Thursday, July 28, 2011

संवैधानिक मूल्यों की स्थापना


सलवा जुडूम मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को विचारधारा और कानूनी तत्वों की कसौटी पर परख रहे हैं लेखक 
सलवा जुडूम मामले में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने विवादों का पिटारा खोल दिया है। इस फैसले का सामाजिक-आर्थिक नीतियों और संविधान द्वारा सत्ता की शक्ति संरचना के तीन महत्वपूर्ण अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की भूमिका पर महत्वपूर्ण असर पड़ेगा। इन मुद्दों पर गहन और निष्पक्ष दृष्टिकोण की जरूरत है, जो स्पष्ट और रचनात्मक रुख से ही संभव है। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि नक्सल-माओवादी विद्रोह का संबंध विद्यमान नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों से है। हमारे संवैधानिक मूल्य और दृष्टि इस बात की अनुमति नहीं देते कि विद्रोह को दबाने के लिए सलवा जुडूम और स्पेशल पुलिस ऑफिसर, जिन्हें कोया कमांडो के नाम से जाना जाता है, जैसे सशस्त्र नागरिक निगरानी समूहों का गठन किया जाए। इन संगठनों के सदस्य आदिवासी युवक हैं, जो निरक्षर हैं और उचित प्रशिक्षण व उपकरणों से वंचित हैं। इस फैसले से तीखे विवाद खड़े हो गए हैं। कुछ संगठनों ने इसे ऐतिहासिक और उचित फैसला बताया है तो इसके आलोचकों ने इसे गैरजरूरी न्यायिक दखलंदाजी करार देते हुए कहा है कि इससे जमीनी धरातल पर प्रमुख प्रशासकीय व्यवस्थाओं को ठेस पहुंची है। इस फैसले ने छत्तीसगढ़ सरकार को सकते में डाल दिया है। राज्य सरकार साढ़े छह हजार सदस्यों वाले सलवा जुडूम और कोया कमांडो संगठनों को नष्ट करके इनके सदस्यों से हथियार वापस लेने के काम में जुट गई है। यह खासा मुश्किल काम इसलिए है क्योंकि हताशा में सलवा जुडूम और कोया कमांडो नक्सलवादियों के हाथों मारे जा सकते हैं या फिर उनके साथ मिल सकते हैं, जिससे राज्य में विद्रोही गतिविधियों की आंधी शुरू हो जाएगी। सबसे तीखी आलोचना उन लोगों की तरफ से आई है जो इसे विचारधारा से प्रेरित फैसला बता रहे हैं। जोसेफ कोनार्ड नोवेला की रचना हर्ट ऑफ डार्कनेस का संदर्भ देकर सुप्रीम कोर्ट ने तमाम संदेहों को दूर कर दिया है कि उसकी सहानुभूति किनसे है और विचारधारा का झुकाव किसकी ओर है। इस उपन्यास में कोनार्ड ने वैश्विकरण के स्याह पक्ष को उजागर किया है। इसमें नव-उदारवाद के असीम स्वार्थ और लालच पर उंगली उठाई गई है। किंतु यह कहना गलत होगा कि इस सहानुभूति और विचारधारा के कारण सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम को असंवैधानिक करार दिया है। सलवा जुडूम और स्पेशल पुलिस ऑफिसरों पर आघात इसलिए किया गया है क्योंकि ये संविधान की धारा 14 और धारा 21 के प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं। ये संविधान प्रदत्त कानून के समक्ष समता और सार्थक व मर्यादित जीवन के मूल अधिकार का हनन करते हैं। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के दुष्प्रभावों और संवैधानिक कसौटी पर इनकी परख करते हुए सुप्रीम कोर्ट वस्तुत: तलवार की धार पर चला है। अदालत ने स्थापना दी है कि नक्सलवाद की क्रूर हिंसा की चुनौतियां के बावजूद प्रशासकीय जरूरत के नाम पर मूलभूत अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा कि गरीबों के बीच विद्वेष पैदा करना और ऐसी सामाजिक-आर्थिक नीतियां लागू करना जिनसे हिंसक राजनीति की स्थितियां उत्पन्न हों, संविधान में निषिद्ध हैं। नक्सली विद्रोह से