Monday, March 7, 2011

जीने के हक में


इच्छा मृत्यु पर प्रस्तावित कानून बन सकता है मील का पत्थर
सर्वोच्च न्यायालय ने 37 वर्षों से अस्पताल के बिस्तर पर कोमा में पड़ी अरुणा रामचंद्रन शानबाग को दया मृत्यु दिए जाने संबंधी याचिका खारिज जरूर कर दी है, मगर इससे एक व्यापक बहस को आधार मिला है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूरगामी है और इस पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती। जो लोग अरुणा के लिए दया मृत्यु की मांग कर रहे थे, उनका तर्क था कि अरुणा को सम्मानपूर्वक मरने का हक देना चाहिए, क्योंकि वह कोई सम्मानपूर्वक जिंदगी नहीं जी रही हैं, बल्कि उन्हें क्लिनिकली जीवित रखा गया है। ऐसे लोगों को, जिनमें मैं भी शामिल हूं, उम्मीद थी कि न्यायाधीश अरुणा की दया मृत्यु संबंधी याचिका पर इसी आधार पर गौर करेंगे। हमारी भारतीय परंपरा में इच्छा मृत्यु का एक स्वरूप पहले से ही विद्यमान है। हिंदू धर्म में समाधि लेने या कल्पवास की परंपरा और जैन धर्म में संथारा की परंपरा इच्छा मृत्यु का ही एक रूप है। विदेशों में भी चिकित्सीय कारणों से इच्छा मृत्यु देने संबंधि कानून मौजूद है।
अरुणा शानबाग मुंबई के किंग्स एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में काम करती थीं। 27 नवंबर 1973 को उनके साथ उसी अस्पताल में काम करने वाले सफाई कर्मचारी सोहनलाल ने यौन दुराचार किया था। उसने बड़ी नृशंसता से कुत्ते की जंजीर से बांधकर अरुणा के साथ दुष्कर्म किया, जिसके कारण वह कोमा में चली गईं। अपने बचाव के क्रम में अरुणा की आंखों की रोशनी भी चली गई और उन्हें लकवा मार गया, जिससे उनके बोलने की शक्ति भी खत्म हो गई। सोहनलाल उसे मरा समझकर मौके से फरार हो गया, जिसे बाद में हत्या की कोशिश के जुर्म में सात साल की सजा हुई और वह फिर रिहा भी हो गया। लेकिन अरुणा आज बिना किसी गुनाह के सम्मानपूर्वक जीने का संविधान प्रदत्त अधिकार भी खो चुकी हैं। चूंकि डॉक्टरों ने भी उनकी हालत में सुधार की गुंजाइश से इनकार कर दिया है, ऐसे में थोड़ी-सी संवेदनशीलता दिखाते हुए उन्हें सम्मानपूर्वक मरने का अधिकार देना उचित ही होता।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने एक्टिव यूथनेसिया (प्रत्यक्ष इच्छा मृत्यु) को गैर कानूनी बताया है और कुछ खास परिस्थितियों में पैसिव यूथनेसिया (अप्रत्यक्ष इच्छा मृत्यु) को मंजूरी दी है। यह ऐतिहासिक कदम है। दरअसल एक्टिव यूथनेसिया में मरणासन्न मरीज को मृत्यु के लिए प्रत्यक्ष सहयोग दिया जाता है, यानी उसे मारने के लिए अलग से ड्रग या इंजेक्शन वगैरह दिया जाता है। जबकि पैसिव यूथनेसिया में जीवन रक्षक प्रणाली पर जीवित मरणासन्न मरीज के शरीर से यह प्रणाली हटा ली जाती है, ताकि उसकी मृत्यु हो जाए। कोर्ट ने यह भी कहा कि जब तक इस संबंध में देश की संसद कोई कानून नहीं पारित करती, तब तक उसका फैसला मान्य रहेगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक भविष्य में हाई कोर्ट तीन डॉक्टरों की राय लेने और सरकार तथा मरणासन्न मरीज के निकट संबंधियों की राय लेने के बाद पैसिव यूथनेसिया की मंजूरी दे। अरुणा शानबाग के संघर्ष पर किताब लिख चुकीं पिंकी विरानी ने अरुणा के लिए पैसिव यूथनेसिया की इजाजत अदालत से मांगी थी। इसका मतलब है कि अस्पताल प्रशासन उसे दिए जा रहे भोजन को बंद कर दे, ताकि उसे इस नारकीय जीवन से छुटकारा मिल सके।
जहां तक अस्पताल प्रशासन की देखरेख का सवाल है, सुप्रीम कोर्ट ने भले ही उसकी प्रशंसा की है, लेकिन 37 वर्षों से अरुणा को इस तरह जीवित रखने के पीछे कौन-सा तर्क है? क्या वह चिकित्सकीय प्रयोग की वस्तु बनकर नहीं रह गई हैं? आखिर यह किसने तय किया कि अरुणा मरना नहीं चाहतीं? पिंकी विरानी अरुणा शानबाग की न तो कोई रिश्तेदार हैं और न ही उन्हें इसका कोई मुआवजा चाहिए। केवल मानवता के नाते वह उन्हें सम्मानपूर्वक मरने का हक दिलाना चाहती हैं। उन्होंने शरीर की यातना से अरुणा को मुक्ति दिलाने के लिए इसकी अपील की और इस बड़े मुद्दे को बहस के केंद्र में लाया। ऐसे और भी मामले सामने आए हैं।
किंग्स एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल अरुणा के जरिये दरअसल चिकित्सा विज्ञान को साबित करना चाहता है कि आप इन-इन तरीकों से शरीर को जिंदा रख सकते हैं। लेकिन ऐसी जिंदगी का क्या मतलब है? चूंकि जो डॉक्टर या नर्स अरुणा के साथ उस अस्पताल में काम करते थे, वे सब तो कब के रिटायर्ड हो गए। वहां अब तकरीबन सारे डॉक्टर, नर्स और अन्य कर्मचारी नए हैं, उनकी संवेदना अरुणा के साथ कितनी हो सकती है, यह सोचने वाली बात है।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को इस बारे में कानून बनाने का सुझाव दिया है। मेरा मानना है कि इस संबंध में जो भी कानून बने उसे काफी सोच-समझकर तैयार किया जाए और उसमें कानूनी, नैतिक एवं सामाजिक पक्ष को भी ध्यान में रखा जाए। इसकी अनदेखी नहीं होनी चाहिए। मेरी राय है कि ऐसे किसी भी संभावित कानून में एक बोर्ड के गठन का प्रावधान होना चाहिए जिसमें चिकित्सक, कानूनविद् और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हों। किसी मरणासन्न मरीज की हालत में यदि सुधार की गुंजाइश न हो, तब उसके निकट संबंधियों के साथ ही इस बोर्ड की सलाह भी ली जाए।
असल में इच्छा या दया मृत्यु एक अत्यंत नाजुक और संवेदनशील मसला है, लिहाजा इसके दुरुपयोग के खतरे भी ज्यादा हैं। आज जिस तरह से समाज में बुजुर्गों की उपेक्षा बढ़ती जा रही है और उनकी संपत्ति हड़पने के मामले दिनों-दिन प्रकाश में आ रहे हैं, वैसे में ऐसा कोई कानून बनाते वक्त उसके दुरुपयोग को रोकने के उपाय करना भी बेहद जरूरी है।

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