Thursday, March 3, 2011

न्यायिक सुधार समय की जरूरत


हमारे मुल्क में ज्यादातर मुकदमे छोटे-छोटे झगड़ों और आपसी अहं की लड़ाइयों के नतीजे होते हैं। इनमें से बहुत सारे मुकदमे ऐसे होते हैं, जिन्हें अदालती गलियारों में सालों-साल भटकाने की जगह घंटो की बातचीत में आसानी से निपटाया जा सकता है। खास तौर से पारिवारिक और वैवाहिक विवादों के दीवानी मामले तो मध्यस्थता के जरिये बेहतर तरीके से और काफी कम समय में ही सुलझ सकते हैं। हाल ही में हमारे मुल्क की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में लोगों को कमोबेश ऐसी ही एक नसीहत देते हुए कहा कि लंबी कानूनी लड़ाई पक्षकारों को सिर्फ बर्बाद करती है, जिसमें समय और पैसे दोनों का भारी खर्च होता है। लिहाजा, विवाद निपटारे के वैकल्पिक तंत्र यानी मध्यस्थता को ज्यादा से ज्यादा लोग अपनाएं। जस्टिस मार्कडेय काटजू और जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा की पीठ ने पक्षकारों के साथ-साथ वकीलों को भी यह सलाह दी कि छोटे-छोटे मामलों में वे अपने मुवक्किलों को मध्यस्थता का रास्ता चुनने की सलाह दें। यदि विवाद दो भाइयों के बीच है तो हमारे विचार से मध्यस्थता से इसका समाधान खोजा जाना चाहिए। वकीलों और पक्षकारों को ऐसे मामलों में गांधीजी की सलाह के मुताबिक मध्यस्थता या पंचाट की मदद लेनी चाहिए, क्योंकि दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 89 भी यही कहती है। पीठ ने अपने फैसले में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के इस कथन का बाकायदा जिक्र करते हुए कहा, महात्मा गांधी जो कि पेशे से वकील थे ने एक बार कहा था, वकील के तौर पर मैंने 20 साल प्रैक्टिस की। इसमें मेरा ज्यादातर वक्त सैकड़ों मामलों में समझौता करने में ही बीत गया। ऐसा करके मैंने कुछ नहीं खोया, पैसा भी नहीं और निश्चित रूप से आत्मा तो बिल्कुल नहीं। बहरहाल पीठ ने इस टिप्पणी के साथ याचिकाकर्ता बीएस कृष्णमूर्ति और बीएस नागराज के बीच संपत्ति विवाद से जुड़े मामले का निस्तारण करते हुए मामला बेंगलुरू के मध्यस्थता केंद्र को दोबारा सौंप दिया। सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है ऐसा नहीं कि यह बहुत मुश्किल काम है, बल्कि मुल्क में समय-समय पर लोक अदालतों के जरिये इस तरह के छोटे-छोटे मुकदमों का निपटारा किया जाता रहा है। बीते दिनों ही दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मेगा लोक अदालत के जरिए महज एक दिन में एक लाख से ज्यादा मुकदमों का निपटारा कर दिखाया था। हालांकि इन मुकदमों में ज्यादातर मुकदमे यातायात से संबंधित अपराधों, वैवाहिक विवाद, चेक बाउंस, पारिवारिक विवाद और छोटी-छोटी शिकायतों के थे, जिन्हें दोनों पक्षकारों से बातचीत कर आसानी से सुलझा दिया गया। वरना यह मुकदमें अदालतों में बरसों से खिंच रहे थे। हमारे यहां न्यायिक व्यवस्था कुछ ऐसी हो गई है कि छोटे से छोटे मामलों के निपटारे में बरसों लग जाते हैं। जबकि इन्हीं मुकदमों की यदि सही तरीके से सुनवाई की जाए तो ये महज कुछ महीनों में ही सुलझ जाएं। इसके पीछे देखें तो कहीं न कहीं हमारी अदालतों की कार्यप्रणाली भी जिम्मेदार है। गवाहों का उपस्थित न होना, सम्मन तामील न होना, प्रोसीक्यूशन सिस्टम द्वारा न तो समय पर चालान पेश करना और न ही गवाही करवाना जैसी प्रचलित लापरवाहियों के चलते कई बार जज चाहकर भी सुनवाई और जल्दी न्याय नहीं कर पाते। न्यायिक प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए कुछ कदम जो सबसे