Saturday, January 8, 2011

क्यों उठते हैं न्यायिक व्यवस्था पर सवाल

न्यायालयों की कमी अब नासूर बन चुकी है, और उसने बहुत-सी नई बीमारियां खड़ी की हैं। पक्षकारों से लेकर न्यायाधीश तक यह मानने लगे हैं कि किसी भी अपराधी को उसके किए की सजा देना इस न्यायिक व्यवस्था में आसान नहीं है। फरियादी यह समझता है कि उसके कसूरवार को जितना परेशान कर सको, इस प्रक्ति्रया से ही कर लो। न्यायालय समझता है कि कुछ दिन जमानत नहीं होगी तो मुलजिम को अकल आ जाएगी। पुलिस या प्रशासन को किसी से निपटना होता है तो वह उस पर मुकदमा बना देती है। वह भी ऐसा कि जिसमें जमानत कई दिनों तक न हो सके। मुकदमा ऐसी चीज बन गया है, जो व्यक्ति को उसका मकसद पूरा करने में बाधा पैदा करता है। अधीनस्थ अदालत के न्यायाधीश जरा भी विवादित मामलों में ऐसी धारणा के शिकार होने लगे हैं कि हम तो सजा सुना देते हैं। यदि अभियुक्त को तकलीफ होगी तो अपील कर लेगा। वकीलों की जजों के मामले में इस तरह की धारणाएं आम हैं कि यह जज सजा देने की मानसिकता वाला है और दूसरा उदार, जो मुश्किल से ही किसी को सजा देता है। यह भी कि एक खास जज जमानत के मामले में उदार हैं और दूसरा बहुत सख्त। जितने भी लोग सरकार या व्यवस्था के विरुद्ध जनता के अधिकारों के संघर्ष में उतरते हैं, उनके साथ यही होने लगा है। इस तरह यह न्यायिक व्यवस्था न्याय देने के स्थान पर जनता को पीड़ा पहुंचाने और जन-अधिकारों की लड़ाई में बाधा खड़ी करने का औजार बनने लगी है। जब न्यायपालिका की स्थिति यह बना दी गई हो तो वह किसी भी भांति चाहते हुए भी निष्पक्ष नहीं रह सकती। ऐसे में यह सवाल उठाना बेमानी है कि लोकतंत्र में रहना है तो न्यायिक प्रक्रिया को मानना होगा और न्यायिक निर्णयों की आलोचना नहीं होनी चाहिए। आज बिनायक सेन मामले के माध्यम से ये सवाल उठ रहे हैं, लेकिन वहां लोग मनोगत आधार पर दो खेमों में बंटे हैं। एक वे, जो बिनायक को नक्सलियों का सहायक मानते हैं और दूसरे वे जो उन्हें वास्तविक जन-कार्यकर्ता मानते हैं। दोनों के तर्क एक-दूसरे के विरोधी हैं। यदि पुलिस अन्वेषण साफ सुथरा होता, स्पष्ट और निष्पक्ष साक्ष्य होते और शीघ्रता से और न्याय के सभी मानदंडों पर खरी उतरने वाली प्रक्ति्रया होती तो शायद ऐसे सवाल नहीं उठते। पर न्याय व्यवस्था को सुधार की ओर आगे बढ़ाने की मानसिकता ही हमारी संसद, विधायिका और सरकारों में दिखाई न पड़ती हो तो ये सवाल तो उठेंगे ही।


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