Thursday, February 24, 2011

त्वरित न्याय के ठंडे छींटे


गोधरा नरसंहार मामले में पूरे देश की निगाहें इस बात पर टिकी थीं कि कोर्ट इस जघन्य कांड को साजिश मानता है या दुर्घटना। उनसठ निदरेषों की मौत पर चली राजनीति और जांच के लिए बनाए गए दो आयोगों की विरोधाभासी रिपोटरे के बीच ऐसा अस्वाभाविक भी नहीं था। पर, इस फैसले में छुपे चंद सकारात्मक संदेश और भी हैं जिन पर भी देश को गौर करना चाहिए। सबसे पहले तो अदालत को इस बात के लिए बधाई मिलनी चाहिए कि उसने कम से कम समय में ऐसे संवेदनशील मामले को फैसले की मंजिल तक पहुंचा दिया। हालांकि, यह फैसला नरसंहार के नौ सालों के बाद आया लेकिन असलियत यह है कि अदालत ने तीन साल से कम अवधि में ही मामले की सुनवाई कर फैसला सुना दिया। बीच का लम्बा अंतराल सिर्फ इसलिए पैदा हुआ क्योंकि सुप्रीमकोर्ट ने वर्ष 2003 के नवम्बर से 2009 के मई माह तक ट्रायल पर रोक लगा रखी थी। रोक के पीछे ऐसे आरोप थे कि जांच को प्रभावित किया जा रहा है। सुप्रीमकोर्ट ने अपनी निगरानी में सीबीआई से जांच करवाई और आश्वस्त होने के बाद ही सुनवाई शुरू होने के आदेश दिए। मामला भी खासा पेचीदा था जिसमें अदालत को ढाई सौ से अधिक लोगों की गवाही लेनी पड़ी और डेढ़ हजार के आसपास सम्बंधित दस्तावेजों का अध्ययन करना पड़ा। बावजूद इसके, इतने कम समय में फैसला सुना कर अदालत ने साबित कर दिया कि भारतीय न्यायपालिका आदत से लेटलतीफ नहीं है। अगर देश की अदालतों में तीन करोड़ मामले लम्बित पड़े हैं तो इसकी जिम्मेदार न्यायपालिका नहीं बल्कि वह व्यवस्था है जो उसे मजबूरी की बेड़ियों में जकड़े रखती है। वैसे गोधरा से भी पहले उड़ीसा के कंधमाल दंगों में भी अदालत ने ऐसा ही रिकॉर्ड बनाया था जब महज दो सालों में फैसला सुना दिया गया था और दोषी दंड पा गए थे। बेशक गोधरा के त्वरित न्याय के पीछे सुप्रीमकोर्ट की भूमिका भी कम नहीं है जिसने विशेष जांच टीम से अपनी निगरानी में जांच करवाई। सवाल है कि अन्य मजहबी दंगों या बड़े मामलों में यह प्रक्रिया क्यों नहीं अपनाई जा सकती? साम्प्रदायिक दंगे न केवल निदरेष परिवारों को तबाह करते हैं बल्कि लोकतंत्र पर बदनुमा धब्बा भी लगाते हैं। दंगों के पहले और बाद में भी राजनीति का वीभत्स खेल चलता है और आम आदमी का विश्वास टूटता है। सिख विरोधी दंगों को बीते चौथाई सदी से अधिक का समय हो चुका है लेकिन अदालत और कानून का खेल आज भी जारी है। करीब इतना ही समय मेरठ दंगों को बीते हो चुका है लेकिन न्याय इसमें भी घोंघे की रफ्तार से चल रहा है। भागलपुर के बदनाम दंगों का फैसला अट्ठारह साल बाद आया तो मुम्बई दंगों पर श्रीकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट पर दो दशकों बाद भी कार्रवाई नहीं हो पाई है। गोधरा दंगे पर चली न्याय की ऐसी प्रक्रिया से सबक लेने और भविष्य के ऐसे मामलों में इसे दोहराने की जरूरत साफ दिखती है। अफसोस यह है कि लोकतंत्र का सशक्त स्तम्भ माने जाने के बावजूद न्यायपालिका को वह तवज्जो और संसाधनों का वह लाभ नहीं दिया जाता जिसकी वह स्वाभाविक हकदार है। न्याय में विलम्ब का मतलब न्याय नहीं मिलना, इस जुमले को दोहराते तो सब हैं लेकिन इसे सुधारने में रुचि कम ही दिखाते हैं। न्यायपालिका में व्यापक सुधारों के लिए प्रस्तावित कानून को कब संसद का मुंह देखना नसीब होगा,पता नहीं! साम्प्रदायिक दंगों और पीड़ितों के पुनर्वास के लिए प्रस्तावित विधेयक जल्द ही संसद में आने वाला है। उम्मीद है कि इसमें पिछले दिनों मिले सबकों का पूरा इस्तेमाल होगा और त्वरित न्याय का उपहार देश को मिलेगा।


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