Monday, March 7, 2011

न्यायपालिका ने दिखाया सही रास्ता


इस फैसले से कई और सवाल उठते हैं। थॉमस अगर चार्जशीटेड थे तो उन्हें इतने बड़े संवैधानिक पद के लिए चुना क्यों गया? प्रधानमंत्री ने गलती मानी है, यह तो ठीक है। लेकिन गलती मानने के लिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक का इंतजार करना सही नहीं है।
हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट की सजगता की वजह से कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच परफेक्ट बैलेंस बनता दिख रहा है। अब हर छोटे-बड़े काम की मीमांसा होगी, हर गलत फैसले को सुधारना होगा, हर पावरफुल अधिकारी को यह मानना होगा कि वह अपनी मनमानी नहीं कर पाएगा। स्वस्थ प्रजातंत्र को इससे ज्यादा और क्या चाहिए
सबसे पहले तो मैं सुप्रीम कोर्ट को सलाम करना चाहता हूं। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कुछ दिनों में यह दिखा दिया है कि शासन तंत्र का एक अंग अगर ठीक से काम नहीं कर रहा हो तो उसे कैसे दुरुस्त किया जाए। 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में भारी घपला हुआ था। पिछले चार साल से सबको यह पता है। बेशकीमती सरकारी संपदा यानी स्पेक्ट्रम कम्पनियों को कौड़ी के भाव दे दिये गए। किसे फायदा पहुंचाया जाए, इसमें भी सारी हदें पार कर दी गई। जांच से यह बात खुल कर सामने आ रही है कि नये-नये तरीकों से पैसे का लेन-देन हुआ। मामला पूरी तरह से दबा दिया जाता अगर सुप्रीम कोर्ट की तरफ से पहल नहीं हुई होती। इस पूरे मामले में सीएजी की रिपोर्ट आई जिसमें यह कहा गया कि स्पेक्ट्रम के आवंटन में गलत फैसले की वजह से सरकार को करीब एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। पहले यह कोशिश हुई कि इस रिपोर्ट को ही झूठा साबित कर दिया जाए। बात नहीं बनी तो यह कह दिया गया कि कंज्यूमर को फायदा पहुंचाने के लिए स्पेक्ट्रम को सस्ते भाव पर कम्पनियों को दिया गया। लेकिन इस तरह की थोथी दलील से बात नहीं बनी। सुप्रीम कोर्ट की पहल पर पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए. राजा, उनके निजी सचिव और उस समय के टेलीकॉम सचिव को गिरफ्तार किया गया। तीनों अभी जेल में ही बंद हैं। इसके अलावा कई कॉरपोरेट दिग्गजों से लम्बी पूछताछ हुई। कुछ को गिरफ्तार भी किया गया। यह सब सुप्रीम कोर्ट की सजगता का ही परिणाम है। इसी बीच, यह भी खबर आई कि भ्रष्टाचार से लड़ाई लड़ने वाली सर्वोच्च संस्था के मुखिया के चुनाव में ही घपला हुआ है। मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा। कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में सीवीसी की नियुक्ति को अवैध माना। दरअसल, हुआ यह कि जिन पीजे थॉमस साहब को सीवीसी नियुक्त किया गया, उनके खिलाफ पिछले 19 साल से एक मामला चल रहा है। मामला यह है कि जिस समय वह केरल के फूड और सिविल सप्लाई सचिव थे, उस समय मलयेशिया से पामोलिन का आयात हुआ था। थॉमस के खिलाफ आरोप है कि उनके फैसले की वजह से केरल सरकार को दो करोड़ तीस लाख रुपये का नुकसान हुआ। सवाल यह नहीं है कि थॉमस के खिलाफ लगे आरोप सही हैं या नहीं। सवाल यह है कि जिस पर खुद भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, वह भ्रष्टाचार से लड़ने वाली संस्था का मुखिया कैसे हो सकता है? थॉमस को जानने वाले उनकी सचाई की दुहाई देते हैं। लेकिन सवाल