Friday, February 11, 2011

न्यायपालिका को नसीहत


लेखक न्यायपालिका को हद में रहने की प्रधानमंत्री की नसीहत को ही हदों का उल्लंघन बता रहे हैं

बेईमान खिलाड़ी को ईमानदार रेफरी खलनायक लगता है और चोर को पहरेदार। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह न्यायिक सक्रियता से परेशान हैं। उन्होंने राष्ट्रमंडल विधि सम्मेलन में जुटे 53 देशों के 800 प्रतिनिधियों के सामने न्यायपालिका को हद में रहने की सलाह दी कि न्यायिक समीक्षा के अधिकार का प्रयोग देश के दूसरे विभागों को मिली संवैधानिक जिम्मेदारियों को कमजोर करने के लिए नहीं होना चाहिए। प्रधानमंत्री की मानें तो न्यायालय कार्यपालिका के संवैधानिक अधिकारों में दखल दे रहे हैं। उन्हें दागी मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति के मसले पर न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणी अखरी है। वह 2-जी भ्रष्टाचार की न्यायिक कार्रवाई से भी खार खाए प्रतीत होते हैं। विदेशी बैंकों में जमा काले धन के मसले पर भी कोर्ट की कार्यवाही उनकी बेचैनी है। गोदामों में सड़ते खाद्यान्न को गरीबों में बांटने के न्यायिक निर्देश से भी वह असहमत थे। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एके गांगुली ने विलासराव देशमुख को सर्वोच्च न्यायपीठ द्वारा निंदित किए जाने के बावजूद केंद्रीय मंत्री बनाए जाने को बेशर्मी बताया है। कोर्ट ने ढेर सारे मौकों पर केंद्र की कानखिंचाई की है। प्रधानमंत्री कोर्ट से भी उदारीकरण की आस लगाए थे। प्रधानमंत्री जी कृपया राष्ट्रीय जिज्ञासा का उत्तर दीजिए-करोड़ों रुपये के 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर आप क्यों मौन रहे। कोर्ट ने संवैधानिक दायित्व निभाया तो भी आप निष्कि्रय क्यों हैं? गरीब भूखे मरें, आत्महत्या करें, अनाज सड़ता रहे, कोर्ट ने निर्देश दिए तो भी आपकी सरकार क्यों निष्कि्रय रही? केंद्रीय सतर्कता आयुक्त संसद सदस्यों के आपराधिक चरित्र का हवाला दे रहे हैं, कोर्ट प्रश्न प्रतिप्रश्न पूछ रहा है। बावजूद इसके उन्हें केंद्र का संरक्षण क्यों है? कालेधन के सवाल पर केंद्र की निष्कि्रयता का मूल कारण क्या है? आखिर आप किसे बचाने की जोड़-जुगत में हैं? आखिरकार सरकार अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वहन क्यों नहीं करती? क्या आप चाहते हैं कि लूट, भ्रष्टाचार और वित्तीय अराजकता पर भी कैग और अदालत सरकार समर्थक एजेंसियों की तरह मौन रहें। कोर्ट ने आखिरकार सरकार के किस संवैधानिक दायित्व के निर्वहन में बाधा पहुंचाई है? आपकी नसीहत एक नया विधितंत्र विकसित करने की है कि विकास का लाभ सभी वर्गों को बराबर मिले। इस नसीहत का कोर्ट से क्या संबंध है? आर्थिक अवसरों के समान वितरण की जिम्मेदारी में सर्वशक्तिमान और विद्वान अर्थशास्त्री होने के बावजूद आप क्यों विफल रहे? सर्वोच्च न्यायालय को हद बताना अनुचित है। भारत ने ब्रिटिश परंपरा की संसदीय सर्वोच्चता और अमेरिकी संविधान की न्यायिक सर्वोच्चता को मिलाकर संवैधानिक सर्वोच्चता का सिद्धांत बनाया। यहां संविधान सर्वोच्च है, वही शिखर सत्ता है। सर्वोच्च न्यायालय इसी सर्वोच्चता का निगरानीकर्ता व संरक्षक है। देश की सभी संवैधानिक संस्थाओं का कामकाज देखने वाले संरक्षक व निगरानीकर्ता के रूप में उसकी प्रतिष्ठा है। आश्चर्य है कि संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन में भी भ्रष्टाचार करने वाले कतिपय लोगों के संरक्षक प्रधानमंत्री ही न्यायालय को हद में रहने का सुझाव दे रहे हैं। न्यायालय की हदें संविधान