Wednesday, March 9, 2011

दया-मृत्यु की इजाजत के खतरे


दया-मृत्यु के मामले में अदालत का फैसला बहस की शुरुआत भर है। आने वाले वर्षो में ही इसके दूरगामी परिणाम एवं प्रभाव देखने में आएंगे। अभी कुछ कहना मुश्किल है। फिर भी यहां के लोगों, विभागों की ईमानदारी का जो स्तर है और कुछ हद तक अदालतों में व्याप्त सुस्ती एवं भ्रष्टाचार देखते हुए कहा जा सकता है कि इस फैसले का दुरुपयोग भी होगा। लगातार इस पर काम करना होगा कि कहीं परिवार वाले या करीबी दोस्त एवं चिकित्सक मिलीभगत कर किसी के प्राण असमय लेने पर आमादा तो नहीं हो रहे
सवरेच्च न्यायालय ने सात मार्च के अपने फैसले में ‘यूथनेशिया’ (यानी ऐसे व्यक्ति को दया मृत्यु देना जो गम्भीर बीमारी से ग्रस्त हो, जिसके ठीक होने की आशा क्षीण हो और जिसे प्रतिक्षण अथाह दर्द से गुजरना पड़ता हो) की आज्ञा कुछ शतरे के साथ दे दी है। यह आज्ञा सिर्फ ‘पैसिव’ यानी परोक्ष होगी, एक्टिव (प्रत्यक्ष) नहीं। पैसिव का अर्थ होगा मरीज के शरीर से चिकित्सा सम्बंधी सपोर्ट सिस्टम जैसे दवा की नली, वेंटीलेटर आदि को हटा लेना तथा एक्टिव का अर्थ होगाचिकित् सक द्वारा खुद जहरीला इंजेक्शन देना जिससे मरीज बिना दर्द भोगे चुपचाप मृत्यु की गोद में सो जाए। पैसिव यूथनेशिया के लिए भी एक निश्चित प्रक्रिया से गुजरना होगा। मरीज के करीबी या रिश्तेदार इस अनुमति के लिए अपने राज्य के उच्च न्यायालय में याचिका दायर करेंगे और मुख्य न्यायाधीश उसके लिए खंडपीठ बनाएंगें। खंडपीठ तीन चिकित्सकों की टीम का गठन करेगी और उसकी अनुशंसा पर अपना निर्णय सुनाएगी। अरुणा शानबाग (62 वर्ष) के मुकदमे के दौरान यह फैसला देश की सर्वोच्च अदालत से आया है। घटना 27 नवम्बर 1973 की है। अरुणा एक ट्रेंड नर्स थी। वह मुम्बई के किंग एडर्वड अस्पताल (केईएम) में काम करती थी। उस दिन अरुणा औरों की अपेक्षा ज्यादा देर तक काम करती रही क्योंकि ‘फूड प्वायजनिंग’ के ग्रस्त कई बच्चे अस्पताल आये थे। नसरे का लॉकर ‘बेसमेंट’ में था। अरुणा वहां अपने कपड़े रखने गई। तभी वार्ड ब्वॉय सोहनलाल वाल्मीकि उसका पीछा करता हुआ वहां आ पहुंचा और उसने अरुणा के गले में कुत्ता बांधने की चेन डालकर उसके साथ अप्राकृतिक बलात्कार किया। इस क्रम में चेन ने कुछ पलों के लिए अरुणा के गले और मस्तिष्क की नसों का सम्बंध विच्छेद कर दिया और उसके कुछ सेल्स क्षतिग्रस्त हो गए। लोगों को जब पता चला और उन्होंने अरुणा को देखा तो उसके होंठ हिल रहे थे और आंखों से आंसू बह रहे थे- पर घटना के आघात और शारीरिक चोट ने उसकी आवाज छीन ली थी। कुछ देर बाद ही वह कोमा में चली गई। लेकिन यह सौ प्रतिशत कोमा की स्थिति नहीं थी। आज भी अरुणा मछली और आम शौक से खाती है। कोई