निपटने के उपायों पर अदालत ने सही ही केंद्र सरकार की आलोचना की है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र ने स्पेशल पुलिस अधिकारियों/कोया कमांडो की नियुक्ति और उन्हें मिलने वाले मानदेय तक अपनी भूमिका सीमित रखी है। अदालत ने संविधान की धारा 355 के प्रावधानों की ओर ध्यान खींचा है। इसके अनुसार, प्रत्येक राज्य की बाहरी हमले और आंतरिक विद्रोह से सुरक्षा करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है। इससे स्पष्ट है कि विभिन्न राज्यों में विद्रोह और आतंकवाद से निपटने में केंद्र सरकार को ठोस व प्रभावी भूमिका निभानी होगी। हालांकि लगता है कि विद्रोह की जड़ों की तलाश में सुप्रीम कोर्ट एक मूल तथ्य की अनदेखी कर गया है। नक्सलवाद का संबंध नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण वंचित वर्ग के विस्तार से न होकर नकारवादी दर्शन से है। नक्सली विद्रोह तो नव-उदारवादी नीतियां लागू होने से काफी पहले पिछली सदी के छठे दशक में ही फूट पड़ा था। इसका लक्ष्य बंदूक की नोक पर सत्ता हथियाना था। अस्थायी कमजोरी के बाद 2004 में इसने जबरदस्त ताकत हासिल की, जब इसके बिखरे हुए गुटों ने सीपीआइ (माओवादी) के नाम से नया संगठन बनाया। माओवादियों ने घोषणा की-नई नीति दीर्घकालीन सशस्त्र विद्रोह की है, जिसका लक्ष्य भूमि, फसल या अन्य तात्कालिक लाभ की पूर्ति न होकर सत्ता हथियाना है। सालों से नक्सली-माओवादी भारतीय भूभाग को लहूलुहान कर रहे हैं। उन्होंने देश के 607 जिलों में से दो सौ में दखल बना लिया है। 2010 में उन्होंने 1003 लोगों की हत्या की। केवल छत्तीसगढ़ में ही 2004 से 2010 के बीच 2298 हमलों में 1064 ग्रामीण, 538 पुलिसकर्मी तथा अ‌र्द्धसैनिक बल, 169 स्पेशल पुलिस अधिकारी और 32 सरकारी कर्मचारी मारे गए। उन्होंने भारी मात्रा में अत्याधुनिक हथियार और संचार उपकरण जुटा लिए हैं। इससे भी त्रासद वे तौर-तरीके हैं, जिन्हें नक्सली अपना रहे हैं। अपने दर्शन के विपरीत वे वंचित तबके के लोगों को मौत के घाट उतार रहे हैं, जिनमें गरीब परिवारों के पुलिसकर्मी और ग्रामीण शामिल हैं। वे विकास न होने का रोना रोते हैं और विकास योजनाओं में बाधा खड़ी करते हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट ने नव-उदारवाद के दुष्प्रभावों के साथ-साथ माओवाद के इन भयावह पहलुओं पर भी टिप्पणी की होती, तो उसका फैसला न केवल सामाजिक-आर्थिक नीतियों से उपजे विकास आतंकवाद से लड़ने बल्कि विध्वंस और हिंसा की उन क्रूर शक्तियों से लड़ने में भी सहायक होता, जिन्होंने देश के बड़े भूभाग पर जीवन को भयावह, बर्बर और छोटा बना दिया है। फिलहाल तात्कालिक समस्या सलवा जुडूम और कोया कमांडो के सदस्यों के भविष्य को लेकर खड़ी हो गई है। अब इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि राज्य सरकार कुछ छूट देकर इन्हें नियमित पुलिस बल में समायोजित करे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खलबली मचा दी है। यह उन क्षेत्रों में भी दखल देता है जो कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्र में नजर आते हैं। किंतु टकराव और विवादों के ढेर में दबे संवैधानिक मूल्यों को उघाड़ने में इसके बहुमूल्य योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता। यह ऐसा फैसला है जो झटका देकर आपको सोचने को मजबूर करता है। (लेखक जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं).

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