अदालत के प्रति निष्ठा इसीलिए है कि वह किसी की पक्षधर नहीं है.
सर्वोच्च न्यायालय ने 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के संबंध में दायर की गई जनहित याचिका पर यह निर्णय किया है कि मामले की जांच सीबीआई करेगी, लेकिन न्यायालय इसकी निगरानी करेगा। इसके दायरे में वर्ष 2001 से 2008 तक की अवधि के सभी निर्णय और कार्यविधियां होंगी। सरकारी खजाने को कितना नुकसान हुआ है, यह भी जांच का विषय होगा। इस पर भाजपा ने संतुष्टि व्यक्त की है। कांग्रेस सरकार भी इसलिए संतुष्ट है कि समस्त प्रकरणों की जांच इसमें समाहित हो गई है। इससे विपक्ष का जेपीसी (संयुक्त संसदीय समिति) द्वारा जांच का आग्रह कमजोर हो जाएगा। हालांकि इस मामले में फिलहाल भाजपा के बीच ही घमासान मचा हुआ है और जेपीसी के पक्ष में सुषमा स्वराज, तो पीएसी के पक्ष में मुरली मनोहर जोशी मजबूती से खड़े हैं।
दूरसंचार घोटाला भारतीय राजनीति का एक ऐसा निर्णायक तत्व बन गया है, जिसे लेकर सत्ता और विपक्ष की पैंतरेबाजी का अर्थ यही लगाया जा रहा है कि इस मुद्दे पर सरकार को कितना घेरा या बचाया जा सकता है। सरकार चाहती है कि इस जांच को असीमित अधिकार और विशेषाधिकार वाली जेपीसी के लपेटे में आने से कैसे बचाया जाए, क्योंकि तब जांच से राजनीति को अलग नहीं किया जा सकेगा। इस संबंध में संचार मंत्रालय ने सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश को जांच का काम सौंप रखा है, और नियंत्रक और महालेखा परीक्षक पहले ही अपनी रिपोर्ट दे चुके हैं। सीबीआई की प्रारंभिक रिपोर्ट भी 10 फरवरी तक आनी है। इससे यह सवाल पैदा हो सकता है कि यदि इनमें विसंगतियां हों, तो प्रामाणिक किसे माना जाएगा। अंतत: यदि दंड के लिए किसी कार्रवाई की आवश्यकता हो, तो वह पुलिस या सीबीआई जांच से ही पूरी हो सकती है, क्योंकि कार्यपालिका द्वारा पुलिस को ही अपराधों की जांच एजेंसी बनाया गया है और केंद्रीय जांच ब्यूरो भी इस अधिकार से आच्छादित है।
परिपाटी यह है कि पुलिस हस्तक्षेप वाले तमाम मामलों में राज्य ही प्रथम पक्ष होता है। इसके पीछे आशय यह है कि उसके द्वारा बनाए गए नियम-कानूनों का जिन लोगों ने उल्लंघन किया है, उन्हें न्यायालय द्वारा दंडित करवाया जाए। इस प्रकार अभियोक्ता, अभियुक्त और न्यायालय इसके तीन अंग हैं, लेकिन न्यायालय को पक्ष स्वीकार नहीं किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय यदि केंद्रीय जांच ब्यूरो की जांच की निगरानी करेगा, तो क्या वह न्यायिक कार्य होगा, क्योंकि न्यायपालिका का काम किसी को दंडित या मुक्त करना नहीं, बल्कि न्याय करना है। न्यायपालिका के प्रति अपरिमित विश्वास का मुख्य कारण यह है कि वह मुकदमे में किसी की पक्षधर नहीं है, न्याय का पक्ष ही उसका अपना पक्ष है। यह बात संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में भी आती है कि कहीं न्यायिक और प्रशासनिक अधिकार एक ही व्यक्ति या संस्थान में समाहित न हों। इसीलिए संविधान के अनुच्छेद 50 के अंतर्गत न्यायपालिका और कार्यपालिका का विभाजन किया गया है।
अब प्रश्न है कि किसी मामले में होने वाली जांच की निगरानी न्यायिक कार्य है या प्रशासनिक। यदि यह निगरानी न्यायपालिका करने लगेगी, तो फिर पीड़ित पक्ष न्याय के लिए कहां जाएगा, क्योंकि वह तो न्यायपालिका को ‘प्रभु’ मानता है, पुलिस का दरोगा और कप्तान नहीं। अपराध प्रक्रिया संहिता में भी किसी मामले की जांच की निगरानी संबद्ध पुलिस अधिकारी ही करता है। वही आरोप पत्र या अंतिम रिपोर्ट लगाने के कागज पर दस्तखत कर अदालतों को भेजता है। इसके साथ अभियुक्त को पक्ष के रूप में यह अधिकार है कि वह न्यायपालिका को जांच की विसंगतियों से अवगत कराए और उससे मांग करे कि दोषपूर्ण जांच पर नए सिरे से जांच का आदेश दिया जाए या किसी प्रश्न पर अभियोजन की ओर से स्पष्टीकरण प्राप्त कर लिया जाए।
ऐसे में यदि अभियोजक पर न्यायपालिका का नियंत्रण हो जाएगा और वह इसकी निगरानी भी करेगा, तो क्या इससे उसकी निष्पक्षता के संबंध में सवाल नहीं उठेगा? क्योंकि वही पुन: निर्णय करने के लिए बैठ जाए, तो सवाल उठेगा कि ‘मी लॉर्ड, आप कैसे’। इसी तरह जहां तक सरकार के निर्णयों का संबंध है, विचारणीय विषय केवल इतना ही हो सकता है कि यह नियम और विधि सम्मत है या नहीं, कहीं संविधान की मान्यताओं का निरादर तो नहीं हुआ है। इसके अतिरिक्त सरकार को यह अधिकार है कि वह अपनी नीति बनाए, चलाए और प्रकाशित-प्रसारित करके उसे जनता को बताए, लोकतंत्र में जिसके प्रति उसकी जवाबदेही है। इस प्रकार न्यायपालिका को सरकार की नीति बनाने का अधिकार नहीं है, यह काम तो जनप्रतिनिधियों का है। इसीलिए जब सरकारी गोदामों में खाद्यान्न सड़ने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उसे गरीबों में बांट देने के लिए कहा, तो प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कह दिया कि यह आपका विषय नहीं है, इस पर तो निर्णय सरकार ही करेगी। इस प्रकार नीति संबंधी प्रश्न सरकार के विचार और निर्णय परिधि से बाहर नहीं किए जा सकते। वह संविधान की मर्यादाओं, भावनाओं और प्रावधानों के अनुकूल हो, केवल इतना ही प्रश्न है, जो न्यायालय के समक्ष विचार के लिए जनहित वाद द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। लेकिन लगता है कि न्यायपालिका इस मामले में मीडिया के प्रभाव में आ गई है, इसीलिए अति उत्साह में उसने इस मामले की निगरानी का दायित्व भी संभालने की घोषणा कर दी है। न्यायपालिका को तो यह अधिकार था कि सीबीआई ने कहां-कहां, किस प्रकार चूक और गलतियां कीं, उसे दुरुस्त करने को कहे।
No comments:
Post a Comment