न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी ने अपने फैसले में कहा था कि सामान्य वर्ग के कट ऑफ मार्क से दस नंबर कम पर ओबीसी को प्रवेश दिया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में आजकल इसी दस फीसदी कट ऑफ के मानक पर बहस चल रही थी|

Saturday, July 16, 2011

सुकना घोटाले में रथ धोखाधड़ी के आरोप से बरी


सुकना भूमि घोटाले के मामले में लेफ्टिनेंट जनरल प्रशांत कुमार रथ को शुक्रवार एक सैन्य अदालत ने धोखाधड़ी के इरादे के आरोप से बरी कर दिया। सैन्य अदालत रथ को पहले बरी किए जाने के फैसले को चुनौती देने वाली पुनरीक्षा याचिका पर सुनवाई कर रही थी। ईस्टर्न आर्मी कमांडर ने 2008 के भूमि घोटाले में जनरल कोर्ट मार्शल से रथ को धोखाधड़ी के इरादे के आरोप से बरी किए जाने के फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा था। हालांकि जीसीएम ने अपने फैसले को बरकार रखा। सैन्य अदालत के पीठासीन अधिकारी आइजे सिंह ने यहां रथ के दोषी नहीं होने संबंधी फैसला सुनाया। अभियोजन पक्ष के वकील राघवेंद्र झा ने बताया कि मौजूद साक्ष्यों पर विचार करने के बाद अदालत ने अपने पूर्व के फैसले पर ही मुहर लगाई और कहा कि आरोपी धोखाधड़ी के इरादे का दोषी नहीं है। सैन्य अदालत ने ऐसा कोई नया साक्ष्य नहीं पाया जिसके आधार पर रथ पर धोखाधड़ी की नीयत से काम करने का मामला बनता हो। पीठासीन अधिकारी ने कहा कि विचार विमर्श के लिए कोई नया विषय नहीं है और पहले के फैसले में हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है। ईस्टर्न आर्मी कमांडर ने रथ के खिलाफ धोखाधड़ी के इरादे के पहले आरोप पर पुनर्विचार के लिए जनरल कोर्ट मार्शल का निर्देश दिया था। पूर्वी कमान के जीओसी लेफ्टिनेंट जनरल विक्रम सिंह ने इससे पहले दलील दी थी कि अदालत ने मौजूद साक्ष्यों पर विचार करते हुए कुछ पहलुओं को जरूरी महत्व नहीं दिया और इसी आधार पर रथ को धोखाधड़ी के इरादे से काम करने के आरोप से बरी कर दिया। उन्होंने कहा था कि पहले आरोप के संदर्भ में दोषी नहीं होने का फैसला प्रतिकूल दिखाई देता है। बचाव पक्ष के वकील मेजर एसएस पांडे ने कहा कि कोर्ट ने मूल फैसले में हस्तक्षेप से इनकार किया और पूर्व के निष्कर्षो को सही ठहराया। पांच लेफ्टिनेंट जनरलों की ज्यूरी ने ढाई घंटे तक मामले में दोनों पक्षों की दलीलों को सुना। जनरल कोर्ट मार्शल की सुनवाई के दौरान रथ अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सके और रो पड़े। पांडे ने कहा कि हमारे रुख पर कोर्ट ने मुहर लगाई। उन्होंने पुनरीक्षा के आदेश के पीछे कुछ लोगों का निहित स्वार्थ बताया। सैन्य स्टाफ के पूर्व उप प्रमुख(मनोनीत) रथ 2008 में घोटाले के वक्त 33 कोर के कमांडर थे। जीसीएम ने 22 जनवरी को रथ को उनके पद की वरिष्ठता में दो साल की कमी और 15 साल की पेंशन की कटौती की सजा सुनाई थी। उस वक्त रथ पर एक निजी रियल इस्टेट कंपनी को सिलीगुड़ी के पास सुकना सैन्य अड्डे से लगे भूखंड पर शैक्षणिक संस्थानों के निर्माण के लिए एनओसी देने से जुड़े तीन मामलों में दोषी ठहराया गया था। रथ ने पुनरीक्षा याचिका पर सवाल उठाते हुए आरोप लगाया था कि अधिकारी अदालत को अपने हिसाब से फैसला लेने के लिए बाध्य कर रहे हैं। मामले में रथ सात आरोपों का सामना कर रहे थे लेकिन जीसीएम ने 22 जनवरी के अपने पहले फैसले में उन्हें तीन मामलों में ही दोषी पाया था। सैन्य अदालत ने उन्हें प्रक्रियागत अनियमितता, धोखाधड़ी की नीयत से काम करने समेत चार आरोपों से बरी कर दिया था। हालांकि उन्हें शैक्षणिक संस्थान के निर्माण के लिए गीतांजलि ट्रस्ट के साथ सहमति पत्र पर दस्तखत करने और इस बाबत उच्चाधिकारियों को जानकारी न देने का दोषी पाया गया था।आ‌र्म्ड फोर्स ट्बि्यूनल ने बृहस्पतिवार को देश की प्रथम महिला सैन्य अधिकारी मेजर डिंपल सिंगला को सेवाकाल के दौरान भ्रष्टाचार के आरोपों से बरी किया था और उन्हें दी गई एक साल की कैद को भी खारिज कर दिया था। आदर्श और सुकना भूमि घोटालों पर चिंता जताते हुए रक्षा मंत्री एके एंटनी ने अधिकारियों से अधिकतम सतर्कता बरतने को कहा था। उन्होंने भूमि ऑडिट से नियंत्रण प्रणाली को दुरुस्त करने में मदद की उम्मीद जताई। रक्षा मंत्रालय के पास करीब 17 लाख एकड़ भूमि है। एंटनी ने रक्षा संपदा महानिदेशालय को देश भर में भूमि की स्थिति निर्धारित करने के लिए तुरंत कार्रवाई करने का निर्देश दिया था।

