Thursday, January 6, 2011

35 साल बाद न्यायपालिका का भूल सुधार

सुप्रीम कोर्ट ने 35 साल बाद 1976 के अपने एक फैसले को भूल बताते हुए बेबाकी से यह स्वीकार किया कि आपातकाल के समर्थन में दिए गए उसके एक निर्णय के कारण देश में बड़ी संख्या में लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ। देश की शीर्ष अदालत ने हाल में अपने एक फैसले की सुनवाई के दौरान यह बात कही। इसके साथ ही अदालत ने रामदेव चौहान उर्फ राजनाथ चौहान की मौत की सजा को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया। न्यायमूर्ति आफताब आलम और अशोक कुमार गांगुली की पीठ ने एक फैसले में कहा कि आपातकाल के दौरान एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामले (1976) में पांच सदस्यों वाली संविधान पीठ द्वारा मौलिक अधिकारों को निलंबित रखने का बहुमत से लिया गया फैसला एक भूल थी। न्यायमूर्ति गांगुली ने कहा, इसमें कोई संदेह नहीं है कि एडीएम जबलपुर मामले में इस अदालत के बहुमत के फैसले से देश में बड़ी संख्या में लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ। न्यायमूर्ति गांगुली ने फैसले में लिखा, इस अदालत द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले फैसले भले ही विरल हों, लेकिन ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ऐसी स्थिति कभी नहीं आई। न्यायमूर्ति गांगुली के अनुसार हम अतिरिक्त जिलाधिकारी जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामले (1976) में अपनी अदालत के संविधान पीठ के बहुमत से लिए गए फैसले को याद कर सकते हैं। उन्होंने कहा,बहुमत का विचार था कि 27 जून 1975 को संविधान की धारा 359 (1) के तहत राष्ट्रपति के आदेश को देखते हुए किसी भी व्यक्ति को अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण या कोई व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित अन्य याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है जिसे मीसा के तहत हिरासत में लिया गया है। पीठ ने कहा कि चार और एक के अनुपात में लिए गए फैसले में न्यायमूर्ति खन्ना ने फैसले से सहमति नहीं जताई थी जिन्होंने कहा था, अनुच्छेद 226 की धारा 8 के तहत उच्च न्यायालय बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी कर सकते हैं और यह संविधान का अभिन्न हिस्सा है। न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा था, संविधान में किसी भी व्यक्ति को ऐसा अधिकार नहीं दिया गया है जो आपातकाल के दौरान बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में उच्च न्यायालय के रिट जारी करने की शक्ति को निलंबित कर सके। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने खन्ना मेमोरियल लेक्चर में पूर्व चीफ जस्टिस एमएन वेंकटचलैया के 25 फरवरी 2009 के व्याख्यान को याद किया जिसमें वेंकटचेलैया ने कहा था कि आपातकाल के दौरान बहुमत के फैसले को इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया जाए। वास्तव में खन्ना की असहमति ऐतिहासिक कानून तब बना जब 44वें संविधान संशोधन में अनुच्छेद 20 और 21 (व्यक्तिगत स्वतंत्रता) को आपातकाल के दौरान भी निलंबन के दायरे से बाहर रखा गया। न्यायमूर्ति आलम और गांगुली की पीठ ने सजायाफ्ता की दूसरी समीक्षा याचिका पर फैसला देते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग पर कोर्ट के पूर्व के फैसले को भी दरकिनार कर दिया। अदालत ने फैसले में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने किसी को मौत की सजा दे दी है तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को कोई अधिकार नहीं है कि वह राज्यपाल से मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदलने की अनुशंसा करे।

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