फौजदारी के मुकदमों के मामलों में पटना हाईकोर्ट को किया आगाह कहा, हत्या जैसे संगीन अपराधों में अदालतें कर रहीं अभियोग निर्धारित करने में गंभीर लापरवाही
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट को आगाह किया है कि फौजदारी के मुकदमों का संचालन करने वाली अदालतों को दुरुस्त किया जाए। ट्रायल कोर्ट कानूनी प्रक्रिया को नजरअंदाज करके मुकदमे चला रही हैं। ट्रायल कोटरे को फौजदारी के बुनियादी कानूनों से वाकिफ कराया जाए। जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस आरएम लोढ़ा की बेंच ने कहा कि हत्या जैसे संगीन अपराधों में अभियोग निर्धारित(चार्ज फ्रेमिंग) करने में अदालतें गंभीर लापरवाही बरत रही हैं। लगभग सभी अदालतें एक ही परिपाटी अपनाए हुए हैं। फौजदारी कानून के बुनियादी सिद्धांत के तहत अभियुक्तों के खिलाफ उन सभी धाराओं के तहत अभियोग निर्धारित किए जाते हैं, जिन पर मुकदमा चलना है। लेकिन बिहार में ऐसा नहीं हो रहा है। अधिसंख्य अदालतें केवल एक धारा में आरोप तय करके गवाही शुरू कर देती हैं। फौजदारी कानून इसकी इजाजत नहीं देता। फौजदारी कानून के तहत अगर अभियुक्तों पर आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत पुलिस ने आरोपपत्र दायर किया और अदालत उन धाराओं के अंतर्गत अभियुक्तों पर मुकदमा चलाना चाहती है तो अभियुक्तों को हर अलग- अलग धारा के तहत अभियोग निर्धारित करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के एक अभियुक्त को बरी करते हुए समूचे राज्य की अदालतों के जजों की पेशेवर योग्यता को संदेह के घेरे में ला दिया। सज्जन शर्मा बनाम बिहार के मामले में ट्रायल कोर्ट ने हत्या तथा आईपीसी की अन्य धाराओं के तहत अभियुक्तों पर मुकदमा चलाया लेकिन अभियोग सिर्फ धारा 302(हत्या) के तहत ही निर्धारित किए। हत्या के पांच अभियुक्तों के खिलाफ धारा 302 के अलावा धारा 148(घातक हथियारों से लैस होकर बल्वा करना), धारा 149(गैर-कानूनी रूप से एकत्रित होकर हमला करना), धारा 34(अपराध के लिए समान मकसद), धारा 379(चोरी) अर शस्त्र अधिनियम की धारा 27(अवैध रूप से हथियार रखना) के अंतर्गत मुकदमा चला। लेकिन अभियोग केवल धारा 302 के तहत ही तय किए गए थे। बचाव पक्ष के वकील नगेन्द्र राय ने कहा कि जब एक से अधिक अभियुक्तों पर हत्या का आरोप हो तो धारा 34 के तहत चार्ज फ्रेम किए बिना मुकदमा नहीं चल सकता है। अगर मुकदमा चलता भी है तो उसका लाभ अभियुक्त को मिलना चाहिए। वरिष्ठ अधिवक्ता पटना हाईकोर्ट के जज भी रह चुके हैं। पटना हाईकोर्ट के जज रह चुके जस्टिस आलम ने उनके तर्क से सहमति व्यक्त की। जस्टिस आलम ने कहा कि चार्ज फ्रेम करने का यह तरीका बेहद गलत है। उन्होंने कहा कि मेरा अपना अनुभव भी कहता है कि बिहार की ट्रायल कोर्ट चार्ज फ्रेम करने पर ध्यान नहीं देती। अभियोग के अलावा सीआरपीसी की धारा 313 के तहत ट्रायल के अंत में अभियुक्त से पूछताछ का तरीका भी खामियों से भरा है। अभियुक्त पर लगे आरोपों के बारे में उससे विस्तार से अपना पक्ष रखने का प्रावधान है। पर बिहार की अदालतें इस सिलसिले में मात्र खानापूरी कर देती हैं। मौजूदा केस में भी अभियुक्त सज्जन शर्मा से सिर्फ यह पूछा गया कि आपके खिलाफ नारायण कुंवर की 24 नवंबर, 1994 को हत्या के सबूत हैं। अभियुक्त ने इसे नकार दिया। अभियुक्त को अपने बचाव में कुछ कहने के लिए कहा गया। इस पर अभियुक्त ने अपने आप को बेकसूर कहा। दो सवाल पूछकर ट्रायल कोर्ट ने धारा 313 की कार्यवाही समाप्त कर दी। जबकि कानून में साफतौर पर कहा गया कि अभियुक्त के खिलाफ आए सभी सबूतों के बारे में उसे बताया जाता है और अभियुक्त उसका जवाब देता है। सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट से कहा कि इन खामियों को जल्द दूर किया जाए। राज्य की जुडीशियल अकादमी के प्रभारी जज को भी फैसले की प्रति भेजी गई है ताकि हाईकोर्ट के प्रभारी जज ट्रायल कोर्ट के जजों को इस बारे में प्रशिक्षित कर सकें। सुप्रीम कोर्ट ने इन खामियों पर गौर करने की नसीहत के साथ ही अभियुक्त को बरी कर दिया। बेंच ने कहा कि ट्रायल कोर्ट की लापरवाही के अलावा भी अभियुक्त पर लगाए गए आरोप निराधार हैं। हत्या गांव की रंजिश को लेकर हुई थी। मृतक के भतीजे ने एफआईआर में अभियुक्त सज्जन का नाम दर्ज नहीं कराया था। वारदात के लगभग 20 दिन बाद उसका नाम आया। यह संभव नहीं है। एक ही गांव में रहने वाले लोग हत्या करने वालों को नाम से न जानते हों, यह मुमकिन नहीं है।
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