Thursday, April 21, 2011

नजीर कैसे बने भारतीय न्यायपालिका


लोकपाल और जन लोकपाल की संस्था स्थापित करने और उसे उच्च न्यायपालिका की नुक्ताचीनी का अधिकार देने-न देने की कश्मकश के बीच देश के मुख्य न्यायाधीश द्वारा लोकतंत्र की इस ढाल को उसका कर्तव्य याद दिलाकर उस पर पानी चढ़ाने की कोशिश स्वागत योग्य और समीचीन है। ऐसे मुकाम पर जब अन्ना हजारे जजों को लोकपाल की पकड़ से मुक्त रखने की वकालत करके ड्राफ्टिंग कमेटी के अपने साथियों से मतभिन्नता जता रहे हैं, देश के चीफ जस्टिस एसएच कपाडि़या ने काले परिधान के बावजूद न्यायपलिका की छवि बेदाग रखने वाले लोगों की जरूरत पर जोर दिया है। देश के सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी द्वारा अपने साथी न्यायाधीशों को उनके पद की गरिमा और शुचिता की रक्षा के महत्व की याद दिलाने से जजों द्वारा आचार संहिता के पालन की आवश्यकता फिर से रेखांकित हुई है। अपनी बिरादरी को उनकी मर्यादा की यह याद न्यायमूर्ति कपाडि़या ने प्रख्यात विधिवेत्ता एमसी सीतलवाड़ स्मारक व्याख्यान करते हुए हाल में ही दिलाई है। उन्होंने कहा कि जजों को ऐसी मिसाल पेश करनी चाहिए, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता बरकरार रहे, जजों का आचरण ऐसा हो कि कोई उन पर उंगली न उठा सके, वकीलों-नेताओं और राजनीतिक दलों से वे दूरी बरतें। उनके अनुसार न्यायमूर्तियों को निचली अदालतों के कामकाज में अनावश्यक दखलंदाजी से भी बचना चाहिए। जस्टिस कपाडि़या का यह भाषण एकदम सामयिक है। इसके तार हाल की उन अनेक घटनाओं से जुडे़ हैं, जिनमें न्यायपालिका पर या तो उंगली उठी है या उसकी निरपेक्षता पर आघात की कोशिश हुई है। ऐसा लगता है कि सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस अशोक कुमार गांगुली का सार्वजनिक तौर पर राजनीतिक दलों की कार्यशैली पर टिप्पणी करना जस्टिस कपाडि़या को रास नहीं आया। उसके बाद चले लांछन-प्रति लांछन के दौर से वह आहत हैं। निश्चित तौर पर न्यायपालिका की गरिमा को इससे ठेस पहुंची थी। उसके अगले दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जजों को अपनी गरिमा बनाए रखने की सलाह दी तो उससे एकबारगी लगा कि लोकतंत्र के दोनों स्तंभों में टकराव की नौबत न आ जाए। वह दौर न्यायपालिका की छवि की दृष्टि से आसान भी नहीं था। जजों की संपत्ति के ब्यौरे को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने के मसले पर चली न्यायिक कवायद और मिट्टी के मोल कई एकड़ जमीन खरीदने के आरोपों से घिरे जस्टिस दिनाकरण को गुपचुप सुप्रीमकोर्ट का न्यायाधीश बनाने की तैयारी, नजारत गबन कांड और एक के बाद सर्वोच्च न्यायिक पद पर रहते हुए तीन चीफ जस्टिसों की जन्मतिथि, पु़त्रमोह और संपत्ति तथा पक्षपात के आरोपों से घिरना आदि चंद ऐसी बदनुमा घटनाएं हैं, जो भारतीय न्यायपालिका के गौरवमय इतिहास में कलंक के तौर पर दर्ज हो गई हैं। जस्टिस कपाडि़या के भाषण में इन मसलों से घिरी न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बचाने की आतुरता है। उन्होंने जब यह कहा कि जज का काम कानून के दायरे में रहकर न्यायिक समीक्षा करना है तो इसका निहितार्थ शायद यही रहा होगा कि नेताओं जैसा व्यवहार करने से जज बाज आएं, राग-द्वेष से परे रहकर सिर्फ कानून की दृष्टि से सोचें, नेता या पुलिस की तर्ज पर व्यवहार करने की चाहत पर लगाम लगाएं। वह योर ऑनर हैं, तबादले कराने और परमिट दिलाने वाले आम इंसान नहीं! लोगों की जिंदगी का फैसला करने वाले ईश्वर की तरह विशिष्ट और निर्गुण-निराकार हैं। वह जन्म के नियामक भले न हों, पर न्याय की तराजू पर इंसान के कर्मो को तौलकर उसके भविष्य कभी-कभी तो उसकी मृत्यु का फैसला भी न्यायमूर्तियों को करना होता है। पिछले दिनों जजों के खिलाफ अदालतों में आई मुकदमों की बाढ़ और नागरिक समाज में छिड़े अभियानों की बाढ़ के लिए चीफ जस्टिस ने उन्हीं की मेलजोल की प्रवृत्ति को यह कहकर आडे़ हाथों लिया कि किसी समुदाय का हिस्सा बनने से जजों को परहेज रखना चाहिए। इन समुदायों के लोग जब अकसर पैरोकार के तौर पर अदालत में आने लगें तो इससे जजों और जुडिशरी की साख घटती है। कहीं उनका इशारा चंद ऐसे वकीलों से जजों के ताल्लुकात की तरफ तो नहीं था, जो जजों के खिलाफ मुखर हैं। जाहिर है कि न्यायपालिका के सख्ती से बंद दरवाजों की दरारों में से ही ऐसे तथ्य बाहर जाते होंगे। वैसे भी जब जन लोकपाल