Monday, April 30, 2012

संपत्ति में अधिकार पर विवाद


मनमोहन सिंह सरकार की कैबिनेट ने हिंदू विवाह कानून में संशोधन को अंतत: मंजूरी दे दी है। इस संशोधन के चलते अब तलाक लेने की प्रक्रिया और आसान हो जाएगी। इसके तहत अब जजों के लिए तलाक का फैसला देने से पहले 18 माह की पुनर्विचार अवधि की बाध्यता भी खत्म हो जाएगी। पति-पत्नी की तलाक के सुनवाई के दौरान अगर जज को लगता है कि शादी बचाना मुश्किल है तो वह तलाक का फैसला तुरंत भी सुना सकता है। मौजूदा व्यवस्था के अनुसार पति-पत्नी के आपसी सहमति के मामले में भी कोर्ट को छह से अठारह महीने का समय रिश्ते को बचाने के लिए देना जरूरी था। संशोधन के पश्चात अब जज के लिए यह समय देना जरूरी नहीं होगा, अगर उन्हें लगे कि शादी को बचा पाना मुमकिन नहीं है और पति-पत्नी के रिश्ते में इतनी दरार आ चुकी है जो भरी नहीं जा सकती तो वह पुनर्विचार अवधि को समाप्त कर सकता है। हिंदू विवाह कानून में संशोधन के तहत महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए यह फैसला भी लिया गया कि शादी के बाद पति की खरीदी गई संपत्ति में पत्नी का हिस्सा तय होगा। इस नए कानून के तहत संपत्ति का बंटवारा पति और पत्नी के बीच होगा, भले ही वह संपत्ति किसी ने भी अर्जित की हो,। लेकिन यह बंटवारा अर्जित संपत्ति के मामले में ही लागू होगा। मौजूदा व्यवस्था के अनुसार शादी के बाद खरीदी गई संपत्ति में तलाक के बाद पत्नी का कोई हक नहीं होता। इस कानून की सबसे बड़ी जटिलता यह है कि भारतीय समाज में आज भी पैसों का हिसाब-किताब, व्यवसाय और उससे संबंधित काम मुख्य रूप से पुरुषों के पास होता है लिहाजा वे कितना कमाते हैं, यह छिपाना उनके लिए बेहद आसान होता है। अगर दंपत्ति के विवाह के बाद अर्जित की गई संपत्ति अलग से है तो उसका बंटवारा फिर भी आसान हो सकता है, लेकिन लड़की यदि अपने सास-ससुर के घर में है तब मामला सिर्फ पति तक सीमित नहीं होगा, बल्कि उसमें सास-ससुर की दखलअंदाजी भी होगी। जाहिर है, संपत्ति उनकी है तो मर्जी भी उनकी ही चलेगी। वहीं संपत्ति के बंटवारे में कितनी संपत्ति किसे मिलेगी, यह अदालत के विवेक पर छोड़ा गया है। इसे भले ही सराहनीय कदम माना जाए और महिला की मजबूत स्थिति के साथ जोड़कर देखा जाए, लेकिन यह महिलाओं को उनकी स्थिति के प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं करता, क्योंकि जो कानूनी प्रक्रियाएं चलती हैं, वे काफी लंबा इंतजार कराती हैं। विवाह के बाद पति-पत्नी जो भी संपत्ति हासिल करें, उस पर दोनों का समान अधिकार होना चाहिए, जबकि ऐसा हो नहीं पाता। जब परिवार पति-पत्नी से बनता है, दोनों सलाह मशविरा करके घर को चलाते हैं तो फिर घर की संपत्ति में दोनों को बराबरी का भागीदार क्यों नहीं बनाया जाए? जायदाद पति ने खरीदी हो या पत्नी ने दोनों को उसमें बराबर का हिस्सेदार नहीं होना चाहिए जैसे कि गोवा के वैवाहिक कानून में व्यवस्था है कि विवाह के बाद अर्जित संपत्ति पति-पत्नी दोनों की हो जाती है। गोवा में शादी के पश्चात ही महिला को संपत्ति में समानता का यह अधिकार मिल जाता है इसके लिए उसे तलाक होने तक का इंतजार नहीं करना पड़ता, लेकिन प्रस्तावित संशोधन के बाद भी महिला की डावांडोल स्थिति बरकरार रहेगी। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हिंदू विवाह अधिनियम- 1955 तथा विशेष विवाह अधिनियम-1954 में संशोधन पर अपनी अंतिम मुहर लगा दी, लेकिन कैबिनेट का फैसला तभी लागू होगा जब यह बिल संसद में पारित हो जाएगा। संशोधन पारित होने से पहले ही स्ति्रयों को दी जाने वाली छूट पर बहस शुरू हो गई है। दरअसल कैबिनेट द्वारा मंजूर विवाह कानून प्रस्ताव में एक ऐसी सिफारिश भी है जो पुरुष वर्ग के लिए सुपाच्य नहीं है। इस फैसले के तहत पत्नी अपने दुष्कर दांपत्य जीवन के आधार पर तलाक का केस दायर कर सकती है, किंतु पति इसी आधार पर केस दायर नहीं कर सकता है। इस प्रावधान को पुरुष समाज के साथ भेदभाव कहा जा रहा है। इस पर कुछ लोगों का कहना है कि इस मंशा के पीछे स्त्री को हमेशा कमजोर मानकर चलने की प्रवृत्ति अंतत: स्त्री का अवमूल्यन ही करता है। इसके अलावा यह भी उम्मीद जताई जा रही है कि जब यह संशोधन विधेयक संसद में विचार के लिए रखा जाएगा तो इस कमी को भी दूर कर दिया जाएगा। इस भेदभाव को दूर करने की वकालत कर रहे कई महिला और पुरुष लेखकों की मांग है कि कानूनी आधार पर दोनों को बराबरी का मौका मिलना चाहिए। होना यह चाहिए कि जब भी एक कमजोर और शक्तिशाली वर्ग के बीच तुलना की जाए तो कमजोर वर्ग को हर हाल में अतिरिक्त लाभ, अतिरिक्त अवसर देना या उसके पक्ष में खड़ा होना एक लोकतांत्रिक सभ्य और विकासशील समाज की कसौटी होनी चाहिए। आज भी स्त्री समाज पुरुष के मुकाबले अपने हित में कई कानूनों के बनने के बाद भी हासिल नहीं कर पाई है। सरकार द्वारा कराए गए सर्वेक्षण से भी यह बात सामने आई है कि 51 फीसदी महिलाएं यह मानकर चलती हैं कि अगर पति उन्हें पीटता है तो सही करता है। विचार करने वाली बात है कि इस सोच की महिलाएं क्या कभी भी अपने पति के खिलाफ आवाज उठा पाएंगी और उनके खिलाफ सामने आ सकेंगी, जबकि पति की स्थिति ठीक इसके विपरीत है। एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि तलाक के अधिकतर मामले पुरुषों द्वारा दायर किए जाते हैं। संबंध विच्छेद अब भी औरत को कमजोर स्थिति में डालता है, वहीं दोबारा शादी करके घर बसाना पुरुषों के लिए ज्यादा आसान है। दांपत्य व्यवस्था के मूल में यह विचारधारा काम करती है कि महिला परिवार और समाज के सृजन की आधारशिला है। महिला भी इसी विचारधारा में बंधकर अमूमन जीवन गुजार देती है, लेकिन पति के साथ यह स्थिति न के बराबर पेश आती है। यह अलग बात है कि इन फैसलों के लागू होने में अभी वक्त है, लेकिन कुछ प्रश्नों पर पुन: विचार करने की जरूरत है ताकि संशोधनों के लागू होने के बाद इसके दूरगामी परिणाम और प्रभाव सकारात्मक रूप में देखने को मिलें। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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