Friday, January 21, 2011

अदालती कार्यशैली


हम कोटा के वकील पिछले दिनों हड़ताल पर थे। लगभग डेढ़ माह के बाद कचहरी में काम आरंभ हुआ। एक बार जब कोई नियमित गतिविधि को लंबा विराम लगता है तो उसे फिर से नियमितता प्राप्त करने में समय लगता है। काम फिर से गति पकड़ने लगा था कि एक वरिष्ठ वकील के देहांत के कारण फिर से काम की गति अवरुद्ध हुई। दोपहर बाद अदालत के कामों से फुरसत पा कर निकला ही था कि एक वकील मुझे मिल गए। दो मिनट के लिए बात हुई। कहने लगे मुश्किल से अदालती काम गति पकड़ने लगा था कि आज फिर से बाधा आ गई। मैंने भी उनसे सहमति जताई और कहा कि यदि कोई बाधा न हुई तो इस सप्ताह के अंत तक अदालतों का काम अपनी सामान्य गति पा लेगा। उन्होंने कहा कि वह जिला जज के सामने एक मुकदमे में बहस के लिए उपस्थित हुए थे, लेकिन खुद जज साहब ने बहस सुनने से मना कर दिया और कहा कि आज तो शोकसभा हो गई है बहस तो नहीं सुनेंगे। दूसरे काम निपटाएंगे। बात निकली थी तो मैंने उन्हें पूछा कि एक अदालत के पास मुकदमे कितने होने चाहिए? उन्होंने कहा कि एक दिन की कार्य सूची में एक अदालत के पास दस दीवानी और दस फौजदारी मुकदमे ही होने चाहिए, तभी साफ सुथरा काम संभव है। मुझे अपने सवाल का पूरा उत्तर नहीं मिला था। मैंने तुरंत सवाल दागा एक मुकदमे में दो सुनवाइयों के बीच कितना अंतर होना चाहिए? उनका उत्तर था कि हर मुकदमे में हर माह कम से कम एक सुनवाई तो अवश्य ही होनी चाहिए। मैंने तुरंत ही हिसाब लगाकर बताया कि माह में बीस दिन अदालतों में काम होता है। इस तरह तो एक अदालत के पास कम से कम चार सौ और अधिक से अधिक पांच सौ मुकदमे होने चाहिए तभी ऐसा संभव है। आज हालत यह है कि एक-एक अदालत के पास चार-चार, पांच-पांच हजार मुकदमे लंबित हैं। वकील का कहना था कि इसी कारण से तो न्यायालय इतनी जल्दबाजी में होते हैं कि पूरी बात को सुनते तक नहीं। इससे न्याय पर प्रभाव पड़ रहा है। अदालतें सिर्फ आंकड़े बनाने में लगी हैं, न्याय ठीक से नहीं हो पा रहा है। होता भी है तो कोई उससे संतुष्ट नहीं है। लोगों को लगता है कि उनके साथ न्याय नहीं हो रहा है, जबकि एक सिद्धांत यह भी है कि न्याय होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। अब आप ही सोचिए कि जब अदालतों के पास उनकी सामान्य क्षमता से पांच से दस गुना अधिक काम होगा तो वह किस तरह कर सकती हैं? इस लाचारी की उत्पत्ति सरकारों के कारण है जो पर्याप्त अदालतें स्थापित नहीं कर सकी हैं। (अनवरत ब्लॉग में जमील अहमद)


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