Tuesday, April 5, 2011

जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका का एकाधिकार ठीक नहीं


 केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से कहा है कि शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के मामले में न्यायपालिका का एकाधिकार ठीक नहीं है। नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार की भी सुनी जानी चाहिए। सोमवार को सरकार ने शीर्ष न्यायालय से आग्रह किया कि वह 1993 के अपने उस फैसले पर पुनर्विचार करे, जिसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में कार्यपालिका की बजाय न्यायपालिका को तरजीह दी गई है। अटार्नी जनरल गुलाम ई वाहनवती ने अक्टूबर, 1993 के उक्त फैसले की समीक्षा के लिए गैर सरकारी संगठन सुराज इंडिया ट्रस्ट की याचिका का समर्थन किया। इस पर न्यायमूर्ति दीपक वर्मा और न्यायमूर्ति बीएस चौहान की पीठ ने इस मामले को मुख्य न्यायाधीश के पास भेज दिया। ताकि मुख्य न्यायाधीश यह तय करें कि क्या इस मामले को किसी उच्च पीठ को सौंपा जा सकता है। पीठ के समक्ष वाहनवती और वरिष्ठ वकील एके गांगुली न्याय मित्र के रूप में पेश हुए। दोनों ने सुराज इंडिया ट्रस्ट की इस दलील का समर्थन किया कि शीर्ष न्यायालय और उच्च न्यायालयों के जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका को पूर्ण अधिकार नहीं होना चाहिए। इसके बाद पीठ ने मामले को मुख्य न्यायाधीश के पास भेज दिया। वाहनवती ने कहा, उच्चतम न्यायालय के वर्ष 1993 के आदेश में स्पष्ट विसंगतियों के मद्देनजर नियुक्ति प्रक्रिया पर फिर से विचार होना चाहिए। इस आदेश में न्यायपालिका को न्यायाधीशों की नियुक्ति में प्रधानता दी गई है। उन्होंने शीर्ष अदालत को बताया कि सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में आवश्यक परिवर्तन के वास्ते संसद में विधेयक लाने की प्रक्रिया में है, लेकिन इसे लागू होने में अभी समय लगेगा। उन्होंने कहा, शीर्ष न्यायालय इस मामले को समीक्षा के लिए संविधान पीठ के पास भेज सकती है। 1993 के पूर्व जजों की नियुक्ति कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच विचार-विमर्श के बाद किया जाता था। लेकिन यह फैसला आने के बाद जजों की निुयक्ति के मामले में न्यायपालिका को एकाधिकार प्राप्त हो गया। भारत के मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई में गठित कॉलेजियम के जरिए ही जजों की नियुक्ति की जाती है। हाल में प्रधानमंत्री ने जजों की नियुक्ति से संबंधित कुछ नाम कॉलेजियम को सुझाए थे, लेकिन उनकी नहीं सुनी गई|

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