Monday, February 14, 2011

जजों की कलम बोले या जुबान


क्या जजों को सार्वजनिक तौर पर ऐसी टिप्पणियां करनी चाहिए, जो लोकतंत्र के अन्य अवयवों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाएं? क्या उनका यह आचरण स्वयं अपनाई आचार संहिता के अनुरूप है? क्या ऐसे बयानों से संविधान और न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचती है? ये ऐसे सवाल हैं, जो इन दिनों देश में चर्चित हो रहे हैं। इन सवालों के नायक हैं सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस अशोक कुमार गांगुली। पिछले दिनों मुंबई में वकीलों के एक समारोह में उन्होंने एक ऐसी टिप्पणी कर दी, जिससे न्यायिक और राजनीतिक हलकों में बवंडर मच गया। उसके तुरंत बाद कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने बड़े संयमित स्वर में कहा कि संविधान में शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा है और लोकतंत्र के हर एक स्तंभ को इसका पालन करना चाहिए। जाहिर है, उनका इशारा जस्टिस गांगुली के भाषण की ओर था। इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी यह कहकर सनसनी फैला दी कि न्यायपालिका को संयम बरतना चाहिए और न्यायिक समीक्षा का मतलब किसी संस्था को नीचा दिखाना नहीं है। जहां तक न्यायपालिका का ताल्लुक है, जजों के लिए हमारे देश में ही नहीं, अनेक लोकतांत्रिक देशों में अलिखित आचार संहिता है। जज कभी राजनीतिक कार्यक्रमों में नहीं जाते। सार्वजनिक टिप्पणी नहीं करते। प्रतिष्ठित जज तो सार्वजनिक कार्यक्रमों में ही नहीं, पारिवारिक कार्यक्रमों में बहुत सोच समझकर शिरकत करते हैं। वह ऐसे, किसी व्यक्ति के साथ फोटो नहीं खिंचवाते, जिससे वह बखूबी परिचित न हों या परिचय के बावजूद उन्हें यह लगे कि वह उनकी तस्वीर का अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करेगा। पार्टियों में नहीं जाते। क्लब नहीं जाते। लोगों से मेलजोल नहीं बढ़ाते। अब तो सुप्रीम कोर्ट जजों की संपत्ति के ब्यौरे में कंपनियों के शेयरों इत्यादि का जिक्र है, पर कायदे से जजों को इससे भी परहेज रखना चाहिए। पहले जज शेयर खरीदी की बात तक नहीं करते थे, बल्कि ऐसी बातों को बड़ी हेय दृष्टि से देखते थे। ऐसी स्थिति में राजनीतिक किस्म की सार्वजनिक टिप्पणी तो बहुत दूर की बात थी। दिल्ली हाईकोर्ट के प्रभावशाली जज रहे जस्टिस आरएस सोढी को जस्टिस गांगुली की यह बयानबाजी सख्त नागवार गुजरी है। वह कहते हैं कि अदालत के बाहर इस तरह की टिप्पणियां नहीं की जानी चाहिए। अदालत में जज के अधिकार बड़े व्यापक हैं। मामलों की सुनवाई के दौरान आप जो चाहें टिप्पणी करें, पर सरकार के कामकाज पर सार्वजनिक टिप्पणी आपके दायरे में नहीं है। बेहतर है आप अपने दायरे में रहें। प्रधानमंत्री को तो हर पांच साल में चुनाव लड़ना है। जनता का सामना करना है, पर आप तो स्थायी हैं। ऐसी टिप्पणियां करके न्यायपालिका की इज्जत से न खेलिए। कल किसी ने जज पर सार्वजनिक टिप्पणी कर दी तो क्या इज्जत रह जाएगी। जस्टिस सोढी की सलाह है कि आपके दायरे में सिर्फ अदालत के अंदर टिप्पणी करने का हक है, बाहर टिप्पणी का नहीं। इससे बचना चाहिए। भारत जैसा इतना बड़ा मुल्क चलाना 18 आदमियों के बस की बात नहीं है। यह काम सरकार पर छोडि़ए। फीता काटने की चाहत छोडि़ए। अब जरा जस्टिस गांगुली की टिप्पणी देखें। उन्होंने कहा था कि सरकार ने दो महीने पहले सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में की गई टिप्पणी के बावजूद विलासराव देशमुख को न केवल पूरे ठाठबाट से पद पर बनाए रखा, बल्कि बतौर केंद्रीय कैबिनेट मंत्री उन्हें भारी उद्योग मंत्रालय की जगह ग्रामीण विकास मंत्रालय दे दिया। गौरतलब है कि विलासराव देशमुख जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे, तब उन पर गोकुलदास सानंद नाम के एक साहूकार के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज न होने देने के आरोप लगे थे। सानंद कांग्रेस विधायक दिलीप कुमार सानंद के पिता हैं। उन्होंने कलेक्टर से कहा था कि वह इस मामले में दखल न दे। यह बात उस दौर की है, जब कर्ज