एसआइटी गठन के फैसले पर पुनर्विचार की गुहार


काले धन की जांच पर एसआइटी के गठन के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से असहज सरकार ने अदालत से फैसले की समीक्षा करने और उसे वापस लेने की अपील की है। इस संबंध में अदालत में दायर अपनी याचिका में सरकार ने दलील दी है कि यह आदेश कालेधन मामले में उसका रुख पूरी तरह सुने बगैर दिया गया। सरकार ने यह सफाई भी दी है कि काले धन के मामलों की जांच पर उसका रवैया सुस्त नहीं है। सूत्रों के मुताबिक, सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार के साथ आदेश को वापस लेने वाली याचिका दायर करने का फैसला इसीलिए लिया है ताकि उसे अदालत में अपनी बात कहने का मौका मिल सके। ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि पुनर्विचार याचिका की समीक्षा बंद चैंबर में होती है और वकीलों को भी हाजिर रहने की इजाजत नहीं होती। अब आदेश वापसी की याचिका की सुनवाई खुली अदालत में होगी। सरकार का मानना है कि चार जुलाई 2011 को जब काले धन से जुड़े मामलों की जांच के लिए एसआइटी के गठन की घोषणा सुप्रीम कोर्ट ने की थी उस वक्त सरकार अपना पक्ष अदालत के सामने नहीं रख पायी थी। सुप्रीमकोर्ट ने अपने आदेश में काले धन से जुड़े सभी मामलों जिनमें पुणे के घोड़ा व्यापारी हसन अली का मामला भी शामिल है, की जांच की रफ्तार धीमी रहने को लेकर सरकार को कड़ी फटकार लगायी थी। सुप्रीम कोर्ट ने दो रिटायर्ड जजों वाली एसआइटी गठित करने के साथ ही सरकार को निर्देश दिया था कि वह सीबीडीटी चेयरमैन की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति को एसआइटी से जोड़े। केंद्र सरकार ने अपनी याचिका में कहा है कि उस वक्त अदालत की खंडपीठ ने तत्कालीन सॉलीसिटर जनरल गोपाल सुब्रहमण्यम की दलीलों पर विचार नहीं किया जिनमें उन्होंने काले धन के मामलों की जांच के संबंध में केंद्र के उठाये कदमों का ब्यौरा दिया था। सूत्र बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में जाने का फैसला आज गृह और वित्त मंत्रालय के उच्चाधिकारियों की बैठक के बाद हुआ। बैठक में कानून मंत्रालय के अफसरों के साथ साथ अटार्नी जनरल जीई वाहनवती और अतिरिक्त सॉलीसिटर जनरल भी उपस्थित थे। सरकार ने अपनी याचिका में चार जुलाई को दिये सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पहले 20 पैराग्राफ पर आपत्तियां दर्ज करायी हैं जिनमें सरकार के कामकाज की कटु आलोचना की गयी थी।

