Wednesday, May 11, 2011

फिर अयोध्या मुद्दा


सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस निर्णय पर रोक लगा दी जिसमें अयोध्या में विवादित भूमि को तीन समान भागों में बांटने का निर्देश दिया गया था। तीन सदस्यीय न्यायपीठ के बहुमत से हाईकोर्ट का निर्णय पिछले साल 30 सितम्बर को आया था। यह 2.77 एकड़ के उस स्थान के बारे में था जिस पर कभी बाबरी मस्जिद का विवादास्पद ढांचा था। हाईकोर्ट का आदेश विधिसम्मत था या नहीं, यह देखना सुप्रीम कोर्ट का काम है। उसने इसी प्रकाश में सोमवार को पूर्व के निर्णय पर स्थगनादेश दिया है। हालांकि इससे एक बार फिर यह मुद्दा जीवंत होता दिख रहा है। इस बात पर बहस शुरू हो गई है कि तथ्यों-तकरे की रोशनी में निर्णय के वक्त क्या न्यायिक पीठ या न्यायाधीश अपने विवेकाधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता; और करता है तो उसकी सीमा क्या है? वजह स्थगनादेश के साथ सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी है कि ‘ऐसे आदेश पर अमल की इजाजत नहीं दी जा सकती जिसके लिए किसी पक्ष ने आग्रह ही न किया हो।’ तो क्या इससे विवाद सुलट जाएगा? निश्चित ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इस चिरकालिक विवाद के फिर व्यापक दायरे में जाने के आसार हैं। सही है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर करने वाले किसी पक्ष ने विवादित भूमि का बंटवारा करने का आग्रह नहीं किया था और न्यायालयों का कार्य भावनाओं में बहना नहीं होता बल्कि उन्हें तमाम सुबूतों के साथ जिरह-बहस में उठाये गए मुद्दों के मद्देनजर निर्णय देना होता है। किंतु क्या इससे इनकार किया जा सकता है कि फैसलों की कसौटी इंसाफ होना ही नहीं, इंसाफ दिखना भी है। इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय शायद इस अपेक्षा को पूरा करता था; तभी मामले के पक्षकारों और कतिपय राजनीतिजीवियों को छोड़कर पूरे देश ने ‘लोकसम्मत’ मानते हुए उसका स्वागत किया था। देश के बहुतायत लोगों को लगने लगा था कि हो न हो, इससे विवाद के खात्मे का कोई रास्ता निकले। अयोध्या विवाद बाबरी मस्जिद के विवादास्पद ढांचे की भूमि के मालिकाना हक को लेकर है। केंद्र सरकार ने उस जगह की ऐतिहासिकता की प्रामाणिकता के लिए पुरातात्विक जांच कराने से लेकर सारे उपाय किए पर राजनीति की कसौटी पर वे खरे नहीं उतर सके। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट को शायद प्रतीत हुआ है कि हाईकोर्ट का निर्णय पक्षकारों के आग्रह व तथ्यों-तकरे के बनिस्वत भावनाओं पर आधारित था तो इसे सुधारा ही जाना चाहिए। मगर देश में जो हालात हैं और राजनीति के क्षेत्र से उन्हें जिस प्रकार की उर्वरा मिल रही है, उसमें यह नहीं लगता कि राजनीतिक दलों की विवाद के समाधान में कोई रुचि है। लेकिन इस देश के साथ हमारी न्यायपालिका को अवश्य इस बात की गरज है कि किस प्रकार से हमेशा के लिए यहां शांति व सद्भाव का माहौल कायम हो जिससे देश के लोगों की सकारात्मक ऊर्जा पारस्परिक सौहार्द, भाईचारे और अंतत: हम सब की निरंतर प्रगति में लगे। यही कारण है कि सवाल उठ रहे हैं कि अब क्या होगा? ऐसा कौन सा निर्णय, कब आएगा जो सभी को मान्य हो? क्या न्यायपालिका के हस्तक्षेप के बिना यह सम्भव होगा?

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