लेखक भारतीय न्यायपालिका में पनपते भ्रष्टाचार के विविध रूपों को उजागर कर रहे हैं….
बिहार में एक दिलचस्प जिला जज थे। वह मुकदमों की निष्पक्ष सुनवाई करते थे तथा वही फैसला देते थे जो न्यायोचित और साक्ष्य-आधारित हो। किंतु फैसला सुनाने से पहले जीतने वाले को संदेश भिजवा कर उससे दक्षिणा वसूल करते थे। हारने वाला कुछ नहीं कर सकता था, क्योंकि फैसला वस्तुत: विधि-अनुरूप होने के कारण ऊंची अदालत उसे निरस्त नहीं करती थी। यह जज साहब के भ्रष्टाचार का ऐसा अनोखा रूप था जिसे साबित करना कठिन था। आज उच्चतर न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के कुछ और अनोखे रूप सामने आ रहे हैं। इन्हें पहचाना तो जा सकता है, पर साबित नहीं किया जा सकता। जैसे, किसी बड़े न्यायाधीश की संतान या संबंधियों का एकाएक बहुत धनी हो जाना अथवा महत्वपूर्ण पदों के लिए चुन लिया जाना। किसी सर्वोच्च न्यायाधीश द्वारा अधीनस्थ न्यायालय के पत्र या शिकायत को अनदेखा कर देना। किसी मुकदमे को जानबूझ कर लंबित रखना अथवा विशेष रुचि लेकर जल्द निपटाना। इसी क्रम में कार्यपालिका के महत्वपूर्ण व्यक्ति द्वारा किसी न्यायाधीश को प्रभावित करने की बात भी है। इसमें बिना किसी लेन-देन के भी बड़ी गड़बड़ी की जा सकती है। उदाहरण के लिए, किसी महत्वपूर्ण अर्द्ध-न्यायिक पद को महीनों भरा नहीं जाता। अब यह प्रमाणित करना संभव नहीं है कि यह किसी मित्र न्यायाधीश को कार्य-मुक्त होने पर देने के लिए जानबूझ कर बचा कर रखा गया है या काम के दबाव में अभी तक भरा नहीं जा सका है। किंतु काफी समय से ऐसा हो रहा है, जो न्याय को निस्संदेह प्रभावित कर रहा है। न्यायिक उच्च गलियारों में पहले से चर्चा होने लगती है कि अमुक आयोग की कुर्सी अमुक मूर्ति के लिए बचा कर रखी जा रही है। किसी विशेष व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण पद को खाली रखा जाना लोकहित की बात भी हो सकती है और किसी गुप्त अहसान का पुरस्कार भी। किंतु संबंधित लोग अनुमान लगा लेते हैं कि किसी विशेष को ही पुरस्कृत करने में किसी विशेष का क्या उद्देश्य है। यह ठीक है कि चतुर राजनेताओं द्वारा न्यायपालिका में इस प्रकार सेंध लगाने का कोई ठोस प्रमाण नहीं दिया जा सकता, किंतु न्याय प्रक्रिया में पारिस्थितिक प्रमाण भी महत्व रखता है। पिछले वषरें में तरह-तरह के स्थायी और अस्थायी आयोगों में नियुक्त पूर्व न्यायाधीशों के विचित्र, विवादाग्रस्त कायरें से इसका पर्याप्त संकेत मिल चुका है। कुछ न्यायपाल थोड़ा-बहुत लाभ पाने के लिए स्वार्थी नेताओं की इच्छित मदद करने के लिए तैयार रहते हैं। एक पूर्व रेलमंत्री द्वारा बनाए गए गोधरा जांच आयोग के विलक्षण निष्कर्ष ने इसे हास्यास्पद और दुखद रूप से दर्शाया था। अभी-अभी आयकर न्यायाधिकरण द्वारा बोफोर्स मामले पर किए नए रहस्योद्घाटन से साफ है कि क्यों बड़े सत्ताधारी खास पदों पर मित्रवत या दुर्बल व्यक्तियों को रखने की आदत बना रहे हैं। किंतु इसी से न्यायिक भ्रष्टाचार के ऐसे रूपों का संकेत मिलता है जिन्हें समझा तो जा सकता है, किंतु रोकने में केवल कानून समर्थ नहीं हो सकता। कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियां संविधान में इसीलिए अलग-अलग रखी गई हैं, ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर कार्यपालकों का नियंत्रण या प्रभाव न पड़े। किंतु यदि कुछ कार्यपालक और न्यायपालक अपनी-अपनी दुर्बलताओं की संतुष्टि के लिए मिलीभगत करने लगें, तब संविधान असहाय हो जाता है। नियम, कानून और संरचनाएं कितनी भी अच्छी हों, उनका क्रियान्वयन व्यक्ति ही करता है। यदि किसी पदधारी में अपेक्षित चारित्रिक गुण न हों तो नियम धरे रह जाते हैं। हमारी न्यायपालिका पर आंतरिक प्रहार केवल राजनेताओं द्वारा ही नहीं, देशी-विदेशी गैरसरकारी संस्थाओं द्वारा भी हो रहा है। जुलाई 2007 में नर्मदा बचाओ संबंधी किसी मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के बाद अमेरिका के इंटरनेशनल रिवर नेटवर्क के प्रमुख पैट्रिक मैक्कली ने मेधा पाटकर को पत्र लिख कर उस न्यायाधीश को किसी न किसी तरह पुरस्कृत करने की इच्छा जताई थी। उसमें यह उल्लेख भी था कि वह न्यायाधीश बाद की लड़ाइयों में भी उपयोगी हो सकता है। यह भी भ्रष्टाचार का ही एक रूप है। आज कई विदेश-संचालित एन.जी.ओ. हमारे उच्च-पदस्थ लोगों से किसी न किसी बहाने लाभकारी संपर्क बना रहे हैं। यह अकारण नहीं कि उच्च स्थानों से सेवानिवृत्त हुए कुछ विशेष लोग तुरंत किन्हीं विदेशी संस्थाओं के वेतनभोगी या अवैतनिक सलाहकार बन जाते हैं। उनके पूर्व पद की वजह से महत्वपूर्ण स्थानों पर अपेक्षित निर्णय करवाना आसान हो जाता है। विशेषकर विदेशी चर्च-मिशनरी प्रायोजित संस्थाएं यहां अपनी परियोजनाओं में वर्तमान और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, प्रशासनिक अधिकारियों आदि को जोड़ने का प्रयत्न कर रही हैं। वस्तुत: भ्रष्टाचार की समझ को बहुत संकुचित कर दिया गया है। केवल अवैध रूप से पैसे के लेन-देन को ही भ्रष्टाचार कहा जाता है, किंतु देश के लिए निर्णायक, संवैधानिक तथा विशिष्ट महत्व के पदों के लिए भ्रष्टाचार की परिभाषा इतनी सीमित नहीं रहनी चाहिए। बड़े पदों पर रहकर जानबूझ कर बुरे या गलत निर्णय लेना, जिम्मेदारी के पदों पर अक्षम लोगों की नियुक्ति कराना, राजनीतिक या अन्य कारणों से काम में पक्षपात, सार्वजनिक हित से ऊपर निजी या पार्टी हित को रखना आदि भी भ्रष्टाचार के ही रूप हैं। इनसे देश और समाज की भारी हानि होती है। जिस न्यायपालिका पर देश के संविधान के पालन का भार हो, यदि वहीं न्यायेतर कारणों से निर्णय होने लगें तो यह पूरी व्यवस्था चरमराने जैसी बात होगी। न्यायपालकों को न केवल निष्पक्ष रहना चाहिए, बल्कि ऐसा दिखना भी चाहिए। जिस तरह अब जहां-तहां उच्चतर न्यायाधीशों के विरुद्ध आवाज उठने लगी है, उससे स्पष्ट है कि पानी सिर के ऊपर जाने लगा है। अभी सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और बड़े विधिवेत्ता ने एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध आरोप लगाए हैं, जो अभी एक महत्वपूर्ण अर्द्ध-न्यायिक आयोग के अध्यक्ष हैं। उन पर पहले भी आरोप लगते रहे हैं। अब उस आयोग के कार्य पर किसी को कैसे भरोसा होगा? इससे पहले कि उच्च न्यायपालकों से लोगों का विश्वास उठ जाए, दृढ़ कदम उठाए जाने चाहिए। इक्का-दुक्का बड़े लोगों के निजी स्वार्थ में पूरी राजनीतिक प्रणाली को कमजोर होने देना अंतत: सबके लिए घातक होगा। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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