से परेशान किसान आत्महत्या कर रहे थे। लिहाजा, पुलिस ने अपनी डायरी में यह बात दर्ज कर ली थी और बाद में इसे अदालत में सबूत के तौर पर पेश किया गया था। बुलढाना के दो किसानों सरनध सिंह चव्हाण और विजय कुमार सिंह चव्हाण ने इस बारे में याचिका दायर की थी और बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने महाराष्ट्र सरकार पर 25 हजार रुपये का जुर्माना किया था। महाराष्ट्र सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई तो जस्टिस सिंघवी और गांगुली की पीठ ने आपराधिक मामले में दखलंदाजी के लिए देशमुख की निंदा की और जुर्माना बढ़ाकर दो लाख कर दिया। अदालत में टिप्पणियां अपनी जगह थीं, पर इस मामले पर जस्टिस गांगुली की सार्वजनिक टिप्पणी बहस का विषय बन गई। दिल्ली हाईकोर्ट के एक रिटायर चीफ जस्टिस ने कहा कि मैं हैरान हूं। सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च न्यायिक संस्था का कोई सिटिंग जज ऐसी टिप्पणी कैसे कर सकता है। उन्होंने कहा कि जजों से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने फैसलों के बारे में न बोलें, उनका तो फैसला ही बोलता है। न्यायिक बिरादरी में आज भी ऐसे जजों की कमी नहीं जो फीता काटने में विश्वास नहीं रखते, रिटायर होने पर आयोगों के अध्यक्ष बनकर जीवनभर सत्ता और बंगले का सुख लूटना जिन्हें पसंद नहीं है। वह उस दौर के जज हैं, जब सुप्रीम कोर्ट का जज होने के नाते उन्हें गाड़ी तक नहीं मिलती थी। अब जजों को वैसी ही सुविधाएं हैं, जैसी विधायिका और कार्यपालिका के सदस्यों को। समय बदल गया है। न्यायपालिका ने दिन-प्रतिदिन के कामों में अपनी पैठ बढ़ा ली है। पहले सिर्फ संवैधानिक मामले ही सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर पहुंचते थे, पर अब तो सफाई से लेकर परिवहन तक रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ा हर मसला सुप्रीम कोर्ट पहुंच रहा है। कुछ लोग इसे जस्टिस जेएस वर्मा द्वारा आरंभ की गई न्यायिक आंदोलनकारिता की देन मानते हैं तो कुछ लोग इसे लोकतंत्र के ढांचे में सकारात्मक परिवर्तन के तौर पर देखते हैं। एक बडे़ राजनीतिज्ञ कहते हैं कि न्यायपालिका जब कार्यपालिका के कामों को सुनिश्चित कराने की बेगार कर सकती है तो टिप्पणी करने में क्या हर्ज है। यह तो लोकतंत्र में आ रहे सहज बदलाव का सूचक है। विधायिका और कार्यपालिका पंगु होने लगे तो न्यायपालिका ही उम्मीद की किरण है। बहरहाल, जजों के सार्वजनिक व्यवहार का कोई निश्चित फार्मूला नहीं है। हां 1999 में देश के हाईकोर्टो के चीफ जस्टिसों का सम्मेलन हुआ था, जिसमें जजों के लिए 15 सूत्रीय आचार संहिता का अनुमोदन किया गया था। इसके पीछे धारणा यह थी कि ऊंची अदालतों के जज इन्हें अपने निजी और कामकाजी जिंदगी में आत्मसात कर लें ताकि न्यायपालिका की विश्वसनीयता कायम रह सके। इसमें आठवें क्रम में कहा गया था कि जज को किसी सार्वजनिक बहस में नहीं उलझना चाहिए, ही किसी ऐसे सार्वजनिक या राजनीतिक मसले पर अपने विचार रखने चाहिए, जो उनके समक्ष लंबित रहे हैं या आ सकते हैं। नौवें क्रम पर कहा गया है कि जजों से यह उम्मीद की जा सकती है कि उनका फैसला अपने-आप बोले। उन्हें मीडिया को इंटरव्यू नहीं देना चाहिए। जस्टिस गांगुली का मामला इन्हीं के बीच कहीं है। वह जजों के लिए तय की गई इस अनौपचारिक आचार संहिता का उल्लंघन करते नजर आ रहे हैं। आचार संहिता में इसके अलावा भी 13 बिंदु हैं, उनमें से कई ऐसे मसले हैं, जिन्हें तोड़ने के लिए गाहे-बगाहे जजों पर उंगली उठती रही है, जैसे जजों को चाहिए कि वह अपने परिवार के किसी सदस्य, अपने जीवनसाथी, बेटा-बेटी, दामाद या अन्य संबंधियों को अपने या अपने सहयोगियों की अदालत में पेश होने से रोके। यह भी कहा गया है कि यदि उस परिवार का कोई सदस्य वकील है तो वह जज के साथ उसके सरकारी निवास में न रहे। पर न्यायपालिका में कितने ही जजों की संतानें और रिश्तेदार न केवल उन अदालतों में वकालत कर रहे हैं, बल्कि उनके साथ ही रह रहे हैं। किसी जज ने राजनीतिज्ञ की तरह भले ही पहली बार किसी सार्वजनिक मंच पर ऐसी बात कही हो, पर न्यायपालिका पर सार्वजनिक टिप्पणी प्रधानमंत्री ने पहली बार नहीं की है। इससे पहले कई बार नेताओं ने जजों की विधायिका और कार्यपालिका संबंधी टिप्पणियों पर सदन में एतराज जताया है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर ने भी लोकसभा में दो बार इस बारे में चिंता जताई थी। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्रियों पीवी नरसिंह राव और अटल विहारी वाजपेयी की सरकारों से भरी लोकसभा में यह मांग की थी कि वह न्यायपालिका को अपनी सीमा में रहने को कहें। उनके सहित अनेक सदस्यों ने सदन के विशेषाधिकार का हवाला देते हुए इस बात पर चिंता जताई थी कि न्यायपालिका लगातार विधायिका के चाल-चरित्र और चेहरे पर जिस प्रकार प्रतिकूल टिप्पणियां कर रही है, उससे देश का लोकतांत्रिक संतुलन डगमगा जाएगा। इसलिए न्यायपालिका के लिए श्रेयस्कर यही रहेगा कि वह अपनी गरिमा बनाए रखते हुए लोकतंत्र के बाकी अवयवों की प्रतिष्ठा की भी रक्षा करे। न्यायपालिका के वरिष्ठ सदस्य सार्वजनिक रूप में ही नहीं, बल्कि अपने न्यायिक निर्णयों में भी संयमपूर्ण भाषा का प्रयोग करें। स्वर्गीय चंद्रशेखर ने यह टिप्पणी तब की थी, जब न्यायपालिका ने आंदोलनकारी रुख अख्तियार कर लिया था। अचानक कार्यपालिका के कामकाज पर टिप्पणियां बढ़ गई थीं। सोमनाथ चटर्जी ने भी जजों को विधायिका के मामले मे दखल न देने की ताकीद की थी। अब भी वैसा ही दौर है। 2जी स्पेक्ट्रम मामले पर सरकार के कामकाज के तरीके पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां जगजाहिर हैं। सीवीसी यानी मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति के मामले में अदालत की टिप्पणियों और फिर सरकार के बार-बार बयान पलटने से बड़ी किरकिरी हुई है। इससे बौखलाई सरकार के मुखिया का तो न्यायालय की आलोचना करना समझ में आता है। राजनेताओं के लिए वैसे भी न्यायपालिका जैसी कोई आचार संहिता न है, न होगी, पर न्यायपालिका की अपनी गरिमा है। भगवान की तरह धीर-गंभीर रहने वाले ये मी लॉर्ड यदि राग-द्वेष से परे नहीं रह पाए और आम आदमी की तरह निंदा आदि में उलझे रहे तो आम आदमी की उस पर कैसे आस्था बनी रहेगी। वह कैसे उनसे न्याय की उम्मीद रख्ेागा। हमारे संविधान में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के कामकाज और सीमारेखा का जिक्र है। ये तीनों ही अपने-आप में निरपेक्ष हैं। विधायिका का काम कानून बनाना है। कार्यपालिका इन्हें लागू कराती है और न्यायपालिका इनकी व्याख्या करती है। लोकतंत्र की खासियत यही है कि इसके तीनो स्तंभ अपने-अपने कामों में लगे रहें और एक-दूसरे पर टीका-टिप्पणी से बचें। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि जस्टिस गांगुली और प्रधानमंत्री जैसी संवैधानिक संस्थाओं के आचरण की समीक्षा तो समय करेगा। हालांकि संविधान, सरकार और जनता सभी जानते हैं कि जज आखिर जज हैं और नेता खालिस नेता। इसलिए यदि नेता भी अपने गिरेबान में झांककर सिर्फ वोटों ओर पैसे की राजनीति से बाज आकर अपने माई-बाप यानी जनता के भविष्य की चिंता करें और अपने आप को कानून के भी आगे रखने की आत्मघाती प्रवृत्ति से बचें तो शायद कोई जज तो क्या, आम आदमी भी शायद उन पर उंगली न उठाए। (लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)


4 comments:

  1. लेख को पेरा में बाँट कर पोस्ट करें, पढ़ने में सरलता रहेगी.

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  2. यदि आप हिंदी और हिंदुस्तान से प्यार करते है तो आईये हिंदी को सम्मान देने के लिए उत्तर प्रदेश ब्लोगेर असोसिएसन के सदस्त बने अनुसरण करे या लेखक बाण कर सहयोग करें. हमें अपनी id इ-मेल करें. indianbloger @gmail .com

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    आइये हम सब मिलकर हिंदी का सम्मान बढ़ाएं.

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  3. इस सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी चिट्ठा जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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