पहले उठाए जाने की दरकार है वह है कि लॉ इंफोर्सिग एजेंसियां, अभियोजन और वकील अपना-अपना काम ईमानदारी से करें। बार-बार स्थगन की प्रवृत्ति पर रोक लगे, प्रोसीक्यूशन सिस्टम को सक्षम और मुस्तैद बनाया जाए, जजों के लिए इनसेंटिव सिस्टम लाया जाए और इन्वेस्टीगेशन विंग को पुलिस से अलग किया जाए। इसके अलावा एक अच्छी कोशिश तो यह होगी कि प्री-कोर्ट प्रोसीडिंग सिस्टम लाकर मामले को अदालत में जाने के पहले ही हल करने की कोशिश की जाए। बहरहाल अदालतों को मुकदमों के ढेर से निजात दिलाने के लिए केंद्र सरकार ने देर से ही सही अब राष्ट्रीय मुकदमा नीति बनाने का फैसला किया है। इस नीति का प्रमुख उद्देश्य लंबित मुकदमों की औसत अवधि 15 साल से कम करके तीन साल करना है। यही नहीं अदालती समय का ज्यादा से ज्यादा सदुपयोग करने के लिए सरकार ने सभी अदालतों में कोर्ट मैनेजर्स की नियुक्ति करने का भी अहम फैसला किया है। इस फैसले से न सिर्फ अदालतों पर पेंडिग मुकदमों का अंबार कम होगा, बल्कि प्राथमिक औपचारिकताएं पूरी होने के बाद ही केस जज के सामने सुनवाई के लिए सूचीबद्ध होगी और दायर करने की तारीख के हिसाब से सुनवाई की प्राथमिकता तय होगी। इस समय अदालत का 60 से 65 फीसदी अदालती समय विभिन्न औपचारिकताएं पूरी करने में चला जाता है। इसके अलावा भी अन्य कई वजहों से सूचीबद्ध मुकदमों की सुनवाई कई-कई बार स्थगित करनी पड़ती है। इस तरह देखने में आता है कि अदालतों का आधे से अधिक समय मुकदमों की सुनवाई स्थगित करने और अगली तारीख तय करने में चला जाता है। यह अलग बात है कि हलफनामा आदि दायर न होने पर भी जजों को सुनवाई टालनी पड़ती है। इन व्यवस्था को दुरुस्त करते हुए जजों के सामने मुकदमा सूचीबद्ध होने से पहले सभी औपचारिकताएं पूरी करने का जिम्मा अब कोर्ट मैनेजर्स का होगा। अदालतों द्वारा जारी नोटिस तामील हुए हैं या नहीं और याचिका में बताई गई कमी को सुधारा गया है या नहीं, इस पर पहले से ही गौर कर लिया जाएगा ताकि अदालत में केस सूचीबद्ध होने पर जज सुनवाई कर सकें। इस समय सुनवाई के लिए लगे सभी केस पहले कॉल किए जाते हैं और फिर यदि सभी कागजात दुरुस्त नहीं होते हैं तो मजबूरन अगली तारीख लगानी पड़ती है। हमारे यहां न्यायिक सुधार कई सालों से लंबित हैं फिर भी इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे थे। केंद्र सरकार ने देर से ही सही, मगर राष्ट्रीय मुकदमा नीति बनाने का जो अहम फैसला किया है उसकी तारीफ की जानी चाहिए। इस नीति के सही क्रियान्वयन का असर आने वाले कुछ सालों में अदालतों के कामकाज पर पड़ सकता है। नीति के अमल में आने के बाद जहां मुकदमों की संख्या घटेगी, वहीं मुकदमों की सुनवाई भी जल्दी हो सकेगी। इंसाफ में देरी से अक्सर जो नाइंसाफी होती है जाहिर है वह भी कम होगी। सरकार ने राष्ट्रीय न्याय आपूर्ति एवं कानूनी सुधार मिशन कायम करने का जो फैसला सैद्धांतिक तौर पर लिया है, उससे मुल्क के अंदर अदालतों में बुनियादी ढांचे के विकास में मदद मिलेगी। कुल मिलाकर बड़े पैमाने पर न्यायिक सुधार से ही मौजूदा न्याय व्यवस्था सुधारी जा सकती है। न्यायिक सुधार की राह में सरकार द्वारा उठाए गए हालिया कदम आश्वस्त करते हैं कि मुल्क में जल्द ही विधि का शासन कायम होगा। वर्तमान में न्यायिक प्रणाली की सक्षमता व कार्यप्रणाली को लेकर जिस तरह के सवाल उठ रहे थे उसके मद्देनजर यह एक दूरगामी कदम कहा जा सकता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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