उसे स्पर्श करता है तो वह प्रतिक्रिया दर्शाती है, मुंह भरा हो तो खाना नहीं लेती। चिल्लाती है, जब उसका बिस्तर गीला हो जाता है। कुछ साल पहले खाना नापसंद आने पर वह सिस्टर की अंगुली काट डालती थी। वह ऐसा जाहिर नहीं करती कि वह मरना चाहती है। जो नर्स एवं डॉक्टर उसकी देखभाल करते हैं, उन्हें उसकी सेवा से परहेज नहीं है। फिर भी अरुणा की मित्र पिंकी विरानी ने उसकी हालत पर तरस खाकर उक्त याचिका दायर की थी। पिंकी का इरादा नेक था, ऐसा सर्वोच्च न्यायालय ने माना है पर ऐसे मामलों में न्यायालय ने पीड़ित रोगी की इच्छा को सवरेपरि माना है। यह अच्छी बात है। इसीलिए पूरा केईएम अस्पताल खुश है, जश्न मना रहा है। पर नाराज है पिंकी से। कारण वह अरुणा की सेवा करने या कष्ट देखने तक नहीं आती। पर इस मुकदमे ने एक बहस छेड़ दी है और दूसरों के लिए सर्वोच्च न्यायालय के ये दिशा निर्देश, एक कानून बनने तक काम करते रहेंगे। जैसा कि विशाखा (कार्यस्थल पर यौन अत्याचार प्रतिरोधक दिशा निर्देश) के मामले में हो रहा है। अदालत ने पैसिव यूथनेशिया के खतरे को भांपते हुए कहा कि ‘भारत में हर चीज के व्यापारीकरण को देखते हुए परिवार वालों एवं चिकित्सकों की मर्जी पर मरीज का इलाज बंद करना घातक होगा। कारण कितने ही मामलों में वे राय-मशविरा कर इलाज बंद कर देते हैं और रोगी की मृत्यु हो जाती है। ऐसा मरीज की सम्पत्ति हथियाने या इलाज के पैसे बचाने, दोनों ही कारणों से हो सकता है। सवाल यह नहीं है कि ‘इलाज कर मरीज की जिंदगी को लम्बा किया जाए या नहीं, बल्कि यह है कि यह मरीज के हित में है या नहीं।’
अदालत ने आगे कहा, ‘व्यक्ति को तभी मृत कहा जाएगा जब उसका मस्तिष्क सौ प्रतिशत मृत हो गया हो, उसके सारे कार्यकलाप बंद हो गए हों। ब्रेन स्टेम तक समाप्त हो गया हो वरना नहीं।’ विदेशों में ब्रेन डेड होने पर मृत घोषित किया जाता है पर भारत में दिल की धड़कन बंद होने पर। फैसला यहीं तक सीमित नहीं रहा बल्कि इसने भारतीय दंड संहिता की धारा 309 (आत्महत्या करने की कोशिश) को भी समाप्त करने की अनुशंसा कर दी। पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ज्ञान कौर के मुकदमे में ऐसा करने से मना कर दिया था। इस बार अदालत ने कहा ‘लोग आत्महत्या की कोशिश अत्यंत अवसाद में करते हैं, उन्हें सजा नहीं, मदद की जरूरत है।’
