Tuesday, December 7, 2010
अंकल जज सिंड्रोम के खतरे
न्यायिक व्यवस्था में गुजिश्ता कुछ बरसों से बढ़ता भ्रष्टाचार हमारी चिंताओं का सबब है। अभी तलक बेदाग मानी जाती रही न्यायपालिका पर भी अब भ्रष्टाचार के इल्जाम लगने लगे हैं। गोया कि भ्रष्टाचार ने न्याय के मंदिर को भी आहिस्ता-आहिस्ता प्रदूषित करना शुरू कर दिया है। कानून का राज कायम करने के लिए न्यायिक शुचिता एक बुनियादी जरूरत है। न्यायपालिका में यदि शुचिता नहीं होगी तो जाहिर है, उसका असर इंसाफ पर भी पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने अभी हाल ही में एक मामले की सुनवाई करते हुए जिस तरह से इलाहाबाद के कुछ न्यायाधीशों की ईमानदारी पर सवाल उठाए हैं, उसने हमारी न्याय व्यवस्था को कठघरे में ला खड़ा किया है। न्यायिक क्षेत्र में घर करते जा रहे भ्रष्टाचार पर तल्ख टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक मिसाल के मार्फत अपनी बात कही, शेक्सपियर ने अपने मशहूर नाटक हेमलेट में कहा था कि डेनमार्क राज्य में कुछ गड़बड़ है, ठीक उसी तर्ज पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के बारे में भी कहा जा सकता है कि वहां भी कुछ न कुछ गड़बड़ है, जिसे फौरन दुरुस्त किया जाना चाहिए। न्यायाधीश मार्कडेय काटजू और न्यायाधीश ज्ञानसुधा मिश्रा की दो सदस्यीय पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से कहा कि वे इसे ठीक करने के लिए कठोर कार्रवाई करें। सुाप्रीम कोर्ट ने यह तल्ख टिप्पणी हाईकोर्ट के कुछ न्यायाधीशों के अंकल जज सिंड्रोम से ग्रस्त होने का इशारा करते हुए की। उच्चतम न्यायालय ने अपनी यह नाराजगी इलाहाबाद हाईकोर्ट की एकल पीठ के उस आदेश को निरस्त करते हुए दी, जिसमें उसने अपने क्षेत्राधिकार में न होते हुए भी एक सर्कस मालिक के हक में फैसला सुना दिया, जबकि वह मामला लखनऊ खंडपीठ के अंतर्गत आता था। पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के कुछ न्यायाधीशों के खिलाफ मिल रही शिकायतों पर दुख व्यक्त करते हुए कहा कि इस तरह के आदेशों से तो न्यायपालिका पर से आम आदमी का यकीन ही उठ जाएगा। गौरतलब है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट के पास लगातार कई दिनों से गंभीर शिकायतें आ रहीं थीं, जिसमें सबसे चौंकाने वाली शिकायत यह थी कि कुछ न्यायाधीशों के सगे-संबंधी उसी अदालत में वकालत कर रहे हैं और देखते-देखते वकालत शुरू करने के कुछ ही अरसे में लखपति-करोड़पति हो गए। जाहिर है, इलाहाबाद हाईकोर्ट पर लगा यह गंभीर इल्जाम यों ही हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। यदि न्यायिक तंत्र ही भ्रष्ट हो जाएगा तो आम आदमी इंसाफ के लिए अपनी फरियाद कहां लेकर जाएगा। यह बात सच है कि न्यायाधीशों के सगे संबंधियों को भी अपना व्यवसाय खुद चुनने का अधिकार है, लेकिन इससे उन्हें अपने संबंधों का बेजा फायदा उठाने का हक नहीं मिल जाता। न्यायाधीशों के लिए उच्चतम न्यायालय ने जो आचार संहिता तय की है, उसमें यह बात साफ तौर पर लिखी है कि न्यायाधीशों को न्याय की निष्पक्षता की खातिर वकीलों से नजदीकी ताल्लुकात बनाने से बचना चाहिए। यही नहीं, आचार संहिता इस बात की भी इजाजत नहीं देती कि किसी न्यायाधीश के सगे संबंधी वहीं वकालत करें। विधि आयोग की 230वीं रिपोर्ट कहती है कि जो न्यायाधीश अपने सगे-संबंधियों का पक्ष लेते हुए दिखाई दें या उन पर इस बात का जरा-सा भी शक हो तो उनका तुरंत दूसरे राज्य में तबादला कर दिया जाए। इलाहाबाद हाईकोर्ट में यह सब तमाम गड़बडि़यां होती रहीं और उन