Friday, May 6, 2011

नपुंसक बनाना समाधान नहीं



बलात्कार की दिनोंदिन बढ़ती घटनाएं अब लोगों को उद्वेलित कर रही हंै। न्यायविदों के अलावा समाज का प्रबुद्ध समुदाय भी बचाव के विकल्पों पर विचार मंथन करता है। इन्ही उपायों में कभी मृत्युदंड, कभी उम्रकैद की अवधि बढ़ाने या फिर सार्वजनिक रूप से फांसी की सजा आदि सुझाव आते हंै। बंध्याकरण जैसे सुझाव इसके पहले भी कुछ संस्थाओं या समाज के कुछ हिस्सों की तरफ से आते रहे हंै। मुद्दा यह है कि क्या पुरुषों का पौरुष खत्म करने से दूसरे संभावित बलात्कारियों को वाकई भय होगा? यदि ऐसा होता तो मौत की सजा वाले अपराधों पर काबू पाया गया होता। दरअसल, मौजूदा कानून के तहत भी दोषियों की गिरफ्तारी और सजा की दर काफी कम है। जितनी बड़ी संख्या में अपराध होता है, उतनी बड़ी संख्या में न तो पीडि़ता शिकायत के लिए पहुंचती हैं और न ही जो शिकायत करती हैं, उन्हें न्याय की गारंटी होती है। इन दोनों का कारण हमारे यहां की टेढ़ी और लंबी न्यायिक प्रक्रियाएं हैं और सामाजिक दबाव और लोकलाज का भय पीडि़तों को शिकायत करने से रोकता है। लिहाजा, पहला मुद्दा तो यह है कि बलात्कार जैसे अपराध के लिए पूरी न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाने की जरूरत है और पीडि़तों को फिर से परेशान करने वाले प्रावधानों को समाप्त किया जाना चाहिए। जैसे की अब तक बलात्कार की पुष्टि के लिए मेडिकल टेस्ट में फिंगर का इस्तेमाल होता है। पिछले दिनों इस प्रकार की जांच प्रक्रियाओं का काफी विरोध हुआ था। फास्ट ट्रैक कोर्ट की मांग भी बहुत बार हो चुकी है। कुछ विदेशी महिलाओं के पीडि़त होने पर जरूर ऐसी कोई अदालत बिठाई गई, लेकिन यहां की महिलाओं के साथ केस और सुनवाई वैसे ही सालों लटके पड़े रहते हैं। ऐसे में कम ही पीडि़त शिकायत करने का साहस जुटा पाते हंै। हमारा समाज महिलाओं के लिए कितना असुरक्षित है, इसे देखते हुए यह भी स्पष्ट है कि ऐसे मामलों में न्याय की रफ्तार भी बहुत धीमी होती है। पिछले दिनों की बात है कि दिल्ली की एक अदालत में हाल में सामूहिक बलात्कार के दो आरोपियों को बरी कर दिया गया। कहा गया कि पीडि़ता ने कोर्ट में आरोपियों को नहीं पहचाना और अपना बयान बदल दिया। पीडि़ता के परिवार वालों ने भी सहयोग नहीं किया। अदालत मामले को आगे बढ़ाए इसकी अब कोई वजह नहीं बची थी, क्योंकि अब पीडि़त परिवार की इसमें रुचि नहीं बची थी। इसके पहले भी ऐसे केस आए हैं, जहां पीडि़ता द्वारा बयान बदल देने से आरोपियों को बरी कर दिया गया है। इसकी वजह साफ है कि एक तो कानूनी प्रक्रियाओं में ऐसे छेद हैं, जिनका फायदा आरोपी उठा लेते हैं। जैस ेकि कलमबंद बयान जो पीडि़ता से लिया जाता है और जो केस को आगे चलाने के लिए जरूरी होता है, वही देर से लेना तथा इस बीच पीडि़त पक्ष को डराने-धमकाने, लालच देने आदि का मौका मिल जाता है। कई बार यह देखने में आया है कि ऐसी देरी में पड़ रहे दबाव, मिल रहे प्रलोभन के चलते लड़की अपना बयान ठीक से दर्ज नहीं करती है और संदेह का लाभ देकर आरोपी के बरी हो जाने का रास्ता खुलता है। पीडि़ता के परिजन भी कई बार दबाव और लालच का शिकार हो जाते हैं तथा पीडि़ता पर अपना बयान बदलने के लिए दबाव बनाते हैं। कई मामलों में तो यह भी होता है कि मेडिकल परीक्षण में बलात्कार की पुष्टि हो जाने और विभिन्न परिस्थितिजन्य सबूतों के बावजूद पीडि़ता के विरोधाभासी बयानों के आधार पर आरोपी छूट जाता है। दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह विचार करने का है कि किसी भी सभ्य होते समाज में सजा के मध्ययुगीन तरीकों को कैसे सही ठहराया जा सकता है। अपराधी का अपराध निश्चित ही छोटा नहीं है, लेकिन सभ्य समाज जब सोच-समझ और विचार करके सजा देगा तो वह भी सख्त तो हो सकता है, लेकिन क्रूर और बर्बर नहीं। पहले के समय में कई प्रकार के अपराधों के लिए हाथ-पैर, नाक-कान काट दिए जाते थे या इसी प्रकार क्रूरता की जाती थी ताकि दहशत फैलाकर अपराध पर काबू पाया जा सके। अब तो कई देशों ने अपने यहां मौत की सजा का प्रावधान भी समाप्त कर दिया है। इसका अर्थ कतई यह नहीं है कि वहां अपराध करने की छूट है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बलात्कारियों का अंग भंग करना या उसे मार डालना समाधान नहीं है, बल्कि सख्ती से वे जेल के अंदर रहें तथा उम्रकैद की अवधि भी बढ़ा दी जानी चाहिए। (लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)


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