चिकित्सकों के ‘ऐथिकल स्टैंर्डड्स’ पर भी अदालत ने सवालिया निशान लगाए हैं। हालांकि यह भी कहा है कि ज्यादातर चिकित्सक अपने पेशे के प्रति जिम्मेदार एवं ईमानदार हैं पर कुछ हैं जिनकी वजह से यह सुविधा, गलत लोगों की इच्छाओं के आगे झुककर उन्हें मनमानी प्रदान कर सकती है। वैसे चिकित्सा जगत भी दया मृत्यु के पक्ष में नहीं है। बेंगलुरू के कार्डियालाजिस्ट डॉ. देवी प्रसाद शेट्टी के अनुसार ‘भारत में अभी इतनी परिपक्वता नहीं है कि दया मृत्यु को अंजाम दिया जाए।’ उनके अनुसार चिकित्सक पैसिव यूथनेशिया के पक्ष में भी नहीं है। वे कहते हैं ‘हम चिकित्सक बनने के पहले लोगों की जीवन रक्षा की शपथ खाते हैं। उन्हें मारने की नहीं।’ फिर कौन कह सकता है कि कोमा में व्यक्ति कब तक जिंदा रहेगा और कब तक नहीं? पता नहीं कब नया इलाज आ जाए और रोगी वापस लौट आए? कई-कई वर्षो बाद रोगी को कोमा से पूर्णतया वापस आते सुना गया है। कुल मिलाकर यह फैसला एक बहस की शुरुआत भर है। आने वाले वर्षो में ही इसके दूरगामी परिणाम एवं प्रभाव देखने में आएंगे। अभी कुछ कहना मुश्किल है। फिर भी यहां के लोगों, विभागों की ईमानदारी का जो स्तर है और कुछ हद तक अदालतों में व्याप्त सुस्ती एवं भ्रष्टाचार देखते हुए कहा जा सकता है कि इस फैसले का दुरुपयोग भी होगा। इसी मुकदमे में अरुणा की और वहशी सोहन वाल्मीकि की जिंदगी देखिए। सोहन इतने वर्षो से इस सारी र्चचा को टीवी पर देखता होगा-अखबारों में पढ़ता होगा। बलात्कार की ऐसी सजा जो अरुणा ने भोगी है, उसका दशांश भी सोहन ने नहीं भोगा। अरुणा की आत्मा और हृदय के साथ-साथ उसका शरीर भी असह्य कष्ट भोग रहा है। बलात्कार पीड़िता के प्रति पुलिस, समाज, अदालतों की सहानुभूति ज्यादा होनी चाहिए न कि अपराधी के प्रति जिसकी सजा लगातार कम होती जाती है और कुछ जुर्माना लगाकर समझा जाता है कि उसने सजा काट ली। इस फैसले के बाद लगातार इस बात पर काम करना होगा कि कहीं परिवार वाले या करीबी दोस्त एवं चिकित्सक मिलीभगत कर किसी के प्राण असमय लेने पर तो आमादा नहीं हो रहे, अपनी चाल में सफल तो नहीं हो रहे। वैसे ही हमारे यहां स्वार्थ का बोलबाला है। भ्रूण एवं दहेज हत्याओं के उदाहरण पहले से हैं तथा यौन अत्याचारों में भी हमारा देश विश्व के देशों में अग्रणी है। एक सव्रे के अनुसार भारत में पांच में से एक पुरुष जीवन में कभी न कभी यौन अत्याचार करता है। लड़कियों के मामले में यह कानून बहुत चैलेंजिंग साबित होने वाला है। विदेशों में जहां यह कानून है वहां परिस्थितियां इतनी विषम एवं जटिल नहीं हैं, गरीबी नहीं है। चिकित्सा सुविधाएं कम नहीं है। मथुरा, वृंदावन, हरिद्वार, ऋषिकेश में हजारों विधवाओं, बूढ़े माता-पिता के बारे में सोचना होगा जो अपने घरों से कूड़ा-करकट की तरह बुहार दिये गये हैं। ऐसे सामाजिक परिवेश में बीमार की मृत्यु का सर्टिफिकेट या आज्ञा प्राप्त कर लेना क्या ठीक होगा? कहा जा सकता है कि फैसला समय से पहले और परिस्थितियों में बदलाव के पहले आ गया है। ऐसे में सतर्कता या सजगता ही बचाव है।

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