के मामले में पूरा देश जागा हुआ है तो जस्टिस कपाडि़या का यह बयान बेहद अहम है। उन्होंने कहा कि जजों को राजनेताओं, राजनीतिक दलों, वकीलों आदि से दूरी बरतनी चाहिए, बशर्ते कोई निहायत सामाजिक अवसर न हो। जस्टिस कपाडि़या के इस भाषण के संदर्भ में न्यायाधीशों के लिए आचार संहिता की जरूरत साफ तौर पर महसूस की जा सकती है, लेकिन आश्चर्य है कि ऐसी कोई ठोस आचार संहिता न्यायपालिका में मौजूद नहीं है। कुछ ऐसे नियम हैं, जिन पर उनसे चलने की उम्मीद की जाती है। दुनिया के अनेक लोकतांत्रिक देशों में जजों के लिए कमोबेश ऐसी ही अलिखित आचार संहिताएं है। जज कभी राजनीतिक कार्यक्रमों में नहीं जाते। सार्वजनिक टिप्पणी नहीं करते। प्रतिष्ठित जज तो सार्वजनिक कार्यक्रमों में ही नहीं, पारिवारिक कार्यक्रमों में भी बहुत सोच-समझकर शिरकत करते हैं। वह ऐसे किसी व्यक्ति के साथ फोटो नहीं खिंचवाते, जिससे वह बखूबी परिचित न हों या परिचय के बावजूद उन्हें यह लगे कि वह उनकी तस्वीर का अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इस्तेमाल नहीं करेगा। पार्टियों में नहीं जाते। क्लब नहीं जाते। लोगों से मेलजोल नहीं बढ़ाते। अब तो सुप्रीमकोर्ट जजों की संपत्ति के ब्यौरे में कंपनियों के शेयरों आदि का जिक्र है, पर कायदे से जजों को इससे भी परहेज रखना चाहिए। जजों से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने फैसलों के बारे में न बोलें, उनका तो फैसला ही बोलता है। न्यायिक बिरादरी में आज भी ऐसे जजों की कमी नहीं जो फीता काटने में विश्वास नहीं रखते। रिटायर होने पर आयोगों के अध्यक्ष बनकर जीवनभर सत्ता और बंगले का सुख लूटना जिन्हें पसंद नहीं है। सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को कभी गाड़ी और बंगला तक नहंीं मिलता था। पर अब उन्हें पहले किए गए आतिथ्य के लिए सत्कार भत्ते का एरियर लेने में भी संकोच नहीं होता। पद और आयोग का मोह न करने वाले जजों में उस दौर के काफी जज हैं। कहते हैं न कि अपनी इज्जत अपने हाथ। न्यायपालिका पर टिप्पणियों का जो सिलसिला इन दिनों बढ़ा है, उसकी वजह यही है कि जज धैर्य खोने लगे हैं। जस्टिस वी रामास्वामी पर महाभियोग नहीं हो पाया, पर दुनिया को तो यह अहसास हो ही गया कि जज भी हाड़-मांस के बने हुए हैं। उनमें भी वैसे ही लिप्सा है। न्यायपालिका की साख तो ऐसे ही गिरनी शुरू हुई। जजों के चाल-चरित्र और चेहरे पर विपरीत टिप्पणियां करने का चलन इसलिए बढ़ रहा है, क्योंकि ब्रिटेन से हमने न्यायपालिका का जो गौरवमयी मॉडल अपनाया था, वह अपनी आभा खो रहा है। पूरी दुनिया में भारतीय न्यायपालिका बेमिसाल रही है। सुप्रीमकोर्ट के किसी जज पर महाभियोग का इकलौता प्रस्ताव आना इसकी तसदीक भी करता है। पांच वर्ष पहले बांबे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एके भट्टाचार्जी ने किसी बड़े विदेशी प्रकाशन द्वारा छापी गई उनकी किताब के एवज में मोटी रॉयल्टी मिलने के सवाल पर पद छोड़ दिया था। जस्टिस भट्टाचार्जी का करियर बेदाग रहा था और वह बहुत आगे जाते, पर न्यायपालिका के ऊंचे मानदंडों की रक्षा की खातिर उन्होंने पद त्यागना बेहतर समझा। न्यायपालिका का इतिहास ऐसे किंवदंती से लगने वाले बेहिसाब किस्सों से पटा हुआ है। पहले न्यायिक दौरों पर जाने वाले जज आने-पैसे का हिसाब रखते थे और अब तो उनकी आवभगत और मेमसाब-बेबी जी के लिए खरीदारी मातहत जजों की ड्यूटी है। इन तुच्छ बातों से ही न्यायपालिका की इज्जत पर असर पड़ा है। ऐसे न्यायाधीशों की संख्या बढ़ गई है, जिनका न्यायपालिका के ऊंचे मानदंडों से सरोकार नहीं है। वह इसे अफसरी मानते है। उन्होंने बिसरा दिया है कि आदर्श जज का जीवन संत जैसा होना चाहिए। वह मनुष्य हैं, इस नाते उनके लिए जुडिशियल बिरादरी है। इसी से उन्हें परिवार और समाज का सुख मिलेगा। मनोरंजन भी यहीं ढूंढ़ना है। पर जज अपनी बिरादरी से बाहर निकलने को आतुर हैं। अस्सी के दशक में किसी ऑटोमोबाइल व्यापारी के महरौली फार्महाउस की एक पार्टी से शुरू हुई जजों की बदनामी आज चौराहे पर है। ऐसे में योर ऑनर न्याय के मंदिर पर उठती उंगलियों के निहितार्थ से लोकतंत्र की इस सबसे मजबूत ढाल को बचाने के लिए उस पर फिर से पानी चढ़ाने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। (लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं).

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