विवेकाधीन शक्तियों के दुरुपयोग पर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के साथ-साथ न्यायपालिका को भी आड़े हाथ लिया। कोर्ट ने माना है कि इस मामले में न्यायपालिका भी दूध की धुली नहीं है। कोर्ट मध्य प्रदेश सरकार द्वारा भोपाल में कुशाभाई ठाकरे ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट को 2006 में भोपाल स्थित बेशकीमती 39 एकड़ भूमि आवंटन के खिलाफ दायर जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा था। कोर्ट ने इस मामले में अधिकारियों के रवैए से भी नाराजगी जताते हुए सरकार को निर्देश दिया कि जमीन ट्रस्ट को सौंपे जाने से पहले इससे जुड़े सभी जरूरी दस्तावेज पेश किए जाएं। शीर्ष न्यायालय का कहना था कि शक्तियों के दुरुपयोग की बदतर स्थिति संभवत: आपातकाल के दौरान हुई, जब न्यायपालिका ने सरकार के कई गैरकानूनी कदमों पर अपनी मुहर लगाई थी। जिसमें 1976 में मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के फैसले को पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने बरकरार रखना शामिल था। विवेकाधीन शक्तियों के दुरुपयोग के बाबत न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति अशोक कुमार गांगुली की पीठ की टिप्पणी थी, हां, बदतर यहां से (शीर्ष न्यायालय) हुआ। इसकी शुरुआत सत्तर के दशक में हुई। ..वर्ष 1976 में और एक बार फिर 1986 में मारूति उद्योग का विवेकाधीन आवंटन राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और यहां तक कि न्यायाधीशों को भी हुआ और इसे फैसले में बरकरार रखा गया। पीठ ने यह टिप्पणी तब की, जब वरिष्ठ अधिवक्ता रविशंकर प्रसाद ने दलील दी कि सुप्रीम कोर्ट सहित सभी लोकतांत्रिक संस्थानों के मूल्यों में पतन हुआ है। जब पीठ ने सरकारी अधिकारियों द्वारा विवेकाधीन अधिकारों का दुरुपयोग करने पर नाराजगी जाहिर की।
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