Friday, April 29, 2011

कितना रंग लाएगी मुख्य न्यायाधीश की सलाह


मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि हमें काली पोशाक में ईमानदार व्यक्ति चाहिए, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता और ईमानदारी को बरकरार रखे। जजों को आत्मसंयम बनाए रखना चाहिए और वकीलों, राजनीतिक दलों, नेताओं से उनका संपर्क विशुद्ध रूप से सामाजिक अवसरों के सिवाय नहीं होना चाहिए..सद में न्यायिक मानक व जवाबदेही विधेयक पेश किया जा चुका है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों केविरुद्ध शिकायतों की जांच करने, समुचित कार्रवाई करने और न्यायाधीशों के लिए कोड ऑफ कंडक्ट यानी आचरण संहिता की व्याख्या शामिल है। उधर देश के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसएच कपाड़िया ने भी कोड ऑफ कंडक्ट का नाम लिए बिना न्यायाधीशों को आत्म नियंत्रण के सुझाव दिए हैं और कहा है कि जब कोई न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठता है तो उसे स्वयं कुछ पाबंदियां लगा लेनी चाहिए, न्यायाधीश का एकमात्र कर्तव्य समाज के प्रति जवाबदेही है, उसे रोजाना खुद से पूछना चाहिए कि उसने ऐसा कुछ तो नहीं कहा या किया, जो उसके पद की गरिमा के अनुकूल नहीं है। एक न्यायाधीश का काम अपनी मान्यता या प्राथिमकताओं को दरकिनार कर कानून के विश्लेषण से शुरू होना चाहिए और वहीं खत्म हो जाना चाहिए। न्यायाधीश को किसी ऐसे व्यक्ति का संरक्षण हासिल नहीं करना चाहिए, जिससे वह किसी विशेष मदद या सेवानिवृत्ति के बाद किसी पद की चाहत रखता है। इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। जब कभी आप किसी से कुछ पाने की इच्छा रखते हैं तो वह व्यक्ति भी इसके बदले कुछ हासिल करना चाहेगा। जिस तरह न्यायाधीश केसामने उसकेपरिवार का कोई सदस्य बहस केलिए उपस्थित होता है तो यह धारणा बनती है कि इससे न्यायपालिका का कामकाज प्रभावित हो सकता है। 

मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि हमें काली पोशाक में ईमानदार व्यक्ति चाहिए, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता और ईमानदारी को बरकरार रखे। जजों को आत्मसंयम बनाए रखना चाहिए और वकीलों, राजनीतिक दलों, नेताओं से उनका संपर्क विशुद्ध रूप से सामाजिक अवसरों के सिवाय नहीं होना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश ने अपना उदाहरण देते हुए कहा कि मैं घुलने-मिलने से बचता रहा हूं, यहां तक कि किसी गोल्फ क्लब की सदस्यता भी नहीं ली, क्योंकि इससे मुझे वकीलों व राजनेताओं आदि से रोज मिलना होगा, जिसका लोगों पर गलत असर पड़ेगा। मुख्य न्यायाधीश कपाड़िया का कहना है कि सामुदायिक संस्थानों में न्यायाधीशों की भागीदारी से भी गलत धारणा बनती है। जब उस संस्थान से जुड़े सदस्य उसी न्यायाधीश के सामने याचिकाकर्ता बनते हैं, न्यायायिक या सामाजिक क्षेत्र केलोगों से, जो भविष्य में याचिकाकर्ता बन सकते हैं, न्यायाधीश केमेलमिलाप से दूसरों के मन में न्याय केप्रति शंका पैदा हो सकती है। ऐसा सोचा जा सकता है कि न्यायाधीश अपने कर्तव्य को पूरा करने में इन लोगों को लाभ पहुंचा सकते हैं। ऐसे में न्यायाधीश की जिम्मेवारी बनती है कि वे निष्पक्ष और भयरहित होकर व अपने लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए स्वतंत्र न्याय को जिंदा रखें। एक न्यायाधीश को समाज से थोड़ी दूरी बनाकर रखने की कोशिश करनी चाहिए और उसे वकीलों, किसी व्यक्ति या राजनीतिक दल, उनकेनेताओं, मंत्रियों से संबंध नहीं बनाना चाहिए, जबतक कि वह कोई सामाजिक जलसा न हो। 

मुख्य न्यायाधीश ने कहा है कि अपना काम करते वक्त जजों को समाज को उपदेश नहीं देना चाहिए और विधायिका की बुद्धिमता का आकलन नहीं करना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश कहते हैं कि उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय सिद्धांतों की अदालतें हैं। जजों को मामले से जुड़े सिद्धांतों के अलावा किसी और विषय पर नहीं बोलना चाहिए। लेकिन समस्या यह है कि कभी-कभी न्यायाधीश अपने मूल्यों, अपनी पसंद और नापसंद को समाज पर थोप देते हैं। जबकि जजों को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि हमें संवैधानिक सिद्धांतों के लिए काम करना है। मुझे यह कहने का कोई अधिकार नहीं है कि दूसरों को क्या करना चाहिए, लेकिन मुझे संवैधानिक सिद्धांतों पर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना है। उन्होंने कहा कि मेरा मानना है कि अगर न्यायाधीश सिद्धांतों के आधार पर अपने फैसले करते हैं तो अनेक वर्तमान विवाद पैदा ही नहीं होंगे।

न्यायाधीशों को कोई भी महत्वपूर्ण फैसला सुनाने से पहले न्यायिक शक्तियों का ख्याल रखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को संविधान की मूल भावनाओं पर गौर करना चाहिए। कार्यपालिका से संबंधित कोई भी निर्णय देने से पहले उन्हें अपनी सामाजिक और आर्थिक मान्यताओं को दरकिनार कर देना चाहिए। कार्यपालिका का काम कानून लागू करना होता है। किसी कानून की जरूरत, उसे लागू करने के समय को लेकर हमें चिंतित नहीं होना चाहिए। किसी कानून की भावना के नाम पर न्यायपालिका को सुपर कार्यपालिका बनने से इनकार कर देना चाहिए। हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि संविधान में सभी धड़ों की शक्तियों का बंटवारा किया गया है। संसद और सरकार को किसी कानून के लिए जवाबदेह बनाया जा सकता है और मतदाता इसका फैसला करते हैं। जबकि कई जनहित याचिकाओं के जरिए अदालतें सरकार और अधिकारियों के लिए ऐसे मानक तय करती हैं, जो किसी कानून के दायरे से बाहर होता है। साथ ही अदालतों को कानून और गवर्नेस की बारीक रेखा की समझ होनी चाहिए। साथ ही अदालतों को यह भी देखना चाहिए कि ऐसे मामलों में कानूनी पहलू है या राजनीतिक पहलू। कानूनी पहलू होने पर ही अदालतों को हस्तक्षेप करना चाहिए। 

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