निर्माताओं ने ही बता दी थीं। संविधान सभा में सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारों पर बहस चली। अल्लादि कृष्णा स्वामी अय्यर ने कहा था, जहां तक इस देश का संबंध है, उच्चतम न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार के अनियंत्रित प्रयोग के लिए जैसे चाहे नियम या परंपराएं चलन में ला सकता है, उसे कोई रुकावट नहीं हैं। प्रधानमंत्री जी अनियंत्रित प्रयोग पर ध्यान देना चाहें। लेकिन प्रधानमंत्री शायद चीन की तरह प्रतिबद्ध न्यायपालिका चाहते हैं। मनमोहन सिंह चाहते हैं कि जनतंत्र लूटतंत्र की तरह चले, सत्ता मनमानी करे, मौलिक अधिकारों का हनन हो और सर्वोच्च न्यायपीठ सत्ता के सुर में सुर मिलाकर मिले सुरे मेरा तुम्हारा गाए। प्रधानमंत्री ने कोई नई बात नहीं कही। कांग्रेस 15 अगस्त, 1947 से ही सत्तावादी अधिनायकवादी है। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का कहना था, संसद की इच्छा पर कोई उच्चतम न्यायालय, न्यायपालिका अपना निर्णय नहीं लाद सकती। भारतीय संसद बेशक सर्वसत्ता संपन्न है, वह कानून बनाती है, बजट पारित करती है, सरकार को जवाबदेह बनाती है, संविधान में संशोधन भी करती है लेकिन व्यवहार में सारा कार्य बहुमत दल करता है। तमाम घोटालों पर अब तक संसद में क्या हुआ? संयुक्त संसदीय समिति का गठन संसद का अधिकार है, सत्ता दल ने ही उसका अधिकार हड़पा है। मौलिक अधिकारों में भी कटौती के प्रयास हुए। सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ मुकदमे में मूल अधिकारों के संशोधन को गलत ठहराया। कांग्रेसी बहुमत ने 24वें संविधान संशोधन के जरिए मूल अधिकारों में भी संशोधन का अधिकार हथियाया। सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद मुकदमे में संविधान के बुनियादी ढांचे को न बदलने का सिद्धांत दिया। इंदिरा गांधी 42वां संशोधन (1976) लाईं। न्यायिक पुनर्निरीक्षण के अधिकार घटाने सहित न्यायालयों की शक्ति कम करने के तमाम उपबंध पारित हुए। न्यायपालिका की संवैधानिक सत्ता कांग्रेस को अखरती है। कांग्रेस देश को भी पार्टी की तरह चलाना चाहती है। कल्पना कीजिए, प्रधानमंत्री की अपेक्षानुसार सर्वोच्च न्यायालय भी निष्कि्रय होता, तो क्या संविधान में मौलिक अधिकार बचे रहते? क्या राज्यपाल अपने आवासों से ही बहुमत को अल्पमत और अल्पमत को बहुमत बनाने का घटिया खेल न खेल रहे होते? क्या विश्वस्तरीय घोटालेबाजों पर सीबीआई ऐसे ही छापे डाल रही होती? न्यायालय ने विदेशी बैंकों में जमाधन को लूट बताया। सरकार तो भी चुप है। न्यायालय ने ईसाई मतांतरण के दुष्चक्र पर तीखी टिप्पणी की है, सरकार मौन है। सरकारों के राजनीतिक हित होते हैं, सरकारी फैसलों में वोट बैंक साधने की भूख होती हैं। कोर्ट अन्य मामलों के अलावा जनहित याचिका भी सुनते हैं, संविधान के अनुसार फैसला देते हैं। उत्तर प्रदेश की सरकार ने जनहित में तमाम आपराधिक मुकदमे वापस लिए हैं। सरकार के जनहित और कोर्ट के जनहित में जमीन आसमान का फर्क है। हदें कौन तोड़ रहा है? सरहदें भी असुरक्षित हैं। न्यायालय ने बांग्लादेशी घुसपैठ को भारत पर आक्रमण बताया था, सरकार चुप है। केंद्रीय सत्ता के खिलाड़ी ही हदें तोड़ रहे हैं और सोची-समझी रणनीति के तहत कोर्ट की विश्वसनीयता घटा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने भी कोर्ट को हद में रहने की नसीहत देकर हद तोड़ी है। बेहद तकलीफदेह है उनकी यह नसीहत। (लेखक उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं)


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