Tuesday, July 12, 2011

सशस्त्र बल कानून पर फैसला कुछ महीनों में


सेना ने सोमवार को कहा कि अगले कुछ महीनों में जम्मू-कश्मीर के सुरक्षा हालात आ‌र्म्स फोर्सेस स्पेशल पॉवर्स एक्ट (अफास्पा) खत्म करने को लेकर उसके और राज्य सरकार के बीच चल रही बातचीत का भविष्य तय करेंगे। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून पर जम्मू-कश्मीर सरकार और सैन्य प्रतिनिधियों के बीच महीनों से वार्ता चल रही है। विवादित अफास्पा कानून को खत्म किए जाने को लेकर राज्य सरकार, मानवाधिकार संगठन ने भी एड़ी चोटी का जोर लगा रखा है। जम्मू-कश्मीर के वार्ताकारों ने भी इस पर पुनर्विचार किए जाने की सिफारिश की है। हालांकि सेना का तर्क है कि अफास्पा को हटाए जाने से घाटी में घुसपैठ और हिंसा की घटनाओं में तेजी आ सकती है। बडगाम जिले के बीरवार इलाके में संवाददाताओं से बातचीत में सेना की 15वीं कोर के जनरल आफीसर कमांडिंग लेफ्टिनेंट जनरल एसए हसनैन ने कहा कि सेना ने अफास्पा को लेकर अपनी मंशा से सरकार को अवगत करा दिया है। पिछले साल घाटी में हुई हिंसक घटनाओं के बाद राज्य सरकार ने अफास्पा को खत्म किए जाने पर विचार करने के लिए दो समितियों का गठन किया था। जम्मू और कश्मीर में तैनात सेना की टुकडियों के कमांडर इन समितियों के सदस्य हैं। हसनैन ने कहा कि सीमा पार तमाम आतंकी संगठन अभी भी सक्रिय हैं और अगले दो महीने में आतंकियों द्वारा घुसपैठ की कोशिशों में भारी इजाफा होने की आशंका है। सैन्य अधिकारी ने कहा कि विचार विमर्श की प्रक्रिया जारी है और अगले कुछ महीनों तक लगातार शांति निश्चित तौर पर एक अहम कारक होगा। उन्होंने कहा कि विभिन्न स्थानों पर सेना के चेकप्वाइंट आतंकी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए बनाए गए हैं और आम नागरिकों को परेशान करना इसका मकसद कतई नहीं है। कट्टरपंथी हुर्रियत नेता सैय्यद अली शाह गिलानी की हालिया प्रकाशित पुस्तक को खरीदने के बारे में पूछे जाने पर हसनैन ने कहा कि इसमें किसी को भी विवाद में घसीटा नहीं जाना चाहिए। एक पेशेवर होने के नाते, अलहदा सोच रखने वाले लोगों की भावनाओं को समझना बेहद जरूरी है, चाहे हम उनसे इत्तफाक रखते हों या नहीं।


पृष्ठ संख्या 06, दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण), 12 जुलाई, 2011

खनन कंपनियों को सुप्रीम कोर्ट ने नहीं दी राहत


उच्चतम न्यायालय ने अवैध खनन रोकने के लिए कर्नाटक की येद्दयुरप्पा सरकार द्वारा की जा रही कानूनी कार्यवाही पर रोक लगाने से सोमवार को इनकार कर दिया। इन खनन कंपनियों ने अवैध खनन को रोकने के लिए कानून बनाने के राज्य सरकार के फैसले में हस्तक्षेप करने का आग्रह शीर्ष अदालत से किया था। न्यायमूर्ति आर वी रवींद्रन के नेतृत्व वाली पीठ ने खनन कंपनियों की उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें राज्य सरकार के खनन का नियमन करने के लिए एक तंत्र बनाने के निर्णय को चुनौती दी गई थी। राज्य सरकार ने अदालत को सूचित किया था कि नियमन के संबंध में उपाए किए गए हैं और कर्नाटक अवैध खनन रोकथाम, परिवहन एवं भंडारण नियम को अधिसूचित किया गया है। अदालत ने इससे पहले कर्नाटक के विभिन्न बंदरगाहों पर पड़े लौह अयस्कों के निर्यात की अनुमति प्रदान कर दी थी जब अवैध खनन के आरोपों के बीच जुलाई 2010 में राज्य सरकार ने इसे बाहर भेजने पर प्रतिबंध लगा दिया था। राज्य सरकार द्वारा 26 और 28 जुलाई 2010 को लौह अयस्क के निर्यात पर रोक लगा दिया गया था। गौरतलब है कि अवैध खनन को लेकर पूर्व में सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक सरकार को जमकर फटकार लगाई थी।