यह है कि इतने लम्बे समय तक इतने ऊंचे ओहदे पर रहने वाला अफसर 19 साल तक अपने आप को बेदाग क्यों नहीं साबित कर पाया? क्या ऐसा तो नहीं है कि सत्ता के घमंड में सबको दबाने की कोशिश की गई? दरअसल, सत्ता के नशे में चूर हर व्यक्ति यह भूल जाता है कि नेचुरल जस्टिस जैसी भी कोई चीज होती है। सत्ता पर आसानी बड़े लोग अक्सर यह भूल जाते हैं कि जिस सिस्टम की वजह से वह पावरफुल बने हुए हैं वह सिस्टम सबसे ऊपर है। ‘लॉ ऑफ लैंड’ की कद्र नहीं हुई तो सारे पावर अपने आप फुर्र हो जाते हैं। यह हुआ भी। सुप्रीम कोर्ट ने सीवीसी के मामले पर कह दिया कि पीजे थॉमस जैसे लोगों को सीवीसी के पद पर रहना उस संस्था के मूल्यों से समझौता है। थॉमस भले ही पाक-साफ रहे हों। हो सकता है कि उन्होंने कोई गलती नहीं की हो। लेकिन सीवीसी के पद पर बने रहने के लिए उन्होंने जिस तरह की थोथी दलीलें दीं, वह पूरे शासन तंत्र को शर्मसार करता है। अपनी गलती छुपाने के लिए उन्होंने यह तक कह डाला कि मामले तो 150 से ज्यादा सांसदों के खिलाफ भी हैं। उनको पद से हटाने की बात क्यों नहीं होती है? थॉमस साहब शायद यह भूल गए कि सांसदों का फैसला हर पांच साल पर जनता की अदालत में हो जाता है जबकि वह पिछले 19 साल से ढ़ाई करोड़ रुपये के मामले को निगलकर नई-नई कुर्सियां पाते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद थॉमस का भविष्य तय हो गया है। लेकिन इस फैसले से कई और सवाल उठते हैं। थॉमस अगर चार्जशीटेड थे तो उन्हें इतने बड़े संवैधानिक पद के लिए चुना क्यों गया? प्रधानमंत्री ने अपने सिर पर जिम्मेदारी लेकर अपना बड़प्पन दिखाया है। लेकिन इतने बड़े पद पर किसी को आसीन करने में जल्दबाजी ठीक नहीं होती है। प्रधानमंत्री ने गलती मानी है, यह तो ठीक है। लेकिन गलती मानने के लिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक का इंतजार करना सही नहीं है। अब तो बस यही उम्मीद है कि आने वाले दिन में ऐसी गलती फिर से दुहराई नहीं जाए। मैं आशावादी हूं और मुझे बहुत कुछ अच्छा होता दिख रहा है। सबसे अच्छी बात यह है कि हमारा प्रजातंत्र इतना मजबूत हो गया है कि इसमें गलती करने वाला कितना ही पावरफुल क्यों न हो, उसे भी अपनी गलती माननी पड़ती है। प्रजातंत्र में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच परफेक्ट बैलेंस होना बेहद जरूरी होता है। अगर कार्यपालिका को लगे कि वह इतनी पावरफुल है कि कुछ भी कर सकती है और कोई अंकुश लगाने वाला भी नहीं है तो ये काफी खतरनाक होता है। ऐसे ही माहौल में करप्शन फलता-फूलता है। विधायिका कुछ कानून बना ले और कोई रिव्यू नहीं हो, वह भी वांछनीय नहीं है। लेकिन हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट की सजगता की वजह से कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच परफेक्ट बैलेंस बनता दिख रहा है। अब हर छोटे-बड़े काम की मीमांसा होगी, हर गलत फैसले को सुधारना होगा, हर पावरफुल अधिकारी को यह मानना होगा कि वह अपनी मनमानी नहीं कर पाएगा। स्वस्थ प्रजातंत्र को इससे ज्यादा और क्या चाहिए। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच फिर से परफेक्ट बैलेंस बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को मैं एक बार फिर सलाम करता हूं। देश और प्रजातंत्र का भला इसी में है।


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