Tuesday, March 15, 2011

अरुणा, इच्छा मृत्यु और आशंकाएं


अरुणा शानबाग के बहाने देश को ऐसा कानून मिलने जा रहा है, जिस पर पिछले तीन दशक से देश ही नहीं, पूरी दुनिया में बहस चल रही है। अरुणा शानबाग की इच्छा मृत्यु यानी यूथेनेशिया की याचिका सुप्रीमकोर्ट ने इसलिए ठुकरा दी, क्योंकि उसकी जिंदगी के बारे में फैसला करने का हक याचिका दायर करने वाली पिंकी वीरानी नहीं, बल्कि किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल को है, जिसकी नर्से समर्पित होकर पिछले 37 वर्षो से वार्ड में अचेत पड़ी अरुणा की सेवा कर रही हैं। सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि अरुणा के सबसे करीबी लोग उसकी इच्छामृत्यु नहीं चाहते। लिहाजा अनुरोध नहीं माना जा सकता। यही नहीं, अरुणा अचेत होने के बावजूद सामान्य जीवन जी रही है। उसे किसी बाहरी उपकरण के जरिए सांस नहीं लेनी पड़ रही है और उसका दिल सामान्य रूप से धड़क रहा है। वह न कॉमा में है और न ही ब्रेन डेड। पर इसी के साथ सुप्रीमकोर्ट ने मरीज की जरूरत के मद्देनजर इच्छा मृत्यु संबंधी कानून बनाने का रास्ता भी साफ कर दिया है। अदालत ने कहा कि अब पैसिव इच्छा मृत्यु संबंधी कानून बनाने का वक्त आ गया है। परमानेंट वेजिटेटिव स्टेट यानी नीम बेहोशी में पडे़ मरीज को जीने में मददगार यंत्र लाइफ सपोर्ट सिस्टम संबंधित हाईकोर्ट की पूर्व अनुमति लेकर निकाले जा सकेंगे। कोर्ट ने यह साफ किया कि वह एक्टिव यूथेनेशिया को उचित नहीं मानता। लिहाजा, इसकी इजाजत नहीं दे रहा है। इसका मतलब यह कि वह किसी व्यक्ति का जीवन जहरीले इंजेक्शन जैसी कोई चीज देकर हरने के पक्ष में नहीं है। इस बारे में जब तक कानून नहीं बन जाता, तब तक के लिए जस्टिस मारकंडेय काटजू और सुप्रीमकोर्ट की इकलौती महिला जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्र ने दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इस फैसले से उन चंद मरीजों, उनके परिवारों और डॉक्टरों को जरूर राहत मिलेगी, जो लंबे समय से बेसुध पडे़ अपने प्रियजन का कष्ट नहीं देख पा रहे हैं, जिनके लिए उन्हें मशीनों के बल पर जीवित रखने का खर्च उठा पाना संभव नहीं है और डॉक्टर जिनकी हालत में सुधार की उम्मीद खो चुके हैं। सरकारी सरगर्मी इस बीच यूथेनेशिया पर केंद्र सरकार भी अपने पुराने रुख से पलटती लग रही है। फैसले से पहले तक सरकार लगातार यूथेनेशिया का विरोध करती रही थी, पर अब अचानक विधि मंत्रालय में कानून बनाने की सरगर्मियां शुरू हो गई हैं। विधि मंत्री वीरप्पा मोइली के निर्देश पर मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी सुप्रीमकोर्ट के फैसले के अध्ययन में लग गए हैं। वह इस संभावना का पता लगाएंगे कि ऐसा कानून कितना कारगर होगा? इस विषय पर पहले एक खाका तैयार कर मोइली को दिया जाएगा और फिर उस पर समाज के विभिन्न वर्गो से रायशुमारी की जाएगी। यह अति भावुक और संवेदनशील मसला है। लिहाजा, सरकार इस पर राष्ट्रव्यापी चर्चा कराएगी। सरकार की तरफ से इस मामले के दौरान एटॉर्नी जनरल ई गुलाम वाहनवती ने हर किस्म के यूथेनेशिया का विरोध किया था। उन्होंने तब भी यही दलील दी थी कि भारत इसके लिए भावनात्मक तौर पर तैयार नहीं है। हाईकोर्ट देगा इजाजत अदालत ने इच्छा मृत्यु के लिए जो तरीका तय किया, उसके तहत इस बारे में अंतिम फैसला मरीज जिस राज्य में है, वहां के हाईकोर्ट की दो सदस्यीय पीठ करेगी। इसके लिए मरीज के परिवार के लोग या परिवार न होने के मामले में निकटतम लोगों और डॉक्टरों के पैनल की मंजूरी जरूरी है। पैनल में न्यूरोलॉजिस्ट, मनोचिकित्सक और फिजीशियन होंगे। हाईकोर्ट पक्षकारों को नोटिस जारी कर इस मामले को