Monday, April 18, 2011

नागरिक समाज की जीत


लेखक विनायक सेन को जमानत दिए जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को न्यायपालिका की साख के लिए महत्वपूर्ण मान रहे हैं

सुप्रीम कोर्ट ने मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता व चिकित्सक विनायक सेन को जमानत देकर न्यायपालिका की लाज रख ली है, वर्ना जिस तरह छत्तीसगढ़ की एक निचली अदालत ने 24 अगस्त 2010 को विनायक सेन को देशद्रोही करार देते हुए उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी थी उससे न्यायपालिका की साख पर ही बट्टा लगा था और उसके खिलाफ देशभर में बेचैनी देखी गई थी। देश के नागरिक समाज ने रायपुर के सत्र न्यायालय के फैसले को न्यायिक अन्याय माना था और उसके विरुद्ध देशभर में विरोध प्रदर्शन किया था। कहने की जरूरत नहीं कि सुप्रीम कोर्ट का 15 अप्रैल 2011 का फैसला नागरिक समाज की जीत है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है, नक्सल साहित्य रखना देशद्रोह का सबूत नहीं है। भारत लोकतांत्रिक देश है और यहां कोई यदि नक्सलियों से सहानुभूति रखता है तो इसका यह मतलब नहीं कि वह देशद्रोह का दोषी है। यही बात देश का नागरिक समाज लगातार कह रहा था। विनायक सेन को जमानत देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से निश्चित ही न्यायपालिका की खोती साख को गिरने से बचाने में मदद मिलेगी। वैसे उसकी साख गिरने के कई कारण रहे हैं। उन्हीं में एक ठोस कारण रायपुर के सत्र न्यायालय का फैसला भी था। रायपुर के सत्र न्यायालय के पास एक भी ठोस साक्ष्य नहीं था जो यह साबित करता कि विनायक देशद्रोही हैं। चिट्ठी पहुंचाने या कम्युनिस्ट साहित्य रखने की बिना पर यदि लोगों को देशद्रोही करार दिया जाए तो सबसे पहले महाश्वेता देवी, अरुंधति राय, नामवर सिंह, मैनेजर पांडे जैसे लेखक और सभी वाम दलों के पोलित ब्यूरो के कई मशहूर सदस्य और पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व केरल के मुख्यमंत्री इसके आरोपी होंगे। क्या महज चिट्ठी पहुंचाने के जुर्म में क्या किसी को आजीवन जेल की सजा हो सकती है? यह सवाल देश के लोकतंत्रपसंद लोगों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को बेचैन किए हुए था। नागरिक समाज की बेचैनी की सबसे बड़ी वजह यह थी कि वह इससे पूरी तरह सहमत था कि विनायक सेन को षड्यंत्रपूर्वक फंसाया गया है। छत्तीसगढ़ की रमन सिंह की सरकार विनायक सेन से इसलिए चिढ़ी हुई थी, क्योंकि उन्होंने सलवा जुडूम का विरोध किया था। तो क्या विनायक द्वारा सलवा जुड़ूम अभियान के तहत 640 गांवों के आदिवासियों के विस्थापन का तीव्र प्रतिवाद किए जाने के कारण ही रमन सिंह की सरकार ने उन्हें झूठे मामलों में फंसाया? क्या विनायक की जनतांत्रिक आवाज को दबाने के लिए ही छत्तीसगढ़ सरकार ने माओवाद समर्थक होने का आरोप लगाते हुए 2007 में भी उन्हें गिरफ्तार किया था? तब दो साल साधारण कैदियों से भी बदतर स्थितियों में रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत मिलने पर ही विनायक की रिहाई हो पाई थी। 24 मई 2007 को गिरफ्तार किए गए विनायक पर मुकदमा सितंबर 2008 से चलना शुरू हुआ और सुप्रीम कोर्ट ने यदि उन्हें जमानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए तो छत्तीसगढ़ सरकार की योजना थी कि मुकदमे को कई साल चलाया जाए और विनायक जेल में ही पड़े रहें। सरकार की वह कोशिश तो पूरी नहीं हुई, किंतु दूसरी साजिश यानी निचली अदालत से सरकार के गठबंधन को अमली जामा पहनाने में वह सफल हो गई थी। विनायक उन चुनिंदा लोगों में शुमार हैं जिन्हें 140 देशों की ज्यूरी ने 2008 में स्वास्थ्य व मानवाधिकारों के लिए जोनेथम मन अवार्ड के लिए चुना था। विनायक सेन 25 वषरें से एक चिकित्सक की भूमिका के अलावा आदिवासियों को कुपोषण व गरीबी से मुक्त करने के लिए रचनात्मक कार्य कर रहे थे। वह पीयूसीएल के पदाधिकारी के नाते मानवाधिकारों के लिए लड़ रहे थे। उन्हें सोची-समझी साजिश के तहत रायपुर के सत्र न्यायालय द्वारा दंडित करने का मतलब लोकतांत्रिक स्वरों को चेतावनी देना भी था। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि विनायक ने कभी माओवादियों की हिंसा का समर्थन नहीं किया। नागरिक समाज भी माओवादियों की हिंसा या सरकारी हिंसा का कभी समर्थन नहीं करता। विनायक को जमानत मिलने के बाद नागरिक समाज को अब इस पर बहस करनी चाहिए कि माओवाद दमन के नाम पर जन सुरक्षा अधिनियम और गैरकानूनी निरोधक कानून की आड़ में भय और असुरक्षा का जो माहौल बनाया जा रहा है उसे कैसे खत्म किया जाए? कहने की जरूरत नहीं कि छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम 2005 और गैरकानूनी गतिविधि कानून अपने चरित्र में ही दमनकारी हैं। राज्य और माओवाद प्रभावित जनजातीय समूहों के बीच विभिन्न नागरिक संगठनों के माध्यम से तत्काल संवाद शुरू किए जाने की जरूरत है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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