Wednesday, December 29, 2010

मृत्युदंड का विरोध क्यों

बीते दिनों 192 सदस्य देशों वाली संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मृत्युदंड पर रोक लगाने संबंधी प्रस्ताव को 41 के मुकाबले 109 मतों से पारित कर दिया। गौरतलब है कि 35 देश मतदान के दौरान गैर हाजिर रहे। भले ही इस बार मृत्युदंड पर रोक लगाने संबंधी प्रस्ताव के समर्थन में कुछ और देशों के जुड़ने से प्रस्तावक देश अपनी जीत मान लें, लेकिन महासभा की सभी देशों से इसे खत्म करने की अपील के बावजूद यह किसी देश के लिए बाध्यकारी नहीं है।
प्रस्ताव के पक्षधर देशों द्वारा तर्क दिया जाता है कि मौत की सजा मानवीय गरिमा को घटाने वाली है और चूंकि इसके कोई साक्ष्य नहीं मिलते कि यह अपराध रोकने में कारगर है, इसलिए इसे समाप्त किया जाना चाहिए।
हमारे देश में भी पिछले पांच वर्षों से मृत्युदंड के औचित्य को लेकर बहस जारी है। अफजल को मृत्युदंड सुनाए जाने के बाद से यह मुद्दा गरम है कि मानवाधिकार का हनन करने वाले इस अमानवीय कानून को खत्म किया जाना चाहिए। तीन वर्ष पूर्व देश में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कुछेक मानवाधिकारवादी संगठनों व स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ जन-जागृति व हस्ताक्षर अभियान भी चलाया था, ताकि सरकार पर दबाव बनाया जा सके। उनका तर्क था कि जब अमेरिका के कुछ राज्य समेत दुनिया के 129 देश इसे खत्म कर चुके हैं, तो हमारे देश में भी इसे खत्म कर देना चाहिए। एक कड़वी सचाई यह भी है कि अकेले 2006 में ही 91 फीसदी मौत की सजाएं ईरान, इराक, पाकिस्तान, सूडान, चीन और अमेरिका में ही दी गई।
विचारणीय मुद्दा यह है कि क्या यह मांग न्यायसंगत है और यदि मृत्युदंड को खत्म कर दिया जाता है, तो उस दशा में अपराधी को क्या सजा दें और क्यों? जहां तक सरकार के दृष्टिकोण का सवाल है, वह पांच वर्ष पूर्व लिए निर्णय पर अडिग है और इसे खत्म करने के पक्ष में नहीं है। इस बारे में सरकार का नजरिया महत्वपूर्ण है कि जिस देश में प्रधानमंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री तक की हत्या कर दी जाए, आतंकवादी संसद पर हमला कर दें, वहां ऐसी सजा का होना बहुत जरूरी है।
मानवाधिकारवादी और फांसी की सजा के विरोधी सभ्य समाज के लिए इसे कलंक करार देते हैं, पर यह भी विचारणीय है कि जिसकी दृष्टि में मासूम अबोध बच्ची, अवयस्क बालिका, युवती, प्रौढ़ा और वृद्धा मात्र वासनापूर्ति का साधन हो और उसके बाद सुबूत मिटाने के लिए उसकी हत्या कर देता हो, जो पत्नी की दहेज खातिर या शंका के कारण या उससे पीछा छुड़ाने के लिए हत्या कर देता हो, जो अपने निकृष्ट उद्देश्य के लिए क्षण-भर में बम-विस्फोट कर सैकड़ों को मौत की नींद सुला देता हो और जिसके लिए आदमी की जिंदगी की कोई कीमत न हो, क्या ऐसा व्यक्ति सभ्य समाज का नागरिक कहलाने का अधिकारी है। सच तो यह है कि ऐसे व्यक्ति के लिए मौत की सजा से कम कुछ भी नहीं है। उस स्थिति में, जब देश बीते दो-ढाई दशकों से भी अधिक समय से आतंकवाद, जातिगत, नस्लीय, सांप्रदायिक, वर्गीय, नक्सली, पारिवारिक और यौन हिंसा के साथ-साथ भू सामंतों व राजनीतिक प्रभुत्व के स्थायित्व की खातिर की जाने वाली हिंसा से ग्रस्त हो, मौतों का ग्राफ साल-दर-साल बढ़ता जा रहा हो और यह आंकड़ा जब सालाना लगभग चालीस हजार पार कर गया हो, तो इसे मानवाधिकार हनन करने वाला कानून बताकर खत्म किए जाने की मांग क्या हत्यारों को बचाने का प्रयास नहीं है? फिर भी हमारे यहां बीते 25 वर्षों में मात्र 55 लोगों को ही मौत की सजा दी गई है, जो इसका प्रमाण है कि यह सजा हमारे देश में विशेष स्थितियों में अपवादस्वरूप ही दी जाती है।
फिर जिन देशों में मौत की सजा का प्रावधान नहीं है या वे इसे अमल में नहीं ला रहे, वहां इसके कोई प्रमाण नहीं मिलते कि इसके बाद वहां वीभत्स हत्याओं के ग्राफ में कोई कमी आई है। अमेरिका, जो समूची दुनिया में सबसे ज्यादा सभ्य व लोकतांत्रिक देश माना जाता है, वहां भी मृत्युदंड का प्रावधान है। सचाई यह है कि समाज की भलाई के लिए मौत का भय होना बेहद जरूरी है। संयुक्त राष्ट्र में इसके खिलाफ 41 देशों ने मतदान किया और 35 देश गैर हाजिर रहे, जो इस बात का प्रमाण है कि वे इसे खत्म करने के पक्ष में नहीं हैं। भविष्य में भले ही कुछ सार्थक परिणाम आने की उम्मीद है, लेकिन फिलहाल यह मामला अनसुलझा ही रहेगा। 

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