Friday, September 7, 2012

सुप्रीम कोर्ट से निरस्त कानून को दोबारा लाने की तैयारी



ठ्ठमाला दीक्षित, नई दिल्ली आरक्षण के मुद्दे पर सरकार एक बार फिर न्यायपालिका से रस्साकसी की तैयारी में है। प्रोन्नति में आरक्षण के जिस कानून को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने छह साल पहले निरस्त कर दिया था। सरकार न सिर्फ हूबहू वही कानून दोबारा ला रही है, बल्कि उसे 1995 की उसी पिछली तिथि से लागू भी करना चाहती है। यह पहला मौका नहीं है जब सरकार कानून लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी कर रही है। इससे पहले भी ऐसा हो चुका है। आरक्षण के अलावा शाहबानो प्रकरण, चुनाव लड़ने से पहले उम्मीदवार का संपत्ति और आपराधिक ब्योरा देना आदि कुछ ऐसे मामले आए, जिनमें कभी सरकार ने अपने अधिकारों की क्षमता दिखाई तो कभी न्यायपालिका ने अपनी ताकत। अगर सिर्फ एससी-एसटी आरक्षण के मामले में सरकार और न्यायपालिका के बीच चली रस्साकसी पर निगाह डाली जाए तो साफ हो जाता है कि कितनी बार दोनों ने एक दूसरे के फैसलों को नकारा है। किस्सा शुरू होता है 1955 से जब एससी-एसटी के लिए प्रोन्नति में आरक्षण लागू हुआ, लेकिन 1992 में आरक्षण के मुद्दे पर आए इंद्रा साहनी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रोन्नति में आरक्षण नहीं दिया जा सकता। इस फैसले से प्रोन्नति में आरक्षण समाप्त हो गया। सरकार ने 17 जून 1995 को संविधान में 77वां संशोधन कर अनुच्छेद 16 (4ए) जोड़ा और एससी-एसटी को प्रोन्नति में फिर आरक्षण दे दिया। इस संशोधन से कोर्ट का फैसला निष्प्रभावी हो गया। सरकार के गले में अभी भी एक फांस अटकी थी क्योंकि 10 फरवरी 1995 को सुप्रीम कोर्ट ने आरके सब्बरवाल के मामले में कहा कि एससी-एसटी वर्ग को परिणामी ज्येष्ठता (कांसीक्वेसियल सीनियरिटी) का लाभ नहीं मिलेगा। इस फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए सरकार ने वर्ष 2001 में संविधान में 85वां संशोधन किया और अनुच्छेद 16 (4ए) में बदलाव करके प्रोन्नति में आरक्षण के साथ परिणामी ज्येष्ठता भी दे दी। आरक्षण के मुद्दे पर सरकार और न्यायपालिका के बीच टसल अभी खत्म नहीं हुई थी। एक अक्टूबर 1996 को एस विनोद कुमार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि प्रशासनिक दक्षता बनाए रखने के लिए एससी-एसटी वर्ग को प्रोन्नति में चयन मापदंड के निर्धारित स्तर में कोई शिथिलता नहीं दी जा सकती। लेकिन सरकार ने इस फैसले को बेअसर करने के लिए वर्ष 2000 में 82वां संविधान संशोधन कर अनुच्छेद 335 में बदलाव किया। इसमें कहा कि प्रोन्नति के चयन मापदंड में शिथिलता दी जा सकती है। 19 अक्टूबर 2006 को एम. नागराज मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एससी परिणामी ज्येष्ठता के साथ प्रोन्नति में आरक्षण देने के कानूनी प्रावधान को नकार दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के आधार पर ही राजस्थान हाई कोर्ट और उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एससी-एसटी को प्रोन्नति में परिणामी ज्येष्ठता के साथ आरक्षण देने के राज्यों के कानून निरस्त कर दिए। उत्तर प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट आई और सुप्रीम कोर्ट ने 27 अप्रैल को यूपी पावर कारपोरेशन के मामले में एक बार फिर एम नागराज फैसले को आधार बनाते हुए हाई कोर्ट के आदेश पर अपनी मुहर लगा दी।



अपराधियों के चुनाव लड़ने पर विचार करेगा सुप्रीम कोर्ट



नई दिल्ली, प्रेट्र : सुप्रीम कोर्ट बुधवार को जनप्रतिनिधित्व कानून (आरपीए) के कुछ प्रावधान खत्म करने पर विचार के लिए सहमत हो गया। ये वे प्रावधान हैं जिनके जरिए पहले अपराधी रहे लोगों के दोष सिद्ध के बाद भी चुनाव लड़ने की संभावना बरकरार रहती है। याचिका पर अगली सुनवाई 10 अक्टूबर को होगी। न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर और जे चेलेमेश्वर की पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता फली नरीमन से कहा, यह बहुत अहम मुद्दा है और हम इस पर विचार करना पसंद करेंगे। नरीमन याचिकाकर्ता लिली थॉमस की ओर से पेश हुए थे। 2005 में दर्ज इस याचिका पर कोर्ट ने पहले अटॉर्नी जनरल को नोटिस जारी किया था। याचि ने 1951 के जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8,9 और 11 ए को रद करने की मांग की है। याचिका में कहा गया है कि यह संविधान के अनुच्छेद 84, 173 और 326 का उल्लंघन है, जिसमें अपराधियों के मतदाता के रूप में पंजीयन व सांसद-विधायक बनने पर पाबंदी है। आरपीए की धाराएं 8, 9 और 11 ए में दोषी करार लोगों को सजा के खिलाफ अपील या पुनर्विचार याचिका लंबित रहने तक विधायक-सांसद बने रहने की इजाजत देती हैं।
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