पृष्ठ संख्या 06, दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण), 12 जुलाई, 2011

Saturday, July 9, 2011

न्यायाधीशों को सही संदेश

अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पीडी दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग का रास्ता साफ कर दिया है। अब राज्यसभा जस्टिस दिनाकरन के खिलाफ आरोपों पर सुनवाई करेगी और अपनी सफाई में जस्टिस दिनाकरन या उनके वकील को सदन के सामने हाजिर होना पड़ेगा। यह एक लंबे अर्से बाद किसी जज के खिलाफ कार्रवाई का प्रयास है। इससे पहले जस्टिस वी. रामास्वामी के खिलाफ संसद ने महाभियोग का प्रस्ताव सुना था। लोकसभा में इसकी सुनवाई हुई थी। बाद में बहुमत से जज को बरी कर दिया गया था। अब जस्टिस दिनाकरन के मामले में राज्यसभा के 50 से अधिक सांसदों ने सभापति को शिकायती पत्र दिया था, जिस पर एक पैनल बनाया गया था और उस पैनल ने महाभियोग की सुनवाई के लिए सिफारिश की है। इसके खिलाफ जस्टिस दिनाकरन सुप्रीम कोर्ट गए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी उन्हें कोई राहत नहीं दी। अब उनके सामने कोई विकल्प नहीं बचा है सिर्फ इस बात के कि वह राज्यसभा के सामने पेश हों। उम्मीद है कि अगस्त में संसद के मानसून सत्र के दौरान उन्हें राज्यसभा के सामने हाजिर होने के लिए कहा जा सकता है। उसके बाद सदन तय करेगा कि महाभियोग के लिए उनके आरोप सही पाए गए या नहीं। इसी तरह जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ भी राज्यसभा की कमेटी ने आरोप सही पाए हैं और उन्हें किसी भी समय राज्यसभा में महाभियोग के लिए तलब किया जा सकता है। इस मामले में जस्टिस दिनाकरन ने जिद पकड़ ली थी और इस्तीफा देने से मना कर दिया था। हारकर सांसदों ने उनकी शिकायत की और अब उनके महाभियोग की नौबत आ गई। न्यायपालिका को साफ-सुथरा रखने के लिए अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि जो गलत जज हैं उनके खिलाफ जल्दी से जल्दी कार्रवाई हो और कार्रवाई की प्रक्रिया को सरल बना दिया जाए। 64 साल में सिर्फ तीन जजों पर महाभियोग का मामला बन पाना उचित नहीं है। देश के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एसएच कपाडि़या इस मामले में बहुत सख्त हैं और उन्होंने भ्रष्ट जजों के खिलाफ कमर कस रखी है। कपाडि़या के बाद अगले चीफ जस्टिस के रूप में आ रहे अल्तमस कबीर भी बहुत सख्त माने जाते हैं। जिला और तहसील स्तर पर तो भ्रष्ट जजों और मजिस्ट्रेटों की भरमार है। जिला स्तर पर अच्छे जजों को पहल करके भ्रष्ट जजों की शिकायत करनी चाहिए और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को विश्वास में लेकर उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। इससे जिला स्तर पर न्यायपालिका में सुधार आएगा। यदि किसी जिला अदालत में अच्छी साख वाले वकील और जज गलत लोगों के खिलाफ अभियान छेड़ दें तो न्याय व्यवस्था में काफी सुधार आ सकता है। पहले यह समस्या सिर्फ जिला और तहसील स्तर पर थी, लेकिन धीरे-धीरे उच्च न्यायालयों में भी फैल गई। हद तो तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट के कुछ जजों के खिलाफ शिकायतें आईं। सर्वोच्च न्यायालय स्तर पर अच्छे जजों ने गड़बड़ जजों के खिलाफ माहौल बनाना शुरू किया और सरकार को भी उनके खिलाफ कार्रवाई करने की छूट दी। अब तो एक ऐसा कानून आ रहा है जिसमें कोई भी व्यक्ति किसी भी जज के खिलाफ शिकायत कर सकेगा। उस शिकायत की जांच मुख्य न्यायाधीश करवाएंगे और शिकायत सही पाई जाने पर उन्हें कड़ी सजा मिलेगी। उम्मीद है कि जल्दी ही इस मामले में भारतीय न्यायिक परिषद का गठन हो जाएगा। इस परिषद में भारत के मुख्य न्यायाधीश के अलावा सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम जज और देश के दो उच्च न्यायालयों के सबसे वरिष्ठ मुख्य न्यायाधीश होंगे। यह परिषद मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट और देश के विभिन्न हाईकोटरें के जजों के बारे में शिकायत सुनेगी और उनकी जांच करेगी। जांच के दौरान संबंधित जज के अदालत में बैठने पर रोक लग जाएगी। यदि किसी जज के विरुद्ध संगीन मामले हैं और पचास संसद सदस्य दस्तख्त करके उसके खिलाफ लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा सभापति को देते हैं तो लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति उस जज को संसद के सामने बुलाकर उसका ट्रायल करेंगे। यह प्रक्रिया भी कुछ लंबी है। परिषद के तरफ से ही शिकायत की अच्छी तरह से जांच करा लेनी चाहिए और यदि शिकायत सही पाई जाती है तो परिषद को ही उस जज को हटाने का अधिकार दिया जाना चाहिए। सिर्फ उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के जजों का मामला संसद के सामने लाया जाना चाहिए, इससे भ्रष्ट जजों को हटाने की प्रक्रिया सरल हो जाएगी। हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भी राज्य स्तर पर एक परिषद बनानी चाहिए जिसमें कुछ जजों के अलावा प्रदेश सरकार का विधि सचिव हो। वह जिला स्तर के न्यायाधीश की जांच करके उन्हें हटाने का निर्णय कर सकती है। इस तरह से न्यायपालिका को काफी साफ-सुथरा बनाया जा सकता है। (लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं).

सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट पर डाले जजों पर कार्रवाई के आंकड़े


 भले ही न्यायपालिका में गोपनीयता पर गाहे बगाहे टिप्पणियां की जाती होंलेकिन अब स्थिति वह नहीं रही। न्यायपालिका धीरे-धीरे पारदर्शिता की ओर कदम बढ़ा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार अपनी वेबसाइट पर अधीनस्थ अदालतों के न्यायधीशों पर हुई प्रशासनिक व अनुशासनात्मक कार्रवाई के आंकड़े डाले हैं। जिनके मुताबिक पिछले साल जनवरी से इस वर्ष 31 मार्च तक 75 जजों को विभागीय जांच के बाद सेवानिवृत्ति दे दी गईजबकि 305 के खिलाफ अभी जांच लंबित है। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को अपनी वेबसाइट पर देशभर की अधीनस्थ अदालतों के न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ की गई अनुशासनात्मक विभागीय कार्रवाई का आंकड़ा डाला है। आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल विभागीय जांच के बाद जिला जज कैडर के 55, सिविल जज सीनियर डिवीजन कैडर के 16 और सिविल जज जूनियर डिवीजन कैडर के जजों को 50, 55 और 58 वर्ष में कार्य समीक्षा के बाद स्थायी तौर पर सेवानिवृत्त कर दिया गया। 38 जजों पर मेजर पेनाल्टी (बड़ा दंड) लगाई गईजबकि 35 पर माइनर पेनाल्टी लगी। 305 जजों के खिलाफ अभी जांच लंबित है जिनमें सबसे अधिक संख्या उत्तर प्रदेश की है जहां 44 जजों के खिलाफ जांच लंबित है। वेबसाइट पर डाले गए कार्रवाई के पूरे चार्ट में खंड है जिनमें आखिरी खंड रिमार्क का है जो कि शुरू से अंत तक खाली है|