पर कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया। जिसका नतीजा यह निकला कि वहां बड़े पैमाने पर इंसाफ प्रभावित होने लगा। सर्वोच्च न्यायालय ने संबंधों का गलत इस्तेमाल कर रहे न्यायाधीशों के खिलाफ तबादले जैसी ठोस कार्रवाई करने की यदि सिफारिश की है तो यह सही भी है। इस प्रवृत्ति ने ईमानदारवादियों और न्यायपालिका की स्वतंत्रता दोनों को ही बहुत नुकसान पहुंचाया है। फिर इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह मामला कोई अकेला अपवाद नहीं है, मुल्क की कई अदालतें इस वक्त अंकल जज सिंड्रोम से ग्रसित हैं। अदालतों में न्यायाधीशों के सगे संबंधियों के बड़ी तादाद में वकालत करने की ऐसी ही एक शिकायत ग्वालियर हाईकोर्ट की थी। वहां भी ग्वालियर खंडपीठ के अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी यह शिकायत दर्ज की थी कि कुछ न्यायाधीशों के परिवार के लोग और रिश्तेदार वहां वकालत कर रहे हैं। हालांकि न्यायपालिका और न्याय प्रक्ति्रया से जुड़े लोगों ने इस समस्या के निदान के लिए अपनी और से काफी पहल की, लेकिन फिर भी इसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। हालत यह है कि हमारे यहां न्यायिक सुधार कई सालों से लंबित हैं, लेकिन फिर भी सरकार ने इस पर कोई कारगर कदम नहीं उठाया है। सच बात तो यह है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति, उनकी पदास्थापना और जवाबदेही को कारगर आचार संहिता के जरिये ही तय किया जा सकता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति और आचरण से जुड़े मसलों पर आज प्रभावी और तर्कसंगत ढंग से विचार करने की बेहद जरूरत है, क्योंकि किसी भी तंत्र में प्रभावी जवाबदेह प्रणाली के अभाव में उसके अंदर गड़बडि़यां पैदा होना शुरू हो जाती हैं। न्यायपालिका का भ्रष्टाचार हमारे लिए इसलिए भी चिंता का सबब है कि न्यायाधीशों की सेवाशर्ते कुछ इस तरह से बनाई गई हैं कि उनके खिलाफ कोई भी कार्रवाई करना बेहद मुश्किल भरा काम होता है। मसलन, भ्रष्टाचार के इल्जाम में न्यायाधीश सोमित्र सेन के खिलाफ बीते 4 साल से कार्रवाई चल रही है, मगर फिर भी उन्हें अभी तलक नहीं हटाया जा सका है। दरअसल, न्यायाधीशों को हटाने की मौजूदा संवैधानिक प्रणाली इतनी बोझिल और जटिल है कि इसमें लंबा समय लग जाता है। हमारे संविधान में यह व्यवस्था है कि संसद की मंजूरी से ही हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को हटाया जा सकता है। असल में न्यायाधीशों को मजबूत सुरक्षा कवच और विस्तृत अधिकार इसलिए प्रदान किए गए कि वे अपना काम निष्पक्ष और बिना किसी डर के कर सकें, लेकिन उन्होंने न्यायिक जबावदेही से ही अपना मुंह मोड़ लिया। जिसका नतीजा यह निकला कि न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार का घुन लगता चला गया। न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और गरिमा बची रहे, इसके लिए अब इसमें और सुधार की आवश्यकता है। सर्वोच्च अदालत के कथन के बाद तो, इन सुधारों की जरूरत और भी ज्यादा महसूस की जाने लगी है। सरकार को एक न्यायिक आयोग की कायमगी में अब बिल्कुल भी देर नहीं करनी चाहिए, जो न सिर्फ न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बिना प्रभावित किए उस पर लगे इल्जामों का फौरन संज्ञान ले, बल्कि एक तय समय सीमा में कार्रवाई की सिफारिश भी करे। उम्मीद है, सरकार इस दिशा में जल्द ही कोई प्रभावी कदम उठाएगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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