यथासंभव जल्द निपटाएगा। वाहनवती की इस आशंका पर कि इससे तो उन रिश्तेदारों की बन आएगी जो मरीज की संपत्ति हथियाना चाहते हैं, न्यायालय ने कहा कि इसीलिए सारा मामला रिश्तेदारों पर नहीं छोड़ा गया है। अभिभावकों, पत्नी और करीबी रिश्तेदारों, मित्रों के अलावा इलाज कर रहे डॉक्टरों की राय को भी बराबर तवज्जो देने की बात है। फैसले में आत्महत्या के मानवीय पहलू पर भी ध्यान दिया गया है। जजों का कहना था कि खुदकुशी के प्रयास के लिए सजा का प्रावधान करने वाली धारा 309 को इंडियन पेनल कोड से हटा देना चाहिए। कोई भी शख्स हताशा में खुदकुशी की कोशिश करता है। ऐसे शख्स को सजा नहीं, मदद की जरूरत है। लिहाजा, संसद को इस बारे में विचार करना चाहिए। फैसले में लॉ कमीशन की 210वीं रिपोर्ट का भी हवाला है। अक्टूबर 2008 को जारी इस रिपोर्ट में कमीशन ने आत्महत्या संबंधी इस कानून पर नए सिरे से विचार की सिफारिश की थी, जिसे सरकार ने नहीं माना था। गौरतलब है कि बांग्लादेश, पाकिस्तान, सिंगापुर, मलेशिया और भारत को छोड़कर दुनिया के ज्यादातर देशों में आत्महत्या का प्रयास अपराध की श्रेणी में नहीं आता। कौन हैं अरुणा शानबाग बहरहाल, यह बनाना जरूरी है कि किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में पिछले 37 वर्षो से पड़ी अरुणा शानबाग उसी अस्पताल में नर्स थीं। कभी अपने काम के प्रति वह समर्पित और खुशमिजाज युवती हुआ करती थीं। 27 नवंबर 1973 को उन पर वार्ड बॉय सोहन लाल वाल्मीकि की बुरी नजर पड़ी। उसने अरुणा को चेन से बांधकर दुष्कृत्य करने की कोशिश की। वह अपने इरादे में कामयाब तो नहीं हो पाया, पर चेन से बंधे रहने के कारण अरुणा के दिमाग को ऑक्सीजन और खून नहीं मिल पाया। इससे उसके गले और दिमाग की कई नसें निष्कि्रय हो गई और लंबे इलाज के बावजूद अरुणा की हालत में सुधार नहीं हुआ। अरुणा की आंखों की रोशनी चली गई थी। वह कुछ सुन नहीं पाती थीं और उन्हें लकवा मार गया था। इस कांड के अगले दिन वाल्मीकि गिरफ्तार कर लिया गया। अगले वर्ष उसके खिलाफ हत्या की कोशिश और अरुणा के कानों की बालियां चोरी करने और अप्राकृतिक यौनाचार के लिए चार्जशीट दाखिल हुई। डॉक्टरी जांच में बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई थी। लिहाजा, उसे सात साल की सजा हुई। अब वह सजा पूरी कर चुका है। कहते हैं कि वह दिल्ली के किसी अस्पताल में नौकरी कर रहा है। अरुणा की उम्र 63 वर्ष है। जब उसके साथ यह हादसा हुआ, तब वह 26 वर्ष की थी। पिछले 37 वर्षो में अरुणा को कई बार अस्पताल के वार्ड से हटाने की कोशिश हुई, पर हर बार उसकी साथी नर्से उसके समर्थन में आ गई। नई और पुरानी सभी नर्से उसकी सेवा करती हैं। अरुणा हिल-डुल नहीं सकती, लेकिन वह अपना पसंदीदा भोजन मछली और चिकन सूप मिलने पर खुश हो जाती है। वह होंठ पर जीभ फिरा लेती है और उसकी बेरौनक आंखों में चमक आ जाती है। उसके दिमाग की नसें सिंकुड़ गई हैं, पर दिमाग जीवंत है। इसी बिनाह पर सुप्रीमकोर्ट ने उसे इच्छा मृत्यु देने की याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने पिंकी वीरानी की तारीफ तो की, पर अस्पताल की नर्सो को अरुणा का करीबी रिश्तेदार माना, जो उसकी मृत्यु के पक्ष में नहीं थीं। अरुणा की हालत में न कोई सुधार है और न गिरावट। वह ब्रेन डेड नहीं है। उसे कृत्रिम सांस देने की जरूरत नहीं है। उसकी जांच करने वाली डॉक्टरों की टीम उसकी हालत में सुधार की संभावना से भी इनकार नहीं करती, पर सच्चाई यह है कि अरुणा उसी बिस्तर पर 37 वर्षो से पड़ी है और युवती से बूढ़ी हो गई। (लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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