Saturday, January 15, 2011

जनमानस के भरोसे का सवाल

भारत की गौरवमयी न्यायपालिका के लिए काला समय है। चंद महीनों पहले देश के प्रधान न्यायाधीश पद से रिटायर होकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बने जस्टिस केजी बालकृष्णन पर फिर उंगली उठी है। वैसे जस्टिस बालकृष्णन का दामन पहले से ही कम दागदार नहीं था। वह जबसे चीफ जस्टिस बने हैं, छिटपुट सुगबुगाहटें चलती ही रही हैं। पर पिछले सालभर में उन पर जैसे आरोप लगे हैं, उनमें न्यायपालिका का पुराना समय होता (अव्वल तो यह नौबत ही नहीं आती) तो जज इस्तीफा दे देते। पिछले एक साल में उन पर यह तीसरा गंभीर आरोप है। इनमें से बाद के दो आरोप तो हाल में लगे हंै। पहले उन पर कर्नाटक हाईकोर्ट के जस्टिस दिनकरण के खिलाफ हुई शिकायतों को दरकिनार कर उन्हें सुप्रीमकोर्ट का जज बनवाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने और जजों की नियुक्ति की सिफारिश करने वाली कॉलेजियम को प्रभावित करने का आरोप लगा। इसके लिए उन्होंने दिनकरण के खिलाफ आर्थिक अनियमितताओं की शिकायतों की अनदेखी कर दी थी। फिर पिछले महीने वह 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के नायक राजा के खिलाफ मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस रघुपति की शिकायत को दबाने के मामले में शंका के घेरे में आए थे। तब सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस गोखले ने यह सनसनीखेज खुलासा कर सबको चौंका दिया था कि उन्होंने तत्कालीन केंद्रीय मंत्री ए राजा द्वारा मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस रघुपति को एक जमानत याचिका के फैसले के लिए फोन करने की शिकायत की थी। जस्टिस बालकृष्णन की सफाई का दौर थम पाए, इससे पहले वह अपने करीबी रिश्तेदारों की अचानक आर्थिक हैसियत बढ़ जाने के लिए विवाद से घिर गए हैं। इसे लेकर केरल के कोच्चि की एक निचली अदालत में बाकायदा एक निजी याचिका लाई गई है। इसमें उनके दामाद पीवी श्रीनिजन, एमजे बेनी और उनके बेटे प्रदीप व भाई केजी भास्करन की अनुपात से अधिक संपत्ति को शंका के दायरे में लेते हुए इसकी जांच कराने की मांग की गई है। श्रीनिजन केरल में युवक कांग्रेस के पदाधिकारी थे और कांग्रेस संगठन ने जैसे ही इस मामले की जांच कराने की घोषणा की, उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। श्रीनिजन 2006 में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार थे। उन्होंने तब निर्वाचन अधिकारी को जो हलफनामा दिया था, उसके मुताबिक उनके पास बैंक में सिर्फ 25 हजार रुपये थे और कोई जमीन जायदाद नहीं थी। आज कई शहरों में उनकी चल-अचल संपत्ति है। जस्टिस बालकृष्णन के भाई केजी भास्करन केरल में सरकारी वकील थे और उन्होंने भी अपनी सेहत ठीक न होने का हवाला देकर इस्तीफा दे दिया है। उनकी माली हालत में भी अचानक इजाफा सबकी नजर में है। इस दरम्यान अच्युतानंदन के नेतृत्व वाली केरल सरकार ने इस मामले की आयकर विभाग से जांच शुरू करवा दी है। दुनिया में अपनी निष्पक्षता और शुचिता के लिए मशहूर भारतीय न्यायपालिका के लिए इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण घड़ी नहीं हो सकती। यह दूसरा मौका है, जब देश की सर्वोच्च अदालत के शिखर पर रहे व्यक्ति की ऐसी छीछालेदर हो रही है। उनके पूर्ववर्ती चीफ जस्टिस वाईके सबरवाल पर भी अपने बेटों के व्यवसाय को फायदा पहुंचाने वाले फैसले देने के आरोप लगे थे। पहले जस्टिस आनंद भी अपनी जन्मतिथि में हेर-फेर के आरोप से घिरे थे। बहरहाल, परिवार के सदस्यों की यह आर्थिक तरक्की जस्टिस बालकृष्णन के लिए गले की फांस बन गई है। उन पर इस्तीफे के लिए चौतरफा दबाव पड़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट के नामी जज रहे जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने बाकायदा यह बयान जारी किया है कि जस्टिस बालकृष्णन को अपना पद छोड़ देना चाहिए। वैसे देश के सर्वोच्च न्यायिक पद को सुशोभित कर चुके बालकृष्णन के लिए अब पद और पैसे के मोह जैसी कोई बात नहीं रह गई है। फिर भी उनका इस तरह पद पर बने रहना भारतीय न्यायपालिका की गौरवमयी परंपरा के अनुकूल नहीं है। न्यायपालिका पर देशभर की सवा अरब जनता और कार्यपालिका तथा विधायिका की आस्था यों ही नहीं है। माना कि जज भी मनुष्य हैं और इस नाते राग-द्वेष, लिप्सा से परे नहीं हैं, पर भारतीय न्यायपालिका के इसी गौरवमयी इतिहास पर नजर डालें तो इसमें जजों को लॉर्ड यानी भगवान का दर्जा फिजूल में ही हासिल नहीं है। ईश्वर के बाद वही मनुष्य का भाग्यविधाता है। पिछले दिनों जिस तरह ऊंची अदालतों के जजों पर उंगलियां उठीं, उससे आम आदमी का विश्वास डगमगाने लगा है। भारतीय न्यायपालिका की निष्पक्षता की दुनिया में मिसाल दी जाती है। पूरी दुनिया में इसकी बड़ी इज्जत है। पिछले 62 वर्षो के संवैधानिक इतिहास में सुप्रीमकोर्ट के जज पर महाभियोग का इकलौता प्रस्ताव आना इसकी तसदीक भी करता है। सिर्फ जस्टिस बी रामास्वामी ऐसे जज हुए हैं, जिन्होंने इस्तीफा देने के बजाए महाभियोग का सामना करने की ठान ली थी। पर इस पर कोई फैसला होता, इससे पहले ही वह रिटायर हो गए। इसकी वजह शायद यही रही हो कि यदि वह उंगली उठते ही इस्तीफा दे देते तो शायद उन्हें रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले लाभ कम हो जाते। पांच वर्ष पहले बांबे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एके भट्टाचार्जी ने एक प्रतिष्ठित विदेशी प्रकाशन द्वारा छापी गई उनकी किताब के एवज में मोटी रॉयल्टी मिलने के सवाल पर पद छोड़ दिया था। जस्टिस भट्टाचार्जी का करियर बेदाग रहा था और वह बहुत आगे जाते पर न्यायपालिका के ऊंचे मानदंडों की रक्षा की खातिर उन्होंने पद त्यागना बेहतर समझा। राजस्थान हाईकोर्ट के एक जज पर किसी महिला डॉक्टर ने उंगली उठाई तो उन्होंने महाभियोग के विशेषाधिकार की दुहाई नहीं दी, इस्तीफा दे दिया। न्यायपालिका का इतिहास ऐसी किंवदंती से लगने वाले किस्सों से पटा पड़ा है, पर उनमें झांककर सीखने का जज्बा अब नहीं रहा। पहले न्यायिक दौरों पर जाने वाले बडे़ जज आने-पैसे का हिसाब रखते थे और अब तो उनकी आवभगत और मेमसाब, बेबी जी के लिए खरीददारी उन्हीं का ठेका है। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की श्रृंखला अकारण नहीं बनी है। पिछले चंद वर्षो में ऐसे न्यायाधीश बढ़ गए हैं, जिनका न्यायपालिका के ऊंचे मानदंडों से कोई लेना-देना नहीं है। वह इसे आम नौकरियों की तरह अफसरी मानते हैं। अपने किसी भी आचरण पर विचार नहीं करते। शायद अपने पद की अहमियत ही नहीं समझते। इसका सिरा इनकी पृष्ठभूमि नियुक्तियों वगैरह में है। उनके लिए विशेषाधिकारों की तो अहमियत है, पर दायित्व को वह तवज्जो नहीं देते। वह नहीं जानते कि आदर्श जज का जीवन संत जैसा होना चाहिए। उसका सिर्फ ज्यूडिशियल बिरादरी से ही ताल्लुक है। प्रभावशाली रिश्तेदारों से उसे दूरी बरतनी है और वकील संतानों, भाई-भतीजों को कोर्ट के आस-पास फटकने नहीं देना है। पर अब तो यही हो रहा है। अस्सी के दशक में एक ऑटोमोबाइल व्यापारी के फॉर्महाउस से शुरू हुई जजों की बदनामी आज चौराहे पर है। अब जरा देश के 37वें चीफ जस्टिस रहे केजी बालकृष्णन पर लौटें। वह देश के पहले दलित चीफ जस्टिस हुए हैं। उनका परिवार बेहद विपन्न परिस्थितियों में रहा है। हाईकोर्ट के जज बनने के बाद उनकी आर्थिक हालत बेहतर हुई। उन्हें बेहद काबिल जज माना जाता था, पर अपने चीफ जस्टिस पद पर रहने के दौरान दिल्ली के न्यायिक गलियारों में उनके बेटे प्रदीप की चर्चा रहती थी। चीफ जस्टिस के पद से रिटायरमेंट के दौरान उन्होंने कहा था कि भ्रष्ट जजों से निपटने का हमारे पास कोई फार्मूला नहीं है। जज आम सरकारी कर्मचारियों की तरह नहीं होते। यदि जज की निष्ठा शंका के घेरे में है तो हम उसे न तो रोक सकते हैं, न चेतावनी दे सकते हैं और न निलंबित कर सकते हैं। यह तो उसके करियर का अंत ही है। उन्होंने तब न्यायिक जवाबदेही विधेयक की भी बात की थी। जस्टिस बालकृष्णन ने सुप्रीमकोर्ट की वेबसाइट पर अपनी सिर्फ अचल संपत्ति का ब्यौरा दिया है। उन्होंने न तो शेयर में कोई निवेश किया है और न ही कोई फिक्स डिपॉजिट है। के संथानम् देश के बड़े कानूनविद हुए हैं। वह संविधान की प्रारूप समिति के सदस्य भी थे। उन्होंने जजों से संबंधित एक समिति की अध्यक्षता भी की थी। वह कहते थे कि अदालतें जनता के विश्वास पर चलती हैं और यह भरोसा डगमगाना नहीं चाहिए। फिलहाल तो यह भरोसा हिल गया है। देखते हैं कि जस्टिस बालकृष्णन की संपत्ति का मामला क्या रंग लाएगा, क्योंकि इसमें पूरी न्यायपालिका की प्रतिष्ठा दांव पर है। (लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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