Thursday, March 3, 2011

कानून नहीं देता इच्छामृत्यु का हक


 अरुणा रामचंद्र शानबॉग को अपनी जान देने का हक मिलेगा या नहीं, देश की सर्वोच्च अदालत ने बुधवार को इस मसले पर पूरी बहस सुनकर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। 37 साल से बिस्तर पर पड़ी मुंबई की नर्स अरुणा का भोजन बंद करने की याचिका दायर करने वाली उनकी मित्र पिंकी विरानी दलीलों की भरमार के दौरान अकेली पड़ गई। भारतीय समाज, परंपरा, मानवता और कानून के तमाम पहलुओं से लबरेज तर्क-वितर्क सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि इच्छामृत्यु के फैसले के दुरुपयोग की आशंका हमेशा बनी रहेगी। अटानी जनरल जी.ई. वाहनवती ने इच्छामृत्यु का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने कहा, विधायिका इस बारे में कानून बनाने की मांग ठुकरा चुकी है और न्यायालय को विधायिका के इस फैसले को उचित महत्व देना चाहिए। कानून इच्छामृत्यु की इजाजत नहीं देता। अटार्नी जनरल ही नहीं बल्कि अरुणा का इलाज कर रहे किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल (केईएम) ने भी उनका भोजन बंद करने का विरोध किया है। 27 नवंबर, 1973 को अस्पताल के ही एक सफाईकर्मी ने अरुणा के साथ बड़ी बेरहमी से दुष्कर्म किया था। दुष्कर्म के दौरान उसने अरुणा के गले में कुत्ते को बांधने वाली जंजीर लपेट दी थी। इस घटना के बाद से अरुणा बिस्तर से नहीं उठ सकी। बुधवार को जैसे ही सुनवाई शुरू हुई न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा ने अरुणा की वास्तविक स्थिति बयां करने वाली सीडी देखी। इसमें बिस्तर पर लेटी बेहद कमजोर अरुणा दिखाई दी, जो चीख रही थी और किसी तरह चम्मच से दिए जा रहे भोजन और पानी को निगल रही थी। उसका बायां हाथ भी हरकत में नजर आया। इससे पता चलता था कि वह ब्रेन डेड या कोमा की स्थिति में नहीं है, जैसा कि उसका भोजन बंद कर दयामृत्यु देने की मांग करने वाली याचिका में कहा गया है। अटार्नी जनरल ने देश-विदेश के कानून और सामाजिक व नैतिक परिस्थितियों का हवाला देते हुए कहा कि बीमारी के आधार पर दयामृत्यु की इजाजत नहीं दी जा सकती। अगर कोर्ट ने इस आधार पर दयामृत्यु की इजाजत दी तो परिवार वाले वृद्ध परिजनों के मामले में उसका दुरुपयोग भी कर सकते हैं। पीठ ने वाहनवती की दलील से सहमति जताई। भावनात्मक और सामाजिक तर्को के साथ वाहनवती ने कानूनी तथ्य भी गिनाए। उन्होंने कहा, विधि आयोग ने अपनी 196वीं रिपोर्ट में इस बारे में कानून बनाने की सिफारिश की थी लेकिन सरकार ने विधि आयोग की रिपोर्ट स्वीकार नहीं की। इस संबंध में एक निजी बिल भी पेश किया गया लेकिन विधायिका ने इच्छामृत्यु का अधिकार देने पर कानून बनाने की मांग ठुकरा दी। न्यायालय को विधायिका के फैसले को उचित महत्व देना चाहिए। न्यायालय कानून नहीं बना सकता। अरुणा की देखरेख कर रहा केईएम दयामृत्यु के हक में नहीं है। अस्पताल के डॉक्टरों का कहना है कि हम अरुणा का भोजन बंद नहीं करना चाहते और जब तक उसका जीवन है उसकी देखरेख करते रहेंगे। इस मामले पर न्यायालय के मददगार वरिष्ठ अधिवक्ता अधिअर्जुना ने भी कहा कि अरुणा की देखभाल करने वाले अस्पताल की इच्छा को महत्व दिया जाना चाहिए|

No comments:

Post a Comment