Saturday, January 8, 2011

शिक्षा का अधिकार, मगर!

यूं तो सरकार ने शिक्षा के कानूनी अधिकार के क्रियान्वयन की दिशा में सार्थक पहल शुरू कर दी है लेकिन इससे जुड़े अनेक पहलू ऐसे हैं जिनमें विसंगतियों को दूर करना बाकी है। यदि इस दिशा में दूरदृष्टि अपनाते हुए दूरगामी परिणामों का आकलन समय रहते कर लिया जाए तो इस दिशा की तमाम आशंकाएं निर्मल सिद्ध हो सकती हैं। सरकार ने 6 से 14 वर्ष आयु तक के वंचित परिवारों के बच्चों को पब्लिक स्कूलों में 25 फीसदी स्थान देने का प्रावधान रखा है जिसका क्रियान्वयन वर्ष 2011-12 के सत्र में किया जाना है। कुछ पब्लिक स्कूलों ने इस दिशा में सार्थक शुरुआत भी कर दी है। सरकार का वायदा है कि वह सरकारी स्कूलों के अनुरूप इन बच्चों के शैक्षिक खर्च को वहन करेगी जबकि निजी स्कूलों को भी कुछ उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना होगा। यह उनकी जिम्मेदारी बनती है क्योंकि सरकार उन्हें सस्ती दरों पर भूखंड उपलब्ध कराती है तथा कई तरह के करों में छूट भी उपलब्ध कराती है। ऐसे में उन्हें इस सामाजिक दायित्व से अपना हाथ पीछे नहीं खींचना चाहिए। वास्तव में शिक्षा का अधिकार इस बात की भी वकालत करता है कि सरस्वती के मंदिरों को व्यापार-केंद्र न बनाया जाए बल्कि समाज के वंचितों को शिक्षा प्रदान करने के दायित्व का ईमानदारी से पालन किया जाए। संपन्न लोगों से अर्जित आय से यदि अभावग्रस्त समाज के बच्चों को पढऩे का मौका मिले तो सही मायनों में शैक्षणिक संस्थाओं के पवित्र उद्देश्यों की पूर्ति होती है। हालांकि, कुछ निजी शिक्षण संस्थाएं इस उद्देश्य के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखती हैं, लेकिन उन्हें अपने सामाजिक दायित्वों का भी निर्वहन करना चाहिए। इससे उनकी समाज में छवि सुधरेगी।
वास्तव में शिक्षा के अधिकार एक्ट को अमलीजामा पहनाने के लिए स्थानीय निकायों, समाज के जागरूक तबके तथा अभिभावकों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। कुछ स्कूलों ने इन प्रावधानों के क्रियान्वयन की दिशा में कुछ सकारात्मक कदम उठाए हैं लेकिन इसको लेकर कुछ शंकाएं हैं जिनका निराकरण बेहद जरूरी है। पहला, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि निर्धन परिवारों के बच्चे स्कूल छोड़कर न जा पाएं। यदि जाते हैं तो उनके लिए दी जाने वाली सरकारी राशि का बेहतर उपयोग कैसे होगा? यह भी जरूरी है कि निर्धन परिवारों के छात्रों के साथ किसी भी स्तर का भेदभाव न हो ताकि वे कुंठाग्रस्त न हो जाएं। वास्तव में उन्हें मानसिक रूप से आश्वस्त कराया जाना चाहिए कि विकास की दौड़ में पिछड़े लोगों को शिक्षा का अधिकार कानूनी है, खैरात नहीं है। बहुत संभव है कि परीक्षा-तंत्र में ये छात्र अपनी माली स्थिति तथा शैक्षिक पृष्ठïभूमि न होने की परेशानी का सामना करें, लेकिन इस दिशा में इस खाई को पाटने की दिशा में जरूरी कदम उठाये जाने जरूरी हैं। निजी स्कूल शिक्षा के कानूनी अधिकार को किस हद तक यथार्थ रूप दे रहे हैं, इसका निरीक्षण स्थानीय अधिकारियों द्वारा समय-समय पर किया जाना चाहिए। लेकिन शैक्षिक तंत्र पर नौकरशाही हावी न हो जाए, इस आशंका को निर्मूल साबित करने की दिशा में भी कदम उठाने जरूरी हैं अन्यथा इससे भ्रष्टïाचार को बढ़ावा मिलेगा। इसके अलावा महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उच्चस्तरीय निजी स्कूल के तंत्र से भी खिलवाड़ रोकना जरूरी है, ताकि वे अपने उच्चस्तर को बनाए रखें। यदि इन आशंकाओं का निराकरण हो पाएगा तो शिक्षा के कानूनी अधिकार की सार्थकता सिद्ध हो पाएगी।

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