सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू परिवार में बच्चा गोद लेते समय पत्नी की सहमति के नियम की व्याख्या करते हुए कहा है कि बच्चा गोद लेते समय पत्नी की मूक उपस्थिति को उसकी सहमति नहीं मानी जा सकती। यहां तक कि पत्नी की चुप्पी या विरोध न जताने को भी बच्चा गोद लेने में उसकी सहमति नहीं मानी जा सकती। न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी ने हिंदू दत्तक एवं भरणपोषण कानून, 1956 की धारा 7 की व्याख्या करते हुए कहा है कि हिंदू पुरुष अपनी पत्नी की सहमति के बगैर बच्चा गोद नहीं ले सकता है और यह सहमति या तो लिखित हो या फिर बच्चा गोद लेने में पत्नी के काम या व्यवहार से उसकी सकारात्मक सहमति प्रकट होती हो। सहमति के स्पष्ट सबूत होने चाहिए। सिर्फ गोद लेने के समारोह में पत्नी की अन्य महिलाओं के बीच मूक उपस्थिति को सहमति नहीं माना जा सकता। पीठ ने कहा कि भारतीय समाज में सदियों से पति की दबदबे की स्थिति रही है। विशेष तौर पर हिंदू परिवारों में। पुराने हिंदू कानून में पति को लड़का गोद लेने का एकछत्र अधिकार था उसकी पत्नी उसके इस अधिकार पर सवाल नहीं उठा सकती थी और न ही विरोध कर सकती थी। भारत के संप्रभु राष्ट्र बनने के बाद हिंदुओं के कानून संहिताबद्ध हुए। हिंदू विवाह, उत्तराधिकार, संरक्षक से जुड़े कानूनों के साथ हिंदू दत्तक एवं भरण पोषण कानून भी संहिताबद्ध हुआ। इस कानून की धारा 7 में पति के बच्चा गोद लेते समय पत्नी की सहमति को जरूरी माना गया है। पत्नी की अनिवार्य सहमति के उपबंध से उसे परिवार को प्रभावित करने वाले मामलों में निर्णय लेने लायक बनाया गया है। अगर पत्नी को लगता है कि उसके पति की पसंद परिवार के हित में नहीं है तो वह अपने अधिकार का उसके खिलाफ उपयोग कर सकती है। इस कानून के बाद बालिग हिंदू स्त्री को अपने लिए बेटा या बेटी गोद लेने का अधिकार मिला है। कोर्ट ने मध्यप्रदेश के एक मामले में निचली अदालत और हाईकोर्ट के उस फैसले को निरस्त कर दिया जिसने 1959 के गोदनामे को सही माना था और गोद लेने के समारोह में पत्नी मौजूदगी को उसकी सहमति मान लिया था। पीठ ने कहा कि इस बात का कोई स्पष्ट सबूत नहीं है कि घीसालाल को गोद लेते समय गोपाल ने अपनी पत्नी धापूबाई